मैक्सिको से सीखें हम नेताओं को सुधारने के गुर

मैक्सिको के चिचीकुइला शहर के महापौर अल्फांसो मोंटीएल ने अपने चुनावी प्रचार में शहर के विकास हेतु जनता से अनेक वादे किए थे,जिनमें से अधिकांश अब तक पूर्ण नहीं हुए जबकि उनका कार्यकाल समाप्त होने वाला है। इसलिए वहां के लोगों ने रुष्ट होकर सिटी हॉल में महापौर और उनके स्टाफ को बंधक बना लिया।
 
उनका कहना था कि विद्यालयों की दशा में सुधार, पुल निर्माण समेत नगर विकास के अनेक वायदे महापौर ने पूर्ण नहीं किए। इसलिए उनकी रिहाई के बदले 3.4 करोड रुपए मांगे गए, जिनसे ये सभी कार्य करवाए जा सकें। अंततः महापौर ने क्षमा मांगते हुए एक करोड़ रुपए तत्काल उपलब्ध करवा दिए और साथ ही कार्यकाल पूर्ण होने के पहले सभी वादे निभाने का आश्वासन भी दिया। तभी लोगों ने उन्हें मुक्त किया।
 
इस समाचार ने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया कि जहां जनहित का प्रश्न हो अर्थात् साध्य अच्छा हो तो क्या साधन गलत भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं? परिणाम देखकर तो यही लगा।
 
यदि हम इस विषय में अपने राष्ट्र को देखें,तो यहां भ्रष्टाचार काफी विकसित अवस्था में है। खराब सड़कें, जर्जर पुल,अस्वच्छ जल, बेतरतीब यातायात, आवारा मवेशी, कमजोर विद्यालय भवन, मरम्मत की बाट जोहते सार्वजनिक क्षेत्र के कार्यालय, शिक्षकों की कमी, कृषकों की समस्याएं ,बाल श्रमिकों की समस्याएं, अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार ,नौकरियों की कमी, रिश्वतखोरी- सूची और भी लंबी हो सकती है।
 
इन सभी समस्याओं के मूल में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और जनता की सुस्ती दोनों ही हैं। जहां इन दोनों में से एक भी जागृत अवस्था में आ जाती है,कार्य गति पकड़ लेते हैं। अधिकारों और शक्तियों से लैस राजनेता चाहें, तो अपने चुनाव प्रचार के दौरान किए गए सभी वायदे पूर्ण कर सकते हैं। लेकिन प्रायः वे अपने पांच वर्षीय पर्याप्त लंबे कार्यकाल में इनमें से अधिकांश पूर्ण नहीं कर पाते हैं क्योंकि उस दौरान वे अपनी शक्तियों का इस्तेमाल स्वहित साधने में कर रहे होते हैं।
 
ये भी आजकल के राजनेताओं का शगल हो गया है कि जब अगला चुनाव सिर पर हो ,तब अंतिम कुछ महीनों में फौरी तौर पर कुछ वायदे पूरे कर दिए जाएं मानों जनता श्वान सम हो कि एक रोटी का टुकड़ा डाल कर पूरी रोटी की आस में अगले चुनाव में फिर वोट डाले और प्रतीक्षारत रहे।
 
दुःख के साथ-साथ क्रोध भी आता है इन लोगों की सोच पर। इन्हें अपनी चिंता है,देश की चिंता नहीं है। जिस जनता ने वोट देकर जिताया, उसका कुछ तो ऋण अपनी आत्मा में महसूस कीजिए। फिर यह भी सोचिए कि आप जितना जनता के प्रति समर्पित होंगे, उतनी जनता भी आपके प्रति होगी और यह आत्मीय संबंध आप की विजय को 'आजीवन सदस्यता' प्रदान करेगा।
 
इसके अतिरिक्त लोकसेवा से विकास को पंख लगेंगे, देश शक्तिशाली बनेगा, वैश्विक मंच पर और अधिक सशक्त होगा और यह सारा यश आपके खाते में जाएगा। तब आप राष्ट्रनेता से ऊपर विश्वनेता का गौरव पाएंगे। बस,दृष्टि बदलने की देर है।
जैसे ही स्वहित पर निबद्ध दृष्टि को अपनी पूरी हार्दिकता के साथ परहित पर केंद्रित किया,फिज़ा ही बदल जायेगी।
 
अब बात करें जनता की। जिन्हें आपने अपना बहुमूल्य मत देकर विजयी बनाया,उनके अकर्मण्य या स्वार्थी होने की दशा में चुप मत बैठे रहिए। विभिन्न मंचों से अपना पुरज़ोर विरोध प्रकट कीजिए। शांतिपूर्ण ढंग से असहयोग कीजिए। जनप्रतिनिधियों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए मीडिया का उचित तरीके से उपयोग कीजिए।
 
आप एक लोकतांत्रिक देश के वासी हैं,जहां आपके पास महत्वपूर्ण अधिकार हैं। उनका उपयोग अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए कीजिए और ये सब करने के बाद भी राजनेताओं की कुंभकर्णी नींद न खुले, तब व्यापक हितों के मद्देनज़र आक्रामक तेवर अपना लीजिए। हिंसा और अराजकता नहीं, लेकिन मैक्सिकोवासियों की तर्ज़ पर इन लोगों को सबक सिखा दीजिए। दबाव डालकर काम करवाना योग्य नहीं,लेकिन जब कोई काम और स्वार्थ में से स्वार्थ को चुन ले, तो उससे काम निकालने के लिए अंगुली टेढ़ी करने में कोई हर्ज़ नहीं। यहां स्वार्थ को पराजित कर परमार्थ को पाने का उद्देश्य है इसलिए नीति से तनिक हटकर कूटनीति से काम लेना उचित होगा। साध्य उत्तम है,तो साधन की शुचिता को स्थगित रखना होगा। बेहतर तो यही है कि राजनेता सुधर जाएं अन्यथा जनता के हाथों में सूत्र आने पर परिदृश्य बदलते देर नहीं लगेगी।

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