जुमलों और नारों के नीचे दब गए बुनियादी मसले

अनिल जैन

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017 (20:13 IST)
पांच में से तीन राज्यों पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जा चुके हैं, जबकि उत्तरप्रदेश और मणिपुर में अभी चुनाव प्रक्रिया जारी है। जैसा कि हर चुनाव के समय होता है, इस बार भी चुनाव में भाग ले रहे प्रमुख दलों ने तरह-तरह के आकर्षक वायदों से युक्त अपने-अपने घोषणा पत्र जारी किए हैं। इन घोषणा पत्रों में सूबे के बुनियादी मसलों का भी जिक्र है और लोगों को मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त स्मार्ट फोन, मुफ्त प्रेशर कूकर, 25 रुपए किलो देशी घी और सस्ती दरों पर बिजली-पानी देने जैसे वायदे भी हैं। लेकिन इन घोषणा पत्रों का जारी होना महज रस्म अदायगी बनकर रह गया है। कोई भी दल और उसके स्टार प्रचारक अपने चुनाव प्रचार अभियान में घोषणा पत्र में शामिल बुनियादी मुद्दों का जिक्र नहीं कर रहा है। 
 
पंजाब में, यद्यपि मतदान हो चुका है, लेकिन पूरे चुनाव अभियान के दौरान बुनियादी मुद्दों पर तर्कसंगत चर्चा करने से सारे दल मुंह चुराते रहे। सूबे में पहली बार चुनाव मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी ने एकदम नई पहल करते हुए कर्मचारियों, दलितों, किसानों, युवाओं के लिए अलग-अलग करीब आधा दर्जन घोषणापत्र जारी किए, जिनमें लुभावने वायदों की भरमार रही। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के मरीजों की संख्या मे हो रही बढ़ोतरी को एक अहम मुद्दे के रूप में उभारा था, लेकिन इस बार चुनाव में यह मुद्दा परिदृश्य से ही ओझल रहा। पंजाब को सर्वाधिक मुख्यमंत्री देने वाले मालवा इलाके में राज्य विधानसभा की 69 सीटें आती हैं। इसी इलाके में कैसर की सर्वाधिक मार पड़ी है। लेकिन इस बार सभी दलों ने इस मुद्दे के प्रति निष्ठुरता दिखाते हुए इसको जरा भी तरजीह नहीं दी। 
 
एक सर्वेक्षण के मुताबिक पंजाब में बेरोजगार युवाओं की संख्या करीब 55 लाख है। सत्तारूढ़ अकाली दल-भाजपा गठबंधन ने जहां हर साल 20 लाख नौकरियां देने का वादा किया, वहीं एक दशक बाद फिर सत्ता में आने को आतुर कांग्रेस ने हर परिवार में एक व्यक्ति को नौकरी देने की बात कही। लेकिन दोनों ही दलों ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि नौकरियां पैदा होंगी कैसे। सूबे में बीते एक दशक में 22 हजार उद्योग या तो बंद हो चुके हैं या फिर पलायन कर गए हैं। नए उद्योग कैसे लगेंगे, पूंजी निवेश कैसे होगा, इसका रास्ता किसी भी दल ने नहीं दिखाया। 
 
कमोबेश पंजाब जैसी ही स्थिति पहाड़ी राज्य उत्तराखंड और तटीय राज्य गोवा में भी चुनाव के दौरान रही। दोनों सूबे अपेक्षाकृत काफी छोटे हैं, लेकिन दोनों की अपनी-अपनी बेहद जटिल समस्याएं हैं, लेकिन चुनाव अभियान के दौरान नारे, जुमले और आरोप-प्रत्यारोप के शोर में सारे बुनियादी मसले भुला दिए गए। जहां तक मणिपुर का सवाल है तो नगा और गैर-नगा समुदायों के बीच आए दिन हिंसक टकराव झेलने के लिए अभिशप्त इस सीमावर्ती सूबे की याद तो हमारे अखिल भारतीय कहे जाने राजनीतिक दलों को सिर्फ चुनाव के समय ही आती है कि वह भी भारत का कोई प्रदेश है। 
 
