बजट पर प्रतिक्रिया का निर्धारित व परंपरागत अंदाज होता है। सत्तापक्ष इसकी अच्छाइयों के पुल बांधता है, तो विपक्ष को इसमें कोई भी अच्छाई नजर नहीं आती। वह इसकी खामियां निकालने में जुट जाता है। कई बार ऐसा लगता है कि बजट प्रस्तुत होने के पहले प्रतिक्रिया तैयार कर ली जाती है जिससे कि कोई पीछे न रह जाए। इधर बजट पेश हुआ, इधर तीर चलने लगते हैं। यहां तक गनीमत थी कि ऐसा हर बार होता है, किंतु इस बार विपक्ष ने सरकार के प्रति जो असहिष्णुता दिखाई, उसका दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता।
इस बार बजट 1 फरवरी को पेश करने का निर्णय बहुत पहले हो चुका था, वहीं 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव भी कोई अप्रत्याशित नहीं थे। यह तो संवैधानिक व्यवस्था की अनिवार्यता थी। इन 5 राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो रहा था। चुनाव होने ही थे, इसकी तैयारी सभी पार्टियां प्राय: 1 वर्ष पहले से कर रही थीं।
मतलब विधानसभा चुनाव व फरवरी में बजट पेश करने की जानकारी बहुत पहले से थी। इसके बावजूद बजट पेश होने के कुछ दिन पहले विपक्षी पार्टियों ने इसके रुकवाने का प्रत्येक संभव प्रयास किया। वस्तुत: इसके माध्यम से वे हंगामा करना चाहते थे। यह बताने का प्रयास किया जा रहा था कि सत्तापक्ष बजट के माध्यम से चुनाव को प्रभावित करेगा। इसके लिए पहले न्याय पालिका व निर्वाचन आयोग में अपील की गई लेकिन इन संस्थाओं ने 1 फरवरी के बजट पेश करने पर प्रतिबंध लगाने से इंकार कर दिया। वैसे यहां से मुंह की खाने के बाद विपक्ष के समक्ष दूसरा कोई रास्ता नहीं था। यह तय हो चुका था कि बजट 1 फरवरी को ही लोकसभा में पेश होगा।
इसके बाद विपक्ष ने एक सांसद ई. अहमद की मृत्यु के कारण बजट को 1 दिन बाद पेश करने का दबाव बनाया। इस दबाव में दिवंगत सांसद के प्रति सम्मान नहीं, वरन राजनीति की भावना ज्यादा थी। इस मांग के द्वारा विपक्षी सदस्य सरकार को फजीहत में डालना चाहते थे। विपक्षी सांसद परंपरा की दुहाई दे रहे थे। उनका तर्क था कि किसी भी सदस्य के निधन के बाद शोक संवेदना व्यक्त की जाती है। उसके बाद सदन दिनभर के लिए स्थगित हो जाता है।
यह बात ठीक थी लेकिन संसदीय व्यवस्था के अनुभवी सदस्य जानते थे कि यह संविधान के उल्लिखित प्रावधान नहीं हैं, वरन पंरपरा का मुख्य उदेश्य अपने साथी के प्रति सम्मान व्यक्त करना होता है। बजट की प्रस्तुति ने विशेष स्थिति बना दी थी। बजट की प्रतियां स्ट्रांग रूम से बाहर आ चुकी थीं।
संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप इसके बाद इसे लोकसभा में प्रस्तुत करना अपरिहार्य था अन्यथा गोपनीयता का उल्लंघन होता। एक दिन सदन स्थगित किया जाता तो गोपनीयता बनाए रखना संभव ही नहीं होता फिर सदन को स्थगित करने वाला विपक्ष ही सरकार पर गोपनीयता कायम न रख पाने का आरोप लगाता। तब सरकार से इस्तीफे की भी मांग की जाती है, क्योंकि मंत्रिपरिषद गोपनीयता की शपथ से भी बंधी होती है।
जहां तक दिवंगत सदस्य के प्रति सम्मान की बात है, उसका निर्वाह सदन के भीतर व बाहर किया गया। प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष उनके आवास पर भी गए थे। सदन में भी संवेदना प्रकट की गई। सरकार ने बजट प्रस्तुत करने की अनिवार्यता के कारण अगले दिन सदन स्थगित रखने का प्रस्ताव भी कर दिया था। विपक्ष में बहुत से अनुभवी नेता हैं। उनके सदस्य मंत्री भी रह चुके हैं। वे बजट व गोपनीयता दोनों का महत्व समझते हैं। इसके बावजूद उन्होंने सरकार को परेशान करने में कसर नहीं छोड़ी।
कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को पक्ष-विपक्ष की राजनीति का बहुत अनुभव है। इसके बावजूद उन्होंने हल्का आरोप लगाया व कहा कि सरकार ने ई. अहमद के निधन की खबर को छिपाने का प्रयास किया। ऐसे बयानों से कांग्रेस के वर्तमान नेताओं के स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है। कुछ दशक पहले शायद ऐसा करना संभव होता, लेकिन आज संचार के जो साधन हैं, उसमें ऐसी बात करना भी हास्यास्पद व शर्मनाक है।
बजट के पहले विपक्ष की इस कवायद में उसकी भावी प्रतिक्रिया की झलक थी। इसमें सत्तापक्ष के विरोध की सैद्धांतिक भावना नहीं थी, वरन यह नकारात्मक राजनीति का ही प्रमाण था। इसी के तहत विपक्ष ने पहले बजट को रुकवाने का प्रयास किया। उसमें सफलता नहीं मिली, तब ई. अहमद की मृत्यु का विषय उठाया गया। विपक्ष की नकरात्मक राजनीति का यह दांव उल्टा पड़ा। उसने उसकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाई जिस प्रकार 1 दिन सदन स्थगित करने के तर्क दिए गए, उसमें संवेदना व सम्मान का अभाव था। दूसरा नुकसान भी विपक्ष को हुआ। नकारात्मक रुख के कारण उन्होंने बजट की जो आलोचना की, उसे गंभीरता से नहीं लिया गया।
सच्चाई यह है कि इस बजट में सरकार ने गांव, किसान, छोटे व्यापारी, रोजगार व कौशल विकास जैसे विषयों पर खासा ध्यान दिया है। गांव और शहर के बीच संतुलित विकास को बढ़ावा देने का खाका प्रस्तुत किया गया है। छोटी कंपनियों व ढांचागत विकास को महत्व दिया गया। इसके साथ ही भ्रष्टाचार रोकने व पारदर्शिता लाने का प्रयास किया गया। इसमें राजनीतिक सुधार भी समाहित हैं। इन सबके दूरगामी अनुकुल प्रभाव होंगे।
इस बात को स्वीकार करना होगा कि ग्रामीण इलाकों, कृषि व किसान पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। कृषि उपज का पर्याप्त लाभ किसान को नहीं मिलता। फसल बहुत अच्छी है। तब किसान परेशान होता है और उत्पाद के दाम बेहद गिर जाते हैं। कई बार फसल काटने पर ज्यादा खर्च आता है। उसे औने-पौने दाम में फसल बेचनी होती है। बिचौलिए मुनाफा कमाते हैं। इसी प्रकार फसल खराब हो तो किसान का जीवन-यापन मुश्किल हो जाता है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि ग्रामीण इलाकों में भंडारण की सुविधा नहीं है। बजट में इस ओर ध्यान दिया गया।
देश में बेरोजगारी की समस्या है, लेकिन जो राजनीतिक दल केवल सरकारी नौकरी के आरक्षण में अटके हैं, वे लोगों को धोखा देते हैं। निजी क्षेत्र में छोटी कंपनी व कौशल विकास के माध्यम से बेरोजगारी की समस्या का समाधान हो सकता है।
सरकार ने बजट में इस पर जोर दिया कि राजनीतिक दलों के चंदे से लेकर सत्ता में पहुंचने तक भ्रष्टाचार की कड़ियां जुड़ी होती हैं। बजट में इस पर यथासंभव नकेल का प्रयास किया गया। यह मानना होगा कि नोटबंदी ने सरकार को बहुत से आंकड़े उपलब्ध करा दिए हैं। संभव है कि इस आधार पर अगले बजट तक आयकर व्यवस्था में बड़े बदलाव हो सकेंगे। कुल मिलाकर सरकार ने वंचित, निर्धन, मध्यम वर्ग व शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों की ओर खास ध्यान दिया है।