कांग्रेस की 'खाट लूट' का सियासी कनेक्शन

भारतीय राजनीति में नए-नवेले प्रयोग और ग्लैमर का तड़का कोई नहीं बात नहीं है। इन सबके बावजूद लीक से हटकर कुछ अलग सोचने वाला राजनेता व कार्यकर्ता अपेक्षा से एकाध प्रतिशत कम अथवा ज्यादा रिजल्ट हासिल कर ही लेता है। 
कन्याकुमारी से कश्मीर और गुजरात से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक अगले वर्ष होने वाले यूपी चुनाव की चर्चा जोर पकड़ चुकी है। वजह स्पष्ट है कि यूपी देश का सबसे बड़ा राज्य है। यूपी में जिस राष्ट्रीय पार्टी का बोलबाला होता है, अमूमन वहीं केंद्र की सत्ता पर काबिज होती है। 
 
यहां होने वाले विधानसभा चुनाव 2017 को लोकसभा चुनाव 2019 के रिहर्सल के रूप में देखा जा रहा है, हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि विधानसभा चुनाव परिणाम क्या होगा? लेकिन आज का माहौल तो बिलकुल अप्रत्याशित संदेश सुना रहा है यानी यूपी में कांग्रेस की स्थिति बेहतर होगी। 
 
हालांकि गैरकांग्रेसी दलों द्वारा भिन्न-भिन्न स्थानों पर हुई कांग्रेस की 'खाट सभा' के बाद हुई 'खाट लूट' का मजाक उड़ाया जा रहा है। इस मजाक को राजनीति के ज्ञाता अपरिपक्व की श्रेणी में रखते हैं। कहते हैं कि कांग्रेस के इस 'खाट लूट' का सियासी कनेक्शन जबरदस्त है। इस 'खाट सभा' और 'खाट लूट' के बहाने यूपी का वह सुदूर इलाका भी कांग्रेस की चर्चा करने लगा है, जहां के लोग कांग्रेस को नजर से उतार चुके थे। 
 
27 वर्ष पहले यूपी की सत्ता में रही कांग्रेस की कार्यशैली के बारे में 20 से 30 वर्ष की आयू वाले जोशीले युवक जानते ही नहीं हैं इसलिए कांग्रेस के इस 'खाट लूट' सियासी कनेक्शन जबर्दस्त है। इसलिए यदि गैरकांग्रेसी दल 'खाट लूट' का मजाक न ही उड़ाएं और अपने कुनबे को संभाल लें, वही श्रेयस्कर होगा।
 
सबसे पहले यूपी में गैरकांग्रेसी प्रमुख दलों की चर्चा करते हैं। यूपी में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) के घर में लगा झगड़ा लगता है सपा को विखंडित करके ही मानेगा। कारण स्पष्ट है, वहां कोई किसी से कम नहीं। औपचारिक रूप से भले सपा के दिग्गज नेता यह कह रहे हों कि नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव का फैसला सबको मंजूर होगा, पर स्थिति यह है कि उनकी कोई नहीं सुन रहा है।
 
यदि मुलायम सिंह यादव की बातें मानी गई होतीं तो पार्टी के भीतर यह झगड़ा होता ही नहीं। यूं कहें कि जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों के बीच अपनी अच्छी पकड़ रखने वाले मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह यादव को पार्टी का हाईटेक खेमा पसंद नहीं कर रहा है। दिलचस्प यह है कि अखिलेश यादव भी खुद उसी हाईटेक खेमे के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं। 
 
रही बसपा की बात, तो वहां पार्टी के दिग्गज नेताओं में भगदड़ मची हुई है। कल तक बसपा प्रमुख मायावती के बाद यानी दूसरे दर्जे का स्वयंभू स्थान रखने वाले जो भी नेता बसपा छोड़ रहा है, वह मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाकर ही जा रहा है। इस प्रकार सांगठनिक स्वरूप के मामले में सबसे मजबूत पार्टी कही जाने वाली बसपा की सांगठनिक संरचना बिगड़ गई है। विधानसभा चुनाव के पहले वह दुरुस्त हो पाएगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। 
 
अब चर्चा करते हैं केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की जिसके नेता नरेन्द्र मोदी के हाथों में केंद्र सरकार की कमान है। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में कम, विदेशों की सैर कर अपनी लोकप्रियता का डंका बजा रहे हैं। भारत में जो हो, पर वे खुद को ग्लोबल लीडर के रूप में स्थापित करने में जुटे हैं।
 
यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा में भी भीतरी लड़ाई काफी घनघोर है। जिस तरह कांग्रेस ने करीब डेढ़ माह पहले ही यूपी में अपने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में शीला दीक्षित का नाम घोषित किया था उसी तरह भाजपा को भी अब तक अपने उम्मीदवार का नाम तय कर देना चाहिए था, पर वो नहीं हो सका। 
 
जानकार बताते हैं कि भाजपा में मुख्यमंत्री पद के कई-कई दावेदार हैं। खास बात यह कि जनाधार और लोकप्रियता के मामले में कोई किसी से कम नहीं है। इस स्थिति में यदि भाजपा कोई एक नाम घोषित करती है तो उसे अपने बाकी बचे संभावित उम्मीदवारों को समझा पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
 
