हिन्दी की सेवा करने वाले हमारे देश के कवि, लेखक, चिंतक बहुत उत्तम साहित्य हमें दे चुके हैं और हम भाषा का सामान्य प्रयोग ही जब नहीं करते तो उस साहित्य तक भला कहां पहुंचेंगे ? महादेवी, प्रेमचंद, निराला, बच्चन, पंत ही नहीं, भारतेंदु, दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, सूरदास, तुलसीदास सबकी कही बातों का खजाना है हमारे पास। टैगोर, शरतचन्द्र, बंकिमचन्द्र, अमृता ने भारतीय भाषा में साहित्य रचा और देश की सेवा की।
हम कहां हैं ? हिन्दी की रोटी खाकर अंग्रेजी पान चबाने वाले तथा कथित शिक्षित! जिस देश में उसकी भाषा का मान नहीं, वह देश क्या अपनी गरिमा बनाए रख सकता है ? यदि हम सचमुच आजाद हो चुके हैं तो अपनी मानसिक गुलामी को दूर करें।
आइए, भारत को इंडिया के आवरण से मुक्त करें। अपनी भाषा सीखें, लिखें, बोलें। भारत की तमाम दूसरी भाषा भी सीखें। अंग्रेजी क्यों, फ्रेंच, जर्मन और दुनिया की तमाम भाषा सीखें पर पहले अपनी मातृ भाषा, अपनी राष्ट्र भाषा सीखें। अपनी मां को छोड़कर आप दूसरी मां का पल्लू पकड़ बैठे हैं। दुख है कि अपनी मां के आंसू भी नहीं दिखते तुम्हें ?