उपचुनावों के नतीजे हवा का रुख नहीं, विकास की आस

हालिया उपचुनावों को नोटबंदी से जोड़ना न जोड़ना जल्दबाजी होगी। नतीजे जो आए, वो आने थे। जाहिर है, जहां जिसकी सरकार थी, वहां उसे कामियाबी मिली। इन उपचुनावों में एक और खास बात दिखी, जो क्षेत्रीय विकास पर लोगों की मुहर थी। बावजूद तमाम समीकरणों और राजनैतिक चातुर्यता के अगर कोई वाकई में चतुर निकला तो वह था मतदाता जिसने, जहां जिसकी सरकार, उसी को जिताकर विकास के प्रति अपनी रुचि दिखाई। 19 नवंबर को 7 राज्यों में लोकसभा की 4 और विधानसभा की 10 सीटों पर हुए उपचुनाव के परिणाम यही कहानी कहते हैं। 
 
नोटबंदी को भुनाने, सभी दल अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत थे, जो निष्प्रभावी रहा। हर कहीं सत्ताधारी दल ही उभरा, जिससे यह मिथक नहीं टूट पाया कि उपचुनाव, ज्यादातर सत्तासीन ही जीतते हैं। लेकिन जहां पश्चिम बंगाल में, बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी पिछले विधानसभा-लोकसभा आम चुनावों के मुकाबले दो गुनी ताकत से उभरीं, वहीं मप्र में शहडोल लोकसभा चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान फिर सरताज बन गए। इन उपचुनावों को सत्ताधारी दलों ने बहुत ही सुनियोजित तरीके से प्रचार-प्रसार और सोशल मीडिया के सहारे जनता के बीच जाकर लड़ा तथा कार्यकर्ताओं का प्रबंधन और बूथ मैनेजमेंट कुछ यूं किया कि मानो हर नगर, कस्बे, गांव में वार्ड पार्षद या पंच का चुनाव लड़ा जा रहा हो। जीत की यही असल वजह रही। सबसे ज्यादा आश्चर्य मिश्रित और हैरान कर देने वाले नतीजे पश्चिम बंगाल से आए जहां तृणमूल कांग्रेस ने उपचुनावों में, मुख्य चुनावों की तुलना में बेहद शानदार प्रदर्शन कर सबको चौंका दिया। मां, माटी और मानुष का दबदबा जस का तस बल्कि दोगुना दिखा। यह बात अलग है वो खुद परिणामों को नोटबंदी से जोड़कर देखती हैं और इसे जनविद्रोह का परिणाम कहती हैं। चाहे लोकसभा की तमलुक, कूचबिहार सीट हो या विधानसभा की मांतेश्वर सीट, सभी पर बीते आम चुनाव से लगभग दोगुने मतों से जीत बताती है कि बंगाल में ममता का जादू अभी भी चरम पर है। 
 
सभी 14 उपचुनावों में सबसे कशमकश वाला चुनाव मप्र में शहडोल लोकसभा का रहा। यहां शुरू में प्रत्याशी चयन को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच ऊहापोह की स्थिति रही। सीट भाजपा सांसद दलपत सिंह परस्ते के आकस्मिक निधन से 1 जून को खाली हुई थी। चूंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पहले ही शहडोल को एक तरह से उपकृत कर रखा था। कांग्रेस शासनकाल में शहडोल के हुए तीन टुकड़े के मर्म को समझा और मरहम लगाकर संभाग का दर्जा दे दिया। बाद में यहां पर इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेज सहित यूनिवर्सिटी की सौगात दी। पूरे संसदीय क्षेत्र में आचार संहिता से पहले बीसियों घोषणाओं और रोड शो ने विपरीत सी दिख रही परिस्थितियों में भी शहडोल से जीत दिला दी। चुनाव के दौरान कांग्रेस प्रत्याशी का पत्र भी चर्चाओं में रहा और नोटबंदी का असर भी दिखा। शुरुआती दौर में यह प्रयास भी किए गए कि कांग्रेस की युवा प्रत्याशी हिमाद्री सिंह को भाजपा में लाकर चुनाव लड़ाया जाए लेकिन ऐसा हो न सका। 
 
अंततः संसदीय क्षेत्रांतर्गत बांधवगढ़ विधायक और कैबिनेट मिनिस्टर ज्ञान सिंह पर खेला गया दांव सफल रहा। यह बात अलग है कि जीत का अंतर, बीते आम चुनाव के मुकाबले 2,41301 से घटकर केवल 60383 पर आ टिका, लेकिन मतदाताओं की खामोशी को भांपते हुए, चुनाव प्रबंधन में माहिर शिवराज ने आखिरी 3-4 दिन प्रचार की कमान खुद यहां रहकर कुछ इस अंदाज में संभाली मानों वो ही शहडोल जिले के सबसे बड़े और सर्वमान्य भाजपा नेता हैं। 18-18 घंटे जनसंपर्क, रोड शो किया। निश्चित रूप से शिवराज सिंह चौहान के जीवन का यह सबसे मेहनत और कशमकश वाला उपचुनाव रहा होगा। ठीक साल भर पहले रतलाम-झाबुआ लोकसभा में भाजपा ने यह सीट, कांग्रेस के हाथों गंवा दी थी तभी से राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर थी। कुछ स्थानीय चुनावों में भी भाजपा को पराजय मिली जिससे कांग्रेस उत्साहित थी। लेकिन शहडोल सीट पर शिवराज ही सर्वमान्य बनकर उभरे जिन्होंने पुराने गढ्ढे न भर दिए बल्कि तीसरे कार्याकल की अपनी लोकप्रियता भी सिध्द कर दी। कहा जा सकता है कि जहां नेपानगर में सहानुभूति की लहर थी क्योंकि सड़क दुर्घटना में विधायक राजेन्द्र दादू की मृत्यु के बाद भाजपा ने उनकी बेटी मंजू दादू को टिकट दिया। जिन्होंने पिता को मिले, 22178 मतों के मुकाबले 42198 मतों से जीत हासिल की। वहीं शहडोल तमाम उलटते समीकरणों के बावजूद जीतकर शिवराज ने खुद को और मजबूत किया है।
 
असम में बैथालांग्सो के कांग्रेस विधायक मानसिंह रोंगपी  ने इसी वर्ष 14 जुलाई स्तीफा देकर भाजपा का दामन थामा और फिर से उसी सीट से 19 नवंबर को उपचुनाव लड़ा और भाजपा की टिकट पर जीत हासिल की। जबकि लखीमपुर लोकसभा सीट पर भाजपा ही वापस आई। इसी तरह त्रिपुरा में भी कांग्रेस के हाथ से बरजाला सीट निकलकर माकपा के पाले में चली गई है जो विधायक जि‍तेंद्र सरकार के स्तीफा से रिक्त हुई थी। जबकि दूसरी सीट खोवई, माकपा विधायक समीर देब की मृत्यु से रिक्त हुई थी पर दोबारा माकपा ने जीत दर्ज की। पुड्डूचेरी में कांग्रेस की सरकार है। वहां नल्लीथोप्पे मुख्यमंत्री वी नारायणसामी चुनाव लड़ा और जीता। अरुणाचल प्रदेश की हायुलियांग विधानसभा उपचुनाव में नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस की उम्मीदवार भाजपा की दसांगलु पुल जो पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की तीसरी पत्नी हैं, ने अपनी एकमात्र प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय उम्मीदवार योम्पी क्री को 942 वोटों से पराजित किया। इसी तरह तमिलनाडु की तीन विधानसभा सीटों तिरूपरंकुंदरम, तंजौर और अर्वाकुरिचि विधानसभा सीटें पूर्ववत जयललिता के दल एआईएडीएमके खाते में गई। इसे  अम्मा के प्रति आकर्षण और सहानुभूति कह सकते हैं।
 
हालांकि इन उपचुनावों में प्रमुख दावेदार कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं था। चौतरफा परास्त कांग्रेस, फिर से उबरने को लगता है खुद तैयार नहीं है! संगठन को नए सिरे से पिरोना, बिखर रहे युवाओं को जोड़ना, जनता से सीधा संवाद, जीवंत संपर्क, गुटबाजी भुलाना, क्षेत्रीय क्षत्रपों, वार्डों के तुरुपों और पदों का लाबादा ओढ़े विज्ञप्तिवीरों को जनता से नकारे गए संकेतों को समझना होगा। जरूरी होगा कि कांग्रेस बजाए राष्ट्रीय दल का दंभ भरने के इस ककहरे को, भाजपा और दूसरे क्षेत्रीय दलों से सीखे और नए संकल्प, नए कलेवर और नए जोश में ढ़ाले वरना हालात यही रहे, तो वह दिन भी दूर नहीं जब टेक्नालॉजी और सोशल मीडिया के इस दौर में वार्डों में भी अस्तित्व को बचाए रखना मुश्किल होगा। जरूरी है कि देश में एक मजबूत विपक्ष हो जिससे लोकतंत्र और भी मजबूत हो। कांग्रेस को चाहिए अब बजाए सत्ता सुख के सपने देखने, दमदार विपक्ष की भूमिका के लिए खुद को तैयार करे। 

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