अच्छा-बुरा दिन-रात की तरह ही है

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

गुरुवार, 20 अगस्त 2020 (12:32 IST)
अच्छा होना अपने आप अच्छा है या बुरा होने से अच्छे होने का अस्तित्व है। जैसे कभी रात हो ही नहीं तो शायद दिन की पूछताछ में कमी हो जाए। अच्छे लोग बुराई से परहेज करते हैं, पर बुरे लोग हमेशा अच्छाई को नकारते नहीं, पर बुराई को अपनाए रखने से परहेज भी नहीं करते। यदि दुनिया में बुराई का नामोनिशान खत्म हो जाए तो क्या अच्छाई अकेलेपन में अहंकारशून्य हो जाएगी? यह भी एक सवाल है। अच्छे-बुरे का सवाल केवल व्यक्तियों का ही नहीं, विचारों का भी है।
 
हम किसी व्यक्ति, विचार, व्यवहार, काम, रीति-रिवाज, साधन, संगठन, समाज, भाषा, वेशभूषा, बोलचाल, जाति, गीत-संगीत, ध्वनि, चित्र, भोजन, संपत्ति, धर्म, देश, संसाधन और तकनीक आदि को अच्छा-बुरा मानकर ही क्यों देखते-समझते हैं? अच्छे-बुरे से परे निरपेक्ष भाव को मानव समाज ने क्यों नहीं अपनाया? अच्छे की हमारी व्याख्या भी शायद बहुत संकुचित मन से की गई है, जो हमें अच्छा लगे वह अच्छा है, भले ही वह सबको अच्छा न भी लगे तो भी हम उसे अच्छा मानते हैं। इसका एक अर्थ यह भी माना जा सकता है कि अच्छा-बुरा हमारी मनमर्जी की बात है। पूर्ण अच्छा और पूर्ण बुरा जैसा कुछ होता नहीं है, सब कुछ प्राय: प्रसंगवश है।
 
हम शांत तटस्थ और सहज रूप में आजीवन नहीं रह पाते। हमारा अधिकांश जीवन सुविधा का संतुलन है। सहज रहना भी हमारे लिए तपस्या जैसा है, आजीवन हम किसी-न-किसी विशेषण के आदी होते जाते हैं। अच्छा और बुरा विशेषणों के दो छोर हैं। समय, काल व परिस्थिति हमारे अच्छे-बुरे की अवधारणा को बदलती रहती है। हमारा अपने आपसे अतिशय लगाव भी अच्छे-बुरे की हमारी व्याख्या को बदलता रहता है। हमारी दृष्टि व सोच-समझ सब सापेक्षता से ओतप्रोत होती है। निरपेक्ष बुद्धि न के बराबर है इतनी बड़ी दुनिया की इतनी बड़ी जिंदगी में।
 
हम अपने आपसे इतने ज्यादा गहराई से हर मामले में जुड़े हुए होते हैं कि हम सारी बातों को अपने संदर्भ से ही मानते-जानते और समझते-समझाते हैं। इसी से अच्छा-बुरा व्यक्तिपरक आकलन बन गया है। तभी तो जो हमें अच्छा लगता है, जरूरी नहीं कि वह सबको भी अच्छा ही लगे। किसी को ज्यादा अच्छा लग सकता है, किसी को कम और किसी को एकदम अच्छा न लगे। यानी अच्छा होने पर भी इस बात की संभावना तो रहती ही है कि अन्य लोग अच्छाई की मात्रा को लेकर भिन्न-भिन्न दृष्टि रखें।
 
अच्छाई-बुराई को लेकर कई मत-मतांतर हैं। एक मत यह है किसी का बुरा नहीं करना चाहिए। एक मत यह है कि अच्छे बनकर जी ही नहीं सकते। एक मत है कि अच्छे के साथ अच्छा और बुरे के साथ बुरा बनकर रहें। सच बोलना अच्छा है, असत्य बोलना बुरा है। जितनी नीति और सद्व्यवहार की बातें हैं, वे अच्छाई की बात करती हैं। अनीति और असत्य बुराई को बुरा नहीं मानते। अच्छा सबसे अच्छा है, यह मानने के बाद भी हम अच्छाई के साथ विचारपूर्वक और आग्रह के साथ जी नहीं पाते। बुराई को गलत मानते हुए भी आजीवन बुराई से संघर्ष करने का साहस हम सब में हर समय नहीं हो पाता।
 
बुराई एक तरह से हमारे लिए गुरु की तरह भी काम करती है। बुराई हमें समझाती या सिखाती है कि यह बात बुरी है तो हम उससे बच या दूर रह सकते हैं या अपनी बुराई को त्यागने की दिशा में जा सकते हैं। जैसे हिंसा अच्छाई नहीं है। फिर भी अहिंसक होना अच्छाई होते हुए भी हम सबको सहज-सरल नहीं लगता और हम कम या ज्यादा मात्रा में हिंसा का उपयोग कई रूपों में जाने-अनजाने करते रहते हैं। उसे न्यायसंगत ठहराने की नाना दलीलें भी गढ़ते नहीं थकते। कई बार आवश्यक बुराई की दलील को भी हम अपनी ढाल बना लेते हैं। इस तरह अच्छाई की महत्ता को जानते-समझते हुए भी हम बुराई को त्याग नहीं पाते, साथ ही अच्छाई को छोड़ बुराई को अपनाना या बुराई को लेकर उदासीन बने रहना हमें व्यावहारिकता लगने लगी है।
 
भ्रष्टाचार बुराई है, पर हम उसे मिटाना संभव नहीं मानकर सामान्यत: व्यवहार का आम तरीका बना बैठे हैं। शिष्टाचार जीवन की सभ्यता है या अच्छाई है, पर हम में से अधिकांश उसे निभाने में लापरवाह और उदासीन बन जाते हैं और सामान्य जीवन में अशिष्टता को बढ़ने से रोकना चाहते हुए भी अशिष्टता को जाने-अनजाने रोक नहीं पाते हैं। अच्छाई अपने आप में हम सबके जीवन का साध्य है। बुराई जीवन के साध्य को जान-बूझकर लोभ-लालचवश नकारना है। बुराई के साधन से अच्छाई को हासिल करने की पहल करना यानी अपनी जीवनी शक्ति को ही नकारना है।
 
दिन, दिन इसलिए है कि वह हमेशा प्रकाशवान है। प्रकाश खत्म, तो दिन खत्म है। इसी तरह अच्छाई भी स्वत: अपने-आप ही अच्छी है। अच्छाई में बुराई का सूक्ष्मतम भी योगदान नहीं है। रात और दिन धरती की गति से आते-जाते हैं। अच्छाई और बुराई मनुष्य की मति की उपज है। रात और दिन का एक निश्चित क्रम बना हुआ है, पर अच्छाई-बुराई का कोई क्रम नहीं, सब हमारी सोच-समझ और मन:स्थिति पर निर्भर है। हमेशा अच्छा बने रहना सहज भी है और कुछ हद तक कठिन भी है।
 
बुराई करना सरल है और बुराई से आजीवन बचे रहना असंभव तो नहीं, पर कठिन जरूर है। पर मन में ठान लें तो कुछ भी कठिन नहीं। अच्छा और बुरा हमारे निजी और सार्वजनिक जीवन में हर समय हमारे साथ बने रहते हैं। पर यह हमारे ऊपर है कि हम जीवनभर अच्छे को मानें और बुराई को आवश्यक बुराई के तर्क के आधार पर भी न मानें तो ही हम अच्छाई को आजीवन आत्मसात कर जीवन को सहज स्वरूप में जी सकते हैं।
 
अच्छाई हमारी जीवनी शक्ति को हमेशा व्यापक जीवनदृष्टि तथा सहजता की समझ वाली बनाए रखती है। इस तरह अच्छाई और बुराई दिन और रात की तरह हैं, जो जीवन को प्रकाश में प्रगट और प्रखर करते हैं और रात के अंधेरे में सुप्त हो जाते हैं। अच्छाई जीवन का सात्विक स्वरूप है और बुराई तामसिक। अच्छाई लोभ-लालच से परे रहना और बुराई लोभ-लालच के साथ रहना है। अच्छाई सबके भले के लिए होती है, इकट्ठा कर अपने पास रखने के लिए नहीं। इसी से कहा गया है- 'नेकी कर दरिया में डाल'। अच्छाई जीवन की गहराई है जबकि बुराई जीवन का उथलापन। 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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