धरती का जीवन और भोजन श्रृंखला

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

गुरुवार, 25 जून 2020 (15:36 IST)
जीवन और भोजन दोनों एक-दूसरे से इस कदर एकाकार हैं कि दोनों की एक-दूसरे के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जीवन है तो भोजन अनिवार्य है। भोजन के बिना जीवन की निरंतरता का क्रम ही खंडित हो जाता है। जीवन श्रृंखला पूरी तरह भोजन श्रृंखला पर ही निर्भर है। कुदरत ने धरती के हर हिस्से में किसी-न-किसी रूप में जीवन और भोजन की श्रृंखलाओं को अभिव्यक्त किया है।
ALSO READ: Digestive System ठीक करना है तो जानें कब, क्यों और कैसे करें भोजन, पढ़ें आहार के सामान्य नियम
कुदरत का करिश्मा यह है कि जीवन और भोजन का धरती पर अंतहीन भंडार है, जो निरंतर अपने क्रम में सनातन रूप से चलता आया है और शायद सनातन समय तक कायम रहेगा। शायद इसलिए कि जीवन का यह सत्य है कि जो जन्मा है, वह जाएगा। तभी तो जीव जगत में आता-जाता है, पर जीवन की श्रृंखला निरंतर बनी रहती है।
 
यही बात भोजन के बारे में भी है। भोजन की श्रृंखला भी हमेशा कायम रहती है। बीज से फल और फल से पुन: बीज। बीज के अंकुरण से पौधे तक और पौधे से फूल, फल और बीज तक का जीवन चक्र। इस तरह जीवन श्रृंखला और भोजन श्रृंखला एक-दूसरे से इस तरह घुले-मिले या एकाकार हैं कि दोनों का पृथक अस्तित्व ढूंढना एक तरह से असंभव है।
 
जीवन की श्रृंखला एक तरह से भोजन श्रृंखला ही है। धरती पर जीव और वनस्पति के रूप में जो जीवन अभिव्यक्त हुआ है, वह वस्तुत: मूलत: ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है। इसे हम यों भी समझ सकते हैं कि जीव को जीवित बने रहने के लिए जो जैविक ऊर्जा आवश्यक है, उसकी पूर्ति जीव, दूसरे जीव या वनस्पति को खाकर ही प्राप्त करता है। इस तरह जीवन और भोजन की श्रृंखला अपने मूल स्वरूप में एक ही है।
ALSO READ: Unusual Uses Of Potatoes:भोजन और खूबसूरती निखारने के अलावा भी है आलू के बेहतरीन लाभ
जीव और वनस्पति की अभिव्यक्ति में नाम-रूप, स्वरूप और गुणधर्म के असंख्य भेद होने के बाद भी दोनों का मूल स्वरूप ऊर्जा का जैविक प्रकार ही है। यह भी माना जाता है कि जीवन श्रृंखला वस्तुत: एक अंतहीन भोजन श्रृंखला ही है। एक जीव जीवित रहने के लिए दूसरे जीव को भोजन के रूप में खा जाता है, जैसे चूहे को बिल्ली और सांप खा जाते हैं। बिल्ली को कुत्ता और कुत्ते को तेंदुआ या शेर भी शिकार कर खा जाते हैं। कई तरह के कीड़े-मकोड़ों को पक्षी निरंतर खाते रहते हैं। बिल्ली व कुत्ता जैसे जीव, पक्षियों का शिकार कर लेते हैं।
 
छिपकली जैसे प्राणी घर में निरंतर कीट-पतंगों का भक्षण करते ही रहते हैं। केवल जीवित प्राणी ही जीवित प्राणी को खाता है, ऐसा ही नहीं है बल्कि कई जीव तो ऐसे हैं, जो मृत प्राणियों की तलाश अपने भोजन के लिए करते ही रहते है जैसे गिद्ध व कौवे। छोटी-छोटी चींटियां तो बड़े-छोटे मृत प्राणियों को धीरे-धीरे पूरा कण-कण कर चट कर जाती हैं। कौन कब जीव है और कब और कैसे किसी का भोजन बन जाता है, यह किसी को पता नहीं। यही इस श्रृंखला का अनोखा रहस्य है।
 
