उत्सवों के बहाने, युवा शक्ति के फसाने

दो सालों बाद स्कूल-कॉलेज फिर से शुरू हो गए, अपने पूरे उफ़ान के साथ। शुरू हुए विभिन्न आयोजन, जयंतियां, प्रतियोगिताएं और विभिन्न ‘डे’ (दिवस) मनाने का सिलसिला। इनमें भाग लेने वाले विभिन्न युवाओं से जब पूछा कि ये सब करने से उन्हें क्या मिलता है तो कई अलग-अलग जवाब आए। किसी ने कहा खुशी मिलती है, किसी ने कहा पहचान, किसी ने कहा लोगों से आदर और स्नेह मिलता है तो किसी ने कहा नई स्मृतियां तैयार होती हैं। 
 
‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी’, जैसी यह बात है। जो जिन भावनाओं के साथ विभिन्न आयोजनों में भाग लेता है, वे उससे जुड़ी बात कहते हैं। कोई केवल श्रोताओं की भूमिका में होता है, जो ताली बजाता है या हूट भी कर सकता है। कोई निर्णायक होते हैं जिनकी उस क्षण की मानसिक अवस्था भी उनके निर्णय को प्रभावित करती है। कुछ इसलिए भाग लेते हैं कि उन पर अभिभावकों, शिक्षकों या संगी-साथियों का दबाव होता है। शिक्षक भी कई बार इसे काम की तरह देखते हैं, कर्तव्य की तरह, नौकरी की तरह भी। अभिभावकों को लगता है चलो बच्चा इसी बहाने कुछ सीख जाएगा। कुछ अभिभावक सोचते हैं पढ़ाई-लिखाई की उम्र में इस तरह के टाइम-पास की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।
 
आने वाले अवसर से आप क्या सीखते हैं, यह पूरी तरह आप पर निर्भर करता है। सालों-साल से होते इन आयोजनों के विषय भी लगभग समान होते हैं। तब चुनौती होती है कि उन्हीं विषयों को आप नए तरीके से कैसे प्रस्तुत करते हैं और फिर काम आता है युवा दिमाग का नयापन, ताज़ापन। उनकी अपनी कल्पनाएँ, सोच- विचार उन विषयों में जान भरती हैं। वे दिए विषय का अध्ययन करते हैं, जिसके बारे में हो सकता है वे वैसे कभी नहीं सोचते। रूटीन से हटकर कुछ करने, कुछ सोचने का उन्हें अवसर मिलता है, इसी से उनका हटकर सोचने का दृष्टिकोण विकसित होता है। 
 
युवाओं में असीम संभावनाएं भी होती हैं और असीम ऊर्जा भी। इस तरह के आयोजन उन्हें अपनी ऊर्जाओं और संभावनाओं से परिचित कराते हैं। आम दिनों में वे खाली समय का उपयोग सोशल साइट्स देखने या फालतू की गप्पे हाँकने, टीवी-मोबाइल देखने में बिता सकते थे लेकिन इन अवसरों पर उनके पास उन बातों के लिए समय नहीं होता, जहाँ उनकी ऊर्जा का अपव्यय होता है। अनजाने ही वे हर क्षण की कीमत पहचानने लगते हैं। इन गतिविधियों में अमूमन उन्हें नियत समय में अपनी बात कहनी होती है, चाहे वे गीत गाएँ, नृत्य करें या चित्रकला करें या भाषण ही दें। कम समय में सटीकता से कार्य करने के लिए निरंतर अभ्यास का पाठ भी उन्हें इससे मिलता है। उतना समय वे पढ़ाई से भी दूर रह जाया करने पर निढाल हो जाते, लेकिन इसके बाद वे उत्साह से भरे होते हैं और तय कर लेते हैं कि अब और अधिक समय पढ़ाई को देंगे।  
 
टीम वर्क की भावना, साथ पसीना बहाने का जज़्बा और एक-दूसरे का ख़्याल रखने की सामूहिकता आ ही जाती हैं। स्कूली पढ़ाई के बाद के अतिरिक्त घंटे शिक्षक उनके साथ होते हैं। तब शिक्षकों के भी कई रंग वे देख पाते हैं, तनाव के, आराम के, हँसी-मज़ाक के और सारे कामों का नियोजन करने का हुनर भी वे उनसे सीखने लगते हैं। ‘मेरे जीतने-हारने से मेरी संस्था की हार या जीत सुनिश्चित होगी’, यह भाव उन्हें स्वयमेय ‘अहम्’ से ‘वयम्’ की ओर ले जाता है। उनमें जिम्मेदारी का अहसास बढ़ता है। 
 
ये सारी बातें तो बाद में पता चलती हैं और पता न भी चली तब भी वे आपके व्यक्तित्व में शामिल हो जाती है। सबसे महत्वपूर्ण होता है ऐसे आयोजन और उनके विभिन्न समसामयिक विषय आपका अपने आप से, साथियों से, शिक्षकों से, अपनी संस्था से, वातावरण से और वृहत् अर्थों में देश-विदेश से आपका नाता जोड़ते हैं। फिर आपके लिए यह केवल सुभाषित न रहकर जीवन बन जाता है कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’...

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