स्वाभाविक है, भाजपा जिस दावेदार को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाएगी, वह निश्चित रूप से भीतरघात करने की जुगत भिड़ाएगा। भले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने वह कह दे कि वह पार्टी के लिए काम करेगा, लेकिन वह करेगा नहीं। किसी भी तरह से वह इसी कोशिश में रहेगा कि भाजपा का उम्मीदवार हार जाए ताकि वह ताल ठोककर कह सके कि यदि मुझे उम्मीदवार बनाया गया होता तो यूपी में भाजपा की सरकार बन जाती। 
 
यदि भीतरघात से बचने के लिए वह किसी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाती है तो उसे बिहार जैसे हालात से गुजरना पड़ेगा यानी यूपी में भाजपा पराजित भी हो सकती है। यूं कहें कि देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में भाजपा को नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही भरोसा है। 
 
अब रही कांग्रेस की बात, तो कांग्रेस यूपी की सत्ता से 27 वर्षों से बाहर है। इस बीच में भाजपा, सपा और बसपा की सरकारें ही बनती-बिगड़ती रही हैं। कभी कांग्रेस के गढ़ के रूप में पहचान रखने वाले राज्य यूपी में कांग्रेस को पुनर्जीवन देने का जिम्मा राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर यानी पीके ने उठाया है। 
 
वैसे यूपी में कांग्रेस की सांगठनिक संरचना भी बेहद लचर है। कह सकते हैं कि सारी पार्टियों से खराब सांगठनिक संरचना वाली पार्टी कांग्रेस के कार्यकर्ता अपने लिए नए-नए ठौर-ठिकाने ढूंढ चुके हैं। यही वजह है कि जब भी यूपी में कांग्रेस के संभावित फाइट में होने की बात की जाती है तो तपाक से सामने वाला कहता है- 'यूपी में तो कांग्रेस का कुछ है ही नहीं। न संगठन, न कार्यकर्ता।' बात बिलकुल सही है।
 
बावजूद इसके, पीके ने कांग्रेस को जनता से जोड़ने और जनता पर कांग्रेस के प्रति मनोवैज्ञानिक सकारात्मक असर डालने वाले कार्यक्रमों की तैयारी की है जिसमें पार्टी कार्यकर्ताओं की कोई खास जरूरत नहीं है। सबसे पहले पीके ने '27 साल, यूपी बेहाल' का नारा देकर प्रदेश अध्यक्ष व अभिनेता राज बब्बर, मुख्यमंत्री उम्मीदवार शीला दीक्षित और शीला दीक्षित के प्रचार समिति के प्रमुख डॉ. संजय सिंह को पूरे यूपी का भ्रमण कराया। '27 साल, यूपी बेहाल' यात्रा जनता की मंशा को भांपने के लिए था। 
 
जब पीके को '27 साल, यूपी बेहाल' यात्रा का बेहतर रेस्पांस मिला तो उन्होंने पार्टी के आला नेता राहुल गांधी की देवरिया से दिल्ली तक यात्रा निकालने और इसी दरमियान 'खाट सभा' करने का प्लान कर दिया। 6 सितंबर से यूपी के सबसे पूर्वी जिला देवरिया से 'खाट सभा' की शुरुआत की गई।
 
देवरिया में कांग्रेस की 'खाट सभा' समाप्त होते ही लोगों ने पार्टी द्वारा खरीदी गई खाटों को लूटना शुरू कर दिया। कुछ खाट तो टूट गईं और कुछ खाटों को लेकर लोग अपने-अपने घरों में चले गए। इस पर गैरकांग्रेसी दलों ने खूब चुटकी ली। यूं कहें कि खुद शीशे के महल में बैठकर दूसरों पर पत्थर फेंके जाने लगे यानी भाजपा, सपा और बसपा ने अपनी आंतरिक कलह को निपटाने के बजाय कांग्रेस के 'खाट लूट' का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। 
 
दिलचस्प बात यह है कि विरोधियों को इस मुद्दे पर राहुल गांधी ने यह कहते हुए ललकारा कि हजारों करोड़ लेकर भागने वाले को डिफॉल्टर और एक गरीब व्यक्ति ने खाट ले ली तो उसे लुटेरा बताया जा रहा है। यह नाइंसाफी है जिसे जनता बर्दाश्त नहीं करेगी। 
 
खैर, 6 सितंबर से शुरू हुई राहुल गांधी की देवरिया से दिल्ली तक की यात्रा में भीड़ लगातार बढ़ती जा रही है। इससे इससे पार्टी के रणनीतिकारों के हौसले भी बढ़ रहे हैं। पश्चिमी यूपी में कांग्रेस का दलित चेहरा माने जाने वाले पूर्व मंत्री दीपक कुमार कहते हैं- 'खाट गरीब ही ले जाता है जिसके पास कि सोने के लिए नहीं है। अमीरों को खाट की क्या जरूरत है जिनके घरों में सोफे और दीवान लगे हैं।' 
 
दीपक कुमार कहते हैं कि इस 'खाट लूट' के सियासी कनेक्शन को जब विपक्षी समझेंगे तो उनके होश फाख्ता हो जाएंगे। इसी क्रम में प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर ने भी विरोधियों को आड़े हाथों लिया। सबके बावजूद देवरिया से दिल्ली की यात्रा के दरमियान राहुल गांधी कई रिकॉर्ड बना रहे हैं और कई तोड़ रहे हैं जिसका असर विधानसभा चुनाव में दिखेगा। 
 
कहा जा रहा है कि 2 अक्टूबर को गांधी जयंती पर राहुल की यात्रा के समाप्त होने के तुरंत बाद प्रियंका गांधी को सियासी मैदान में उतारने की चर्चा है। 
 
खैर, देखते हैं, क्या-क्या होता है?

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