तलाक, तनाव, लानत और कष्ट से मिला छुटकारा... लेकिन क्या सच में? जी हां, राहत और सुकून की यह बयार बधाई की हकदार है। यह बहार उन पुरुषों की सोच को बाहर का रास्ता दिखाती है जिनके लिए स्त्री एक संवेदनशील इंसान नहीं, बल्कि उपयोग की वस्तु मात्र है जिससे मात्र तीन जहरीले लफ़्ज़ों से छुटकारा पाया जा सकता है।
यह शब्द ही है तलाक जो दो लोगों के लिए दो अलग तरह की अनुभूति लाता है एक के लिए पीड़ा और वेदना और दूसरे के लिए मुक्ति? इस एक शब्द से मायने बदल जाते हैं जिंदगी के, सुख के, संघर्षों के भी। यह शब्द जो किसी महिला के चेहरे पर अनचाहे ही पोत देता है ..भय, पीड़ा, तकलीफ, टूटन और अलगाव की वह त्रासदी जिसके लिए वह कतई जिम्मेदार नहीं।
तलाक जैसा तीखा और मर्मान्तक शब्द कैसे किसी धर्म विशेष की आड़ में जायज़ ठहराया जा सकता है जबकि उसके बाद की प्रक्रिया और भी जटिल और हास्यास्पद है जिसमें हलाला और फिर शादी जैसी चीजें भी शामिल हैं। जब दो मन जुड़ते हैं तो कितने मन साथ में जुड़ते हैं और जब टूटते हैं तो यकीन मानिए की थोड़ा थोड़ा सब टूटते हैं लेकिन सबसे ज्यादा जिस मन की किरचें बिखरती है वह सिर्फ और सिर्फ स्त्री होती है और कोई नहीं।
नैसर्गिक रूप से वह नाजुक मन होती है, बहुत सारे मामलों में सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होती ऐसे में ये तीन लफ्ज़ मनचाहे और मनमाने ढंग से उसके कानों में उड़ेल दिए जाते थे और एक उजाड़ और बीहड़ रास्ते पर उसे अचानक से छोड़ दिया जाता था। यह फैसला उनको मजबूती देने के साथ ही उनके आत्मविश्वास का भी कारण बनेगा।
इस पूरे प्रकरण में सीधी सी बात विचारणीय है कि तीन तलाक के बाद हलाला का कॉन्सेप्ट आया कहाँ से? इसीलिए न कि कभी कहीं किसी ने 3 तलाक बोला होगा और फिर भावावेश में लिए फैसले पर जब यह सोचा होगा की गलत हो गया तब रास्ता निकाला होगा कि फिर से उसी व्यक्ति (स्त्री) से कैसे जुड़ा जाए तब हलाला जैसी कुप्रथा ने जन्म लिया होगा। यानी कहीं न कहीं ये स्वीकृति है कि 3 तलाक गलती से हो गया है अब उस गलती को सुधारना है।