मां के गर्भ के नौ महीने और नवरात्रि के नौ दिवस, कितना खूबसूरत सा मेल है। सालों से नवरात्रि देखी और पूजन भी किया। इस बार एक विश्व प्रसिद्ध गरबा का हिस्सा बनने का अवसर मिला तो मन की अवस्थाओं को साझा करने का मन हुआ।
गरबा इस शब्द का उगम ही गर्भ शब्द से ही हुआ है। जैसे मां के गर्भ में नौ महीने तक भ्रूण से शिशु बन जाने का विज्ञान है, बिलकुल वैसा ही इन नौ दिनों की नवरात्रि का होता होगा। गरबा रमते या खेलते समय एक गोल घेरे में जब सारे घूमते हैं, तो बिल्कुल मां के गर्भ जैसी ही सुरक्षा की अनुभूति होती है।
जीवन जहां से प्रारंभ होता है, हम वो खोज नहीं पाते बस चलते जाते हैं। वैसे ही इस गोल गरबा घेरे में मैंने कहां से प्रारंभ किया वो मिलना कठिन प्रतीत होता है। फिर भी हम आगे बढ़ते हैं और आनंद में विलीन होते चले जाते हैं। पसीने से लथपथ कठिन क्षण प्रतीत होते हैं, जहां उसे पोछने लगेंगे तो घेरे की गति को बाधित कर देंगे।
बस ऐसे ही जीवन की कठिनाइयों से रुक गए, तो जीवन की गति के ताल को बेताल कर देंगे। किसी के पांव से पांव टकराना जीवन की टकराहट और तकरारों का प्रतीक हो जाता है। कोई बात नहीं कह कर हम उस गोल गरबा घेरे में जैसे आसानी से पुनः स्वयं को ताल बद्ध कर लेते हैं... जीवन में क्यों नहीं कर पाते?
ऐसा ही तो जीवन है। यात्रा बाहर से अंदर की ओर होनी चाहिए। कितनी आसानी से गरबा हमें अनुयायी, अग्रगामी और सहगामी होना सिखाता है। हर कोई इन तीन अवस्थाओं से जीवन में भी गुजरता है। परंतु अनेक क्षणों में हम अनुयायी या सहगामी होने से स्वयं को बाधित करते हैं। ये त्योहार हमें स्मृति कराते हैं कि जीवन भी एक त्योहार है। ये लय बद्ध न हो तो प्रयत्नपूर्वक उसे लाना होगा एक ताल में सुर के साथ।
मां का ये रंगों, उत्साह, आनंद से भरा त्योहार शक्ति और भक्ति का प्रतीक तो है ही, परंतु मुक्ति का संदेश भी देता है। मुक्ति बाधित अभिव्यक्ति से, कुंठित विचारों से, बाहरी आवेशों से, अस्पष्ट भयों से। स्वयं को स्वयं से जोड़ती, कितनी सुरीली और रंगीली शक्ति से लबालब ऐसी शुद्ध अनुभूति हैं ये नवरात्रि।