अब बात करें उत्तर प्रदेश की। आबादी के लिहाज से देश का सबसे बडा और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता से भरा होने के नाते उत्तरप्रदेश के चुनाव का बाकी राज्यों के चुनाव से कुछ अलग और ज्यादा महत्व है। इस विशाल सूबे के चुनाव पर न सिर्फ समूचे देश की बल्कि विभिन्न कारणों से भारत में दिलचस्पी रखने वाले दूसरे देशों की भी निगाहें लगी हुई हैं। लगभग बीस करोड की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में घनघोर आर्थिक विषमता, भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, खेती, कानून-व्यवस्था आदि से संबंधित गंभीर सवाल मुंह फाडे खडे हैं लेकिन राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार में ये सारे सवाल सिरे से नदारद हैं। अगर कोई इनका जिक्र कर भी रहा है तो बेहद सतही अंदाज में। सभी दलों के स्टार प्रचारक अपनी रैलियों-सभाओं में आई या लाई गई भीड़ को अपनी लोकप्रियता का पैमाना मानकर गद्गद् हो रहे हैं।
इस भीड़ को और अपने समर्थकों को गुदगुदाने और उनकी तालियां बटोरने के लिए अपने विरोधी दलों के नेताओं पर छिछले कटाक्ष करने और सोशल मीडिया में प्रचारित घटिया चुटकले सुनाने की उनमें होड लगी हुई है। मुद्दों की चर्चा करने के नाम पर सारे नेता अव्यावहारिक और असंगत वायदे कर रहे हैं। मसलन केंद्र में सत्तारुढ भाजपा की ओर से उसके स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह आतंकवादियों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक को अपनी सरकार का सबसे बडा कारनामा बताकर वोट मांग रहे हैं। वे लोगों से इसलिए भी अपनी पार्टी को जिताने की अपील कर रहे हैं ताकि आने वाले समय में उनकी पार्टी को राज्यसभा में बहुमत हासिल हो जाए।
 
दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के नेता नोटबंदी से पैदा हुई परेशानियों को गिनाकर अपने लिए वोट मांग रहे हैं। इसी मुद्दे को बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भी जोरशोर से उठा रही हैं। हालांकि वे कानून व्यवस्था के मोर्चे पर राज्य सरकार को भी घेर रही है और इस संदर्भ में अपने शासनकाल की याद दिला रही है।
 
बहरहाल, कोई इन नेताओं से पूछने वाला नहीं है कि आखिर सर्जिकल स्ट्राइक से या राज्यसभा में केंद्र सरकार के बहुमत-अल्पमत की स्थिति से राज्यों की बदहाल स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा व्यवस्था का क्या लेनादेना है या नोटबंदी के चलते लोगों के सामने पेश आ रही मुश्किलों को विधानसभा का चुनाव जीतकर वे कैसे खत्म कर देंगे? हैरान करने वाली बात तो यह भी है कि सभी शासकीय सेवकों, मंत्रियों और जजों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के डेढ साल पुराने उस क्रांतिकारी फैसले को लेकर कोई राजनीतिक दल सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी से सवाल नहीं कर रहा हे कि यह फैसला अभी तक लागू क्यों नहीं हुआ। कोई दल यह वादा भी नहीं कर रहा है कि वह सत्ता में आने पर इस फैसले पर अमल करेगा। इसे जनद्रोही राजनीति के अलावा और क्या कहा जा सकता है? यह राजनीतिक दिवालिएपन की पराकाष्ठा और जनता को मूर्ख मान लेने की नासमझी नहीं तो और क्या है कि हेलीकॉप्टर से रोज उड़कर सूबे के इस शहर से उस शहर में उतर रहे प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि देखो फलां नेता के परिवार में इतनी कारें हैं जबकि मेरे पास अपनी एक कार भी नहीं है। 
 
धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश तो हर पार्टी, हर नेता और हर उम्मीदवार कर रहा है। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए साड़ी, कंबल, शराब आदि बांटने जैसे पारंपरिक हथकंडे अभी भी प्रासंगिक बने हुए हैं। हालांकि इस समूची स्थिति के लिए सिर्फ राजनीतिक दलों को ही दोष नहीं दिया जा सकता, इसके लिए जनता भी बराबर की दोषी है। राजनीतिक दल चुनावों में बुनियादी सवालों पर बात करे और अपने घोषणापत्र के प्रति पूरी तरह ईमानदार रहे, यह सुनिश्चित करने के लिए कोई कानूनी उपाय नहीं हो सकता, क्योंकि कानून बनाने वाले हर कानून में उससे बच निकलने की कोई न कोई गली छोड़ देते हैं। इसलिए इस बारे में पहल तो नागरिक समुदाय को ही करनी होगी। नागरिक समुदाय जब तक भावनात्मक नारों और दलीय खांचों से बाहर आकर संगठित नहीं होगा तब तक वह इसी तरह छला जाता रहेगा।

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