जीव को अपने स्वरूप का भान नहीं होता कि वह जीव है या भोजन, अभी जीव के रूप में हलचल कर रहा था और अभी किसी और जीव के उदर में भक्षण करने वाले जीव को भोजन के रूप में ऊर्जा प्रदान कर रहा होता है। इन श्रृंखलाओं की बात यहां पर ही नहीं रुकती। किसी जीव के मरते ही उसका जीवन तो समाप्त हो जाता है, पर मृत शरीर में कुछ ही घंटों में नए असंख्य सूक्ष्म जीवों का जन्म हो जाता है और मृत शरीर असंख्य सूक्ष्म जीवों का भोजन-भंडारा बन जाता है।
जीवन श्रृंखला और भोजन श्रृंखला में एक-दूसरे की भूमिका और एक-दूसरे के स्वरूप में एकाएक परिवर्तन हो जाता है। इसके विपरीत जीवन और भोजन एक-दूसरे के जीवन चक्र और भोजन चक्र को परस्पर निरंतर अस्तित्व में बनाए रखने में परस्पर एक-दूसरे के पूरक की तरह भी सतत कार्यरत बने रहते हैं। उदाहरण के रूप में मधुमक्खियां अपना पूरा जीवन वनस्पति जगत के जीवन चक्र की निरंतरता कायम रखने में लगाती हैं।
 
इसी क्रम में पक्षी या तरह-तरह की छोटी-बड़ी चिड़ियाएं कीट-पतंगों का निरंतर भक्षण कर वनस्पति जगत के जीवन चक्र को असमय नष्ट होने से बचाती हैं और अपने जीवन के लिए कीट-पतंगों के रूप में भोजन की श्रृंखला पर निर्भर बनी रहती हैं। हम सबको अभिव्यक्त करने वाली आधारभूत धरती के हर हिस्से में प्रचुर मात्रा में जीवन भी है और जीवन की ऊर्जास्वरूप भोजन का अनवरत भंडार भी है।
ALSO READ: भोजन की शुरुआत में तीखा तथा अंत में मीठा खाने के 4 फायदे
फिर भी धरती पर अपने को सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे शक्तिशाली समझने वाला मनुष्य अपने जीवन और भोजन को लेकर चिंतित है। धरती पर प्रकृति ने जिस रूप में जीवन और भोजन का चक्र प्राकृतिक स्वरूप में सनातन समय से कायम रखा है, उसमें निरंतर लोभ-लालच से परिपूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने जीवन और भोजन की श्रृंखला की प्राकृतिक निरंतरता पर ही तात्कालिक संकट खड़ा कर दिया है। अब मनुष्य खुद ही चिंतातुर है कि इसका हल क्या और कैसे हो?
 
इस धरती पर अकेला मनुष्य ही है, जो निरंतर जीवन श्रृंखला और भोजन श्रृंखला दोनों में अपने लोभ-लालच और आधिपत्य स्थापित करने की चाहना से स्वनिर्मित संकटों को खड़ा कर परेशान और भयभीत बने रहने को अभिशप्त हो गया है। स्वयंभू शक्तिशाली और सर्वज्ञ मनुष्य आज के काल में अपने अंतहीन ज्ञान और गगनचुंबी विज्ञान के होते हुए लगभग असहाय और अज्ञानी सिद्ध हो रहा है। फिर भी प्रकृति, जीवन और भोजन की अनंत श्रृंखला के प्राकृत स्वरूप को मानने, जानने, समझने और पहचानने को तत्पर नहीं है।
 
जैवविविधता प्रकृति का प्राकृत गुण है। संग्रह वृत्ति मनुष्य का लोभ-लालचमय जीवन-दर्शन है। यही वह संघर्ष है जिससे अधिकांश मनुष्य मुक्त नहीं हो पाते। मनुष्य प्रकृति का अविभाज्य अंश होते हुए भी प्रकृति से एकाकार नहीं हो पाता।
 
जीवन और भोजन की अंतहीन श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी होते हुए भी मनुष्य अपने आपको श्रृंखला का अभिन्न अंश स्वीकार नहीं कर पाता। अपनी पृथक पहचान के बल पर एक नए संसार की रचना प्रक्रिया ने मनुष्य और प्रकृति की रचनाओं में तात्कालिक संघर्ष धरती पर खड़ा किया है जिसे समझना और स्वनियंत्रित करना मनुष्य मन के सामने खड़ी सनातन चुनौती है।
 
महात्मा गांधी ने अपने जीवन और विचारों से समूची मनुष्यता को अपनी चाहनाओं और लालसाओं को स्वनियंत्रित करने का एक सूत्र दिया, जो जीवन और भोजन की सनातन प्राकृत श्रृंखलाओं को अपने प्राकृत स्वरूप में निरंतर चलते रहने की व्यापक और व्यावहारिक समझ को समूची मनुष्यता के सम्मुख आचरणगत अनुभव के लिए रखा।
 
गांधीजी का मानना था कि 'हमारी इस धरती में प्राणीमात्र की जरूरतों को पूरा करने की अनोखी क्षमता है, पर किसी एक के भी लोभ-लालच को पूरा करने की नहीं।' मनुष्य ने अपनी आधुनिक जीवनशैली में अपने जीवन की जरूरतों का जो गैरजरूरी विस्तार किया है, उस पर स्वनियंत्रण ही हमारे जीवन और भोजन की जरूरतों को सनातन काल तक पूरा करने को पर्याप्त है।

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी