शिक्षा का सात दशक का सफर

उम्मीदों और संभावनाओं का दूसरा नाम भारत है। भारत एक ऐसा देश है जिसने युगों-युगों तक दुनिया को ज्ञान की मशाल से रास्ता दिखाया। हमारे वेद-उपनिषद हजारों वर्षों बाद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जिसने नैतिक मूल्यों के साथ धर्म के मार्ग पर चलकर यश की प्राप्ति के मार्ग बताए। जब दुनिया न्याय-अन्याय, यश-अपयश में लगातार लड़ रही थी तब भी नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वप्रसिद्ध विद्यालयों में लोग दूर-दूर से आते थे। 
 
ज्ञान के क्षेत्र में हमारी प्राचीन विरासत नि:संदेह बहुत महान है और ये परंपरा टूटी और क्षतिग्रस्त हुई, जब बाहरी आतंकी कभी गौरी, कभी बाबर के रूप में हिन्दुस्तान आए। अंग्रेजों ने शिक्षा का हथियार के रूप में साम्राज्यवाद के लिए इस्तेमाल किया। 
 
जब भारत को आजादी मिली उस वक्त भारतीय शिक्षा व्यवस्था बहुत दयनीय थी। कितने विद्यालय थे इसके प्रमाण नही हैं। गुरुकुल जैसी सामुदायिक व्यवस्थाएं थीं या फिर मिशनरी स्कूल और गिने-चुने निजी स्कूल थे। 1951 में लगभग 13 हजार प्राथमिक और 7,000 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय थे। साक्षरता दर 12 प्रतिशत थी, जो आज 74 प्रतिशत से अधिक है। विश्वविद्यालयों की बात की जाए तो स्वतंत्रता के समय 27 विश्वविद्यालय थे, जो आज बढ़कर 760 हैं।
 
आजादी के बाद एजुकेशन फॉर ऑल यानी सभी के लिए शिक्षा का नारा दिया गया और इसके लिए अलग से शिक्षा विभाग की स्थापना की गई, जो बाद में मानव संसाधन मंत्रालय में बदला और हर राज्य में शिक्षा विभाग की स्थापना की गई जिससे शिक्षा की मूलभूत जरूरतों को पूरा किया जाए, क्योंकि ये संविधान की समवर्ती सूची का हिस्सा है। 
 
साल 1952-53 : माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन हुआ और शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देने के उद्देश्य से साल 1961 में एनसीईआरटी की स्‍थापना हुई। शुरुआती दौर में योजना आयोग के समक्ष अनेक चुनौतियां थीं कि कैसे शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाया जाए और इस बात का भी ख्याल रखा गया कि प्राथमिक शिक्षा को बच्चों के स्वास्‍थ्य से भी जोड़ा जाए, क्योंकि शिशु मृत्यु दर उस दौरान अधिक थी और स्कूल के माध्यम से एक ठोस योजना को अमलीजामा पहनाया गया और उसमें पंचायतों की भूमिका को भी शामिल किया गया, क्योंकि पंचायत ज्यादा बेहतर ढंग से कितने स्कूल चाहिए और छात्रों की जरूरत को समझ सकती थी।
 
साल 1968 में कोठारी शिक्षा आयोग की सिफारिशों के अनुसरण में प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनाई गई और 1975 में 6 वर्ष तक के बच्चों के उचित विकास के लिए समेकित बाल विकास सेवा योजना की शुरुआत हुई। शिक्षा पर और राज्यों दोनों के उत्तरदायित्वों को समझते हुए 1976 में शिक्षा को 'राज्य' विषय से 'समवर्ती' विषय में परिवर्तन करने हेतु संविधान संशोधन किया गया। सफर अभी भी लंबा था और इस पर अभी काम काफी काम करना था और इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए 1986 नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अपनाया गया जिसे 1992 में आचार्य राममूर्ति समिति द्वारा समीक्षा के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछ बदलाव किए गए। 
 
स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ाने के उद्देश्य से प्राथमिक स्कूलों में केन्द्रीय सहायता प्राप्त मध्याह्न भोजन योजना आरम्‍भ की गई। इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए अटल सरकार में 2002 में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए संविधान संशोधन किया गया। अब तक कम्प्यूटर और इंटरनेट क्रान्ति गति पकड़ चुकी थी इस जरूरत को ध्यान में रखते हुए साल 2004 शिक्षा को समर्पित उपग्रह 'एडुसैट' (EduSat) छोड़ा गया। साल 2009 एक बड़ी उपलब्धि लेकर आया, जब भारतीय संसद द्वारा नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया गया। 
 
हालांकि देश की सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि अभी भी एक बड़ी बाधा थी जिसमें बाल विवाह, बाल श्रम, गरीबी, भेदभाव जैसे कई समस्याएं थीं। लेकिन ये भी सच है कि इन समस्याओं का समाधान भी शिक्षा में ही छुपा हुआ था। क्रमबद्ध विकास की दृष्टि से देखें तो शिक्षा के क्षेत्र में सर्वशिक्षा अभियान, मिड डे मील और शिक्षा का अधिकार जैसे अभियानों और कानूनों की बड़ी भूमिका रही जिससे बड़ी संख्या में छात्र स्कूलों से जुड़े। आज हर 1 किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक स्कूल है।
 
स्कूली शिक्षा को और बेहतर करने के लिए नई शिक्षा नीति पर अभी काम चल रह है। इस बीच आज भारतीय स्कूलों की साख काफी तेजी से बढ़ी है। सिर्फ निजी ही नहीं, सरकारी स्कूलों ने भी अपना अच्छा प्रदर्शन किया है। भारतीय स्कूली छात्रों ने देश-विदेश में अनेक कामयाबी अर्जित की है। उनके लिए पढ़ाई-लिखाई का मतलब सिर्फ जीविकोपार्जन ही नहीं, बल्कि देशसेवा और समाजसेवा की भावना भी है।
 
बच्चों का स्कूलों से ड्रॉपआउट एक बड़ी समस्या है। नि:संदेह राइट तो एजुकेशन के माध्यम से 14 वर्ष तक के बच्चों को स्कूलों तक लाने में हम कामयाब रहे हैं लेकिन इसके आगे की डगर कठिन है। पिछली संप्रग सरकार नो डिटेंशन पॉलिसी भी लेकर आई कि कक्षा 8 तक किसी को फेल नहीं किया जाएगा, मगर इसके कुछ खास सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिले बल्कि शिक्षा के स्तर में इससे गिरावट आई। गिरावट की एक बड़ी वजह स्कूलों में शिक्षकों का न होना भी है और जहां हैं भी उनकी योग्यता सवालों के घेरे में है।
 
आज स्कूलों में लाखों पद खाली पड़े हैं। विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात की हकीकत क्या है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अमूमन हर राज्य में शिक्षकों के हजारों पद खाली हैं। देश वर्तमान में 12 से 14 लाख शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। इसके अलावा इस समय निजी स्कूलों में 5 लाख और सरकारी स्कूलों में ढाई लाख से ज्यादा गैर प्रशिक्षित लोग पढ़ा रहे हैं, जो काफी नुकसानदायक है। ऐसी ही अनेक चुनौतियां आज भी मुंहबाएं खड़ी हैं। 
 
अगर हम उच्च शिक्षा की बात करें तो देश में आज भारत में 30,000 हजार कॉलेज और 700 से अधिक विश्वविद्यालय हैं जिसमें डेढ़ करोड़ से अधिक छात्र आज नामांकित हैं, वहीं अगर शिक्षा पर बजटीय आवंटन की बात करें तो जहां साल 1951 के बजट में शिक्षा पर 1,144 मिलियन रुपए खर्च किए गए थे वहीं इस साल 2017 के बजट में शिक्षा पर 79,685.95 करोड़ रुपए का प्रावधान है।
 
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन लाने की दृष्टि से 1956 विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी की स्‍थापना की गई। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक 25.2 फीसदी आबादी ही प्राइमरी शिक्षा हासिल कर पाती है वहीं 15.7 माध्यमिक, 11.1 फीसदी मैट्रिक तक, सिर्फ 8.6 फीसदी इंटरमीडिएट (हायर सेकंडरी) तक पहुंच पाते हैं। देश में साढ़े चार फीसदी लोग ही ग्रेजुएट हैं या इससे ऊपर की शिक्षा हासिल किए हुए हैं। ब्रिटिश कौंसिल ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि साल 2025 तक पढ़ाई करने वाली उम्र के सबसे ज्यादा लोग भारत में ही होंगे। भारत सरकार ने बहुत ही महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य तय कर रखा है। 
 
भारत जैसे देश में जहां आज भी बहुत से जिला मुख्यालयों तक में कॉलेज या विश्वविद्यालय नहीं हैं, वहां दूरस्थ शिक्षा का माध्यम खासा लोकप्रिय है। यह एक लचीला माध्यम है, जो छात्रों को पढ़ाई के दौरान दूसरे शौक भी पूरा करने की छूट देता है। सबसे बड़ी बात यह कि यह कामकाजी और नौकरीपेशा वाले लोगों को भी उच्च शिक्षा की राह दिखा रहा है। इन दूरस्थ शिक्षा केंद्रों में डिप्लोमा, स्नातक, स्नातकोत्तर व मैनेजमेंट कोर्स चलाए जाते हैं। 
 
पढ़ाई करने और करियर बनाने के लिए एक बेहतर मुक्त (ओपन) विश्वविद्यालय है। इग्नू जिसकी पढ़ाई का तरीका पारंपरिक विश्वविद्यालयों से अलग है। इग्नू ने पढ़ाई का एक मल्टीमीडिया नजरिया अपनाया है। विज्ञान, कम्प्यूटर, नर्सिंग, इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी में पाठ्यक्रम भी शामिल हैं। मुक्त विश्वविद्यालय में दाखिला लेना मुश्किल नहीं है। ये विश्वविद्यालय अपने नियमों के मामले में काफी लचीले होते हैं। यहां फीस भी अमूमन सामान्य संस्थानों के मुकाबले कम होती है। कई जगह सप्ताहांत कक्षाएं चलती हैं जिससे कामकाजी लोगों को सहूलियत होती है।
 
भारत में फिलहाल 1 राष्ट्रीय और 13 प्रांतीय मुक्त विश्वविद्यालयों और अलग-अलग संस्थानों के 200 से ज्यादा केंद्रों में दूरस्थ पाठ्यक्रम चलते हैं। करीब 40 लाख छात्र इनमें पढ़ते हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेने वाले करीब 22 प्रतिशत छात्र दूरस्थ पाठ्यक्रम चुनते हैं, वहीं देशभर के शिक्षण संस्थानों में हर साल होने वाले नामांकन में 24 प्रतिशत हिस्सेदारी दूरस्थ और मुक्त पढ़ाई की होती है।
 
आईआईटी और आईआईएम के बारे में कुछ कहना सूरज को दीया दिखाने जैसा है। पूरे विश्व में यहां से पढ़े हुए इंजीनियर, प्रबंधक व बड़ी-बड़ी कंपनियों में अपने हुनर का लोहा मनवा रहे हैं। साल 1951 में खड़गपुर में पहले आईआईटी की स्थापना और इसके बाद 1958 में दूसरा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई में स्थापित हुआ। इसके बाद 1959 में कानपुर एवं चेन्नई, दिल्ली, गुवाहाटी में IIT की स्‍थापना हुई। इसी तरह पहले 2 भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद एवं कोलकाता में स्थापित किए गए। आज आईआईटी और आईआईएम की तर्ज पर कई संस्थाए हैं, जहां से हजारों छात्रों का भविष्य संवार रहे हैं।
 
प्रधानमंत्री की पहल पर हर हाथ को हुनर और हर हाथ को रोजगार देने के उद्देश्य से स्किल इंडिया की शुरुआत हुई जिससे कि देश में बेरोजगारी की समस्या खत्म हो सके और इस योजना के आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिले और कुछ ही समय में लाखों उद्यमियों का वर्ग पैदा हुआ, क्योंकि शिक्षा को रोजगार से जोड़े जाने की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। 
 
भविष्य में हमारी आबादी ज्यादा नौजवानों की होगी और आज जिस हिसाब से मोबाइल क्रांति हुई है उसमें तकनीक बड़ी भूमिका निभाएगी। इस तकनीक का बेहतर इस्तेमाल शिक्षा के क्षेत्र में कैसे किया जा सकता है इस पर अभी काम करना बाकी है। 
 
बहरहाल, आजादी के 7 दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, जो अभी भी जारी हैं। उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में हमारी 100 फीसदी आबादी न सिर्फ साक्षर होगी बल्कि विश्व में हमें महाशक्ति के रूप में स्थापित करेगी।

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