Fair & lovely: रंग नहीं बदलें, अपने अधि‍कारों के लिए रहें ‘फेयर’

वैसे भी फेयर तो कभी कुछ रहा ही नहीं हम औरतों के लिए। पैदा होने के साथ ही फेयर का फियरजो भर दिया जाता है

हमने अपनी निजी पसंद, सोच, विचार यहां तक कि अपना दिमाग और उसकी ताकत भी बाजारू, मुनाफाखोर, असंवेदनशील कंपनियों के हाथों बेच दीं और ‘लवली’ होने के बावजूद ‘लोनली’ व कमतरी के अहसास से उपजी मनहूसियत को जीने के लिए मजबूर जिंदगी खरीद ली। खुश होने की तो कोई बात ही नजर नहीं आती मुझे कि ‘फेयर एंड लवली’ ने जो ‘फेयर’ शब्द हटाने का निर्णय लिया है।

बाजार से हमारे शरीर के रंगों को हथियार बनाकर यूनिलिवर कंपनी सिर्फ फेयर ऐंड लवली ब्रांड से ही भारत में सालाना 50 करोड़ डॉलर से ज्यादा का कारोबार करती है। यह आंकड़ा हैरान करने वाला है। जो हमारे समाज की काली मानसिकता को दिखाता है। मंदबुद्धि तो हम तभी घोषित हो चुकीं थी औरतों, जब हमने यह नहीं विचारा कि ऐसे गोरे हो सकते तो सारे साऊथ इंडियंस नागरिक, अफ्रीकन और भी वो लोग जो रंगों से पहचाने जा रहे हैं वे सभी ‘गोरे भक्क’ न हो गए होते और भैसों को गाय बनाकर पेश कर दिया होता।

इस ‘फेयर’ को छोड़ो हम तो जहां ‘फेयर’ चाहिए वहां भी कहां ‘फेयर’ हैं? अर्थ तक तो पता नहीं होता है इनका। तो सुनो हिंदी में और अंग्रेजी में इनके अर्थ हैं निष्पक्ष- fair, impartial, objectiv,just,  uncorruptible. गोरा- white, fair, स्वच्छ- clean,cleanly, neat, fresh, fair, spotless. कितनी मूर्खता है कि बाकी को छोड़ केवल शारीरिक रंगों की कुंठा में हम बंधे रह गए। कभी और अर्थों को भी तो देखा समझा होता। और रही बात ‘लवली’ की तो वो तो ब्रह्माण्ड में कोई और हो ही नहीं सकता सिवाय हमारे और प्रकृति के। उसके लिए भी किसी बाजारू ठप्पे की हमें आवश्यकता नहीं है।

पहले देखें हम कहां है? हमारी स्थिति कैसी है? ‘फेयर’ के अर्थों में हम कहां है? भारत की कुल जनसंख्या का 48.5% महिलाएं हैं जिसमे से सिर्फ 65.46% ही साक्षर हैं, इसीलिए तो फेयर करने वाली इन क्रीम्‍स ने भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, थाईलैंड, पाकिस्तान और एशिया के कई देशों पर कब्‍जा जमा रखा है। जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी की तरफ से आई यह घोषणा कि वह स्किन व्हाइटनिंग के कारोबार से हट रही है तो यह उनकी बाध्यता है कोई अहसान नहीं, इसमें कौनसी उनकी महानता हो गई? रंगों के आधार पर मुनाफा कमाना तो कभी भी ‘फेयर’ हो नहीं सकता।

वैसे विगत वर्षों से इन कंपनियों ने इसी कुंठा को लड़कों/आदमियों को भी बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यदि हमें हमारे लिए निष्पक्षता वाला ‘फेयर’ चाहिए तो हमारे अधिकारों को जानना बहुत जरुरी है बल्कि अनिवार्य है। सबसे पहले जानें क्या है हमारे अधिकार।

आजादी के बाद के वर्षों में महिलाओं के लिए समान अधिकार (अनुच्छेद-14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नही करने (अनु-15), अवसरों की समानता (अनु-16), समान कार्य के लिए समान वेतन (अनु-39), अपमानजनक प्रथाओं के परित्याग के लिए (अनु- 51(ए) (ई), प्रसूति सहायता के लिए (अनु-42) जैसे आदि अनेक प्रावधान भारतीय संविधान में किए गए। इसके अतिरिक्त अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम 1984, महिलाओं का अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम 1986, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, गर्भधारण पूर्वलिंग चयन प्रतिषेध अधिनियम 1994, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (प्रतिषेध) अधिनियम 2013, दण्डविधि (संशोधन) 2013 भारतीय महिलाओं को अपराधों के विरुध्द सुरक्षा प्रदान करने तथा उनकी आर्थिक एवं सामाजिक दशा में सुधार करने के लिए बनाये गए प्रमुख कानूनी प्रावधान हैं। कई राज्यों की ग्राम व नगर पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान भी किया गया है।

कहां हैं हम इनमे? हम वो हैं जो सरेआम अपने निजी घरों में अपने लोगों से लेकर महिला बाल संरक्षण गृह में सरकार के संरक्षण में भी असुरक्षित, और जिन्हें मानसिक चिकित्सालयों में भी बलात्कार का शिकार बना लिया जाता हो, उन्हें केवल काले-गोरे की सीमा में उलझा कर चकरघिन्नी कर छोड़ना गहरा बाजारू षडयंत्र ही है।

ये तो कभी फेयर नहीं है। कभी यहां हमें अपनी जाति के लिए ‘फेयर’ होने की मांग करने की याद क्यों नहीं आती?

NCRB के अनुसार पिछले 10 वर्षों में महिलाओं के विरुध्द हुए अत्याचारों में दो- गुने से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है। इस संबंध में देश में हर घंटे करीब 26 आपराधिक मामले दर्ज किए जाते हैं। यह स्थिति बेहद ही भयावह है।

इसके अतिरिक्त कई अन्य चिंताएं भी जैसे- स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सरोकार, घर के महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में भूमिका की कमी, दोहरा सामाजिक रवैया, प्रशिक्षण का अभाव, पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता, गरीबी एवं धार्मिक प्रतिबंध शामिल हैं। यूएनडीपी (मानव विकास रिपोर्ट) 1997 के अनुसार भारत में 88% महिलाएं रक्ताल्पता का शिकार हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण पाने के बहुत कम उपाय प्रयोग किए जाते हैं, जिससे बार-बार गर्भधारण और शारीरिक अक्षमता के चलते कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याएं आए दिन देखनें में आती रहतीं हैं। कभी इस ‘फेयरनेस’ के लिए तुम्हारा ध्यान क्यों नहीं गया रे औरतों?

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार में हमारी स्थिति यह है- कृषि:-76.3 मिलियन, विनिर्माण क्षेत्र:-10 मिलियन, सेवा क्षेत्र:-8.5 मिलियन, अन्य क्षेत्र:- 7.1 मिलियन बावजूद इसके हम आज भी आर्थिक आत्म निर्भरता में आजाद नहीं है तो ये क्या तुम्हें ‘फेयर’ लगता है? जबकि  महिलाओं की सैलरी, पुरुषों की सैलरी की 62% हैं, यदि महिला और पुरुष की सैलरी एक सामान हो जाए तो देश के सकल घरेलू उत्पाद में 30% की बृद्धि हो जाएगी। वर्तमान में श्रम बल भागीदारी (labour force participation) 25% है जो कि 2004-05 में 37% थी। 2011-2012 में सभी ग्रामीण श्रमिकों में 24.8% महिलाएं शामिल थीं जो कि 1972-73 में 31.8% थीं और 2011-2012 में सभी शहरी श्रमिकों में महिलाएं 14.7% थीं, जो कि 1972-73 में 13.4% थीं। इसमें कहां तुम्हे अपने लिए ‘फेयर’ की फिलिंग आ रही है बताना जरा?

शिक्षा के क्षेत्र में ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाले देश भारत में सभी नामांकित स्नातक छात्रों में 45.9% महिलाएं हैं जबकि पीएचडी में पंजीकृत सभी छात्रों में 40.5% महिलाएं हैं।

2012-2013 में विशिष्ट अंडरग्रेजुएट डिग्री कार्यक्रमों में नामांकित महिलाओं का प्रतिशत शामिल है।
इंजीनियरिंग/प्रौद्योगिकी- 28.5%, आईटी और कंप्यूटर- 40.2%, प्रबंधन- 35.6%, कानून-32.0%. और हम हैं कि ‘फेयर एंड लवली’ के मुद्दों पर निहाल हुए जा रहे हैं। कितना ‘अन फेयर’ है यह सब क्या तुम्हें नजर नहीं आता?

हमेशा औरतों को चांद से चेहरे की कुंठा की घुट्टी पिलाने वाले समज की मानसिकता वाले देश में ISRO के कुल कर्मचारियों 14,246 का केवल 20% महिलाएं हैं और 1963 में इसकी स्थापना से लेकर अभी तक कोई भी महिला इसकी अध्यक्ष नहीं बन पायी है। निदेशक मंडल (Board of Directors) में केवल 7.7% महिलाएं हैं इनमे भी केवल 2.7% निदेशक मंडल की चेयरमैन हैं। भारत की संसद में वर्तमान में सिर्फ 11% महिला ही हैं जो की कई दफा केवल महिलाओं के मुद्दों पर मुंह में दही जमा कर बैठने वालों की श्रेणी में आतीं हैं। जो खुद दूसरों के हाथों की कठपुतली बनी बैठीं है वो कैसे हक़ की लड़ाई के लिए आवाज उठाएगीं?

सबसे बड़ी और मुद्दे की बात कि जो खुद की लड़ाई खुद नहीं लड़ता उसकी ईश्वर भी मदद नहीं करता। जिस देश के संस्कारों, वेद-पुरानो, धर्म ग्रंथों में केवल कर्म और गुणों को ही प्रधान बताया गया हो उस देश में देह व देह-रंगों के प्रति ऐसा दुष्प्रचार करना न केवल घातक है वरन क्रूरतम कृत्य है। क्योंकि ये कोई पैदा होने के पहले लिए जाने वाला विकल्प नहीं है। अतः सत्य से नजरें मिलाओ और ‘फेयर के फियर’  (fair or fear) पर विजय पाओ और बनो अपनी ‘लवली’ सी मुस्कान के साथ आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और खिलखिला कर हंसों, गाओ... लव यू जिंदगी...  

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