आपदा में अवसर : अध्यादेश के सहारे ही चलेगा राजकाज?

अनिल जैन

गुरुवार, 2 जुलाई 2020 (16:13 IST)
भारत दुनिया का संभवत: एकमात्र ऐसा देश है, जहां कोरोना महामारी के दौर में देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद पूरी तरह ठप है। संसद के ठप होने की वजह से देश का राजकाज अध्यादेश के जरिए चलाया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आपदा को अवसर बनाने की बात 12 मई के अपने राष्ट्र के नाम संबोधन में कही थी लेकिन उनकी सरकार ने इस दिशा में पहले ही काम शुरू कर दिया था।
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कोरोना संक्रमण के नाम पर संसद के बजट सत्र का समापन निर्धारित समय से पहले ही 23 मार्च को हो गया था। उसके 1 सप्ताह बाद ही सरकार ने कोरोना काल का पहला अध्यादेश जारी किया था। उस अध्यादेश में कर और कुछ अन्य नियमों में छूट देने का प्रावधान किया गया। उसके बाद से अब तक कोरोना काल में सरकार कुल 11 अध्यादेश जारी कर चुकी है। चूंकि संसद का मानसून सत्र नियत समय पर आयोजित नहीं होने जा रहा है, लिहाजा आने वाले दिनों में सरकार कुछ और भी अध्यादेश जारी कर सकती है।
 
सरकार ने आपदा को अवसर बनाते हुए पिछले दिनों ढहती अर्थव्यवस्था को थामने के लिए जो पैकेज घोषित किया है, उसके लिए कई पुराने कानून बदले जा रहे हैं और यह काम बिना संसद की मंजूरी के हो रहा है। हैरानी की बात है कि सरकार के आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल ने डंके की चोट कहा है कि भारत में जिन कानूनों को पवित्र गाय मानकर कोई हाथ नहीं लगाता था, उन्हें मौजूदा सरकार ने एक झटके में बदल दिया। उन्होंने किसानों की फसलों की बिक्री के लिए राज्यों की सीमा खोलने और आवश्यक वस्तु कानून का जिक्र किया और कहा कि ये सारे कानून टॉप टेन कमांडमेंट्स माने जाते थे लेकिन इस सरकार ने इन्हें बदल दिया। ये सारे बदलाव अध्यादेश के जरिए ही हुए हैं।
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सरकार ने 31 मार्च को कर और दूसरे नियमों में छूट देने के लिए कोरोना काल का पहला अध्यादेश जारी किया। उसके बाद 7 अप्रैल को सांसदों के वेतन, भत्ते और पेंशन संबंधी नियम बदले गए जिसके तहत 30 फीसदी की कटौती की घोषणा की गई। इसके बाद मंत्रियों के वेतन, भत्ते आदि से जुड़े नियम बदलने का अध्यादेश लाया गया। कुल मिलाकर अप्रैल महीने में केंद्र सरकार ने 7 अध्यादेश मंजूर किए।
 
जून महीने में 4 अध्यादेश मंजूर किए जा चुके हैं जिनमें आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव भी शामिल है। सरकार ने 'आत्मनिर्भर भारत' अभियान के लिए दिवालिया संहिता में भी बदलाव कर दिया है और कंपनियों को इससे छूट दी है। किसानों की फसल दूसरे राज्य में ले जाकर बेचने और उनकी फसलों की कीमत को लेकर खरीद-बिक्री के दूसरे नियमों को बदलने के लिए भी अध्यादेश लाया जा चुका है। देश के सभी सहकारी बैंकों को रिजर्व बैंक की निगरानी में लाने वाले अध्यादेश को भी सरकार ने मंजूरी दे दी है।
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यही नहीं, 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज और नए आर्थिक सुधार लागू करने के मामले में भी ऐसा ही हुआ। दोनों मामलों में प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने ऐलान तो कर दिया लेकिन संसद की मंजूरी लेना जरूरी नहीं समझा। अमेरिका, ब्रिटेन आदि कई देशों में भी राहत पैकेज घोषित किए गए हैं लेकिन ऐसा करने के पहले वहां की सरकारों ने विपक्षी दलों से सुझाव मांगे और पैकेज को संसद से मंजूरी की मुहर लगवाने के बाद घोषित किया। लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
 
जबकि हमारा संविधान साफ कहता है कि सरकार संसद की मंजूरी के बगैर सरकारी खजाने का 1 पैसा भी खर्च नहीं कर सकती। बजट और वित्त विधेयक के पारित होने से सरकार को यह मंजूरी मिलती है। इसलिए अभी कोई नहीं जानता, यहां तक कि शायद कैबिनेट भी नहीं कि 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज में से जो 2 लाख करोड़ रुपए वास्तविक राहत के रूप में तात्कालिक तौर खर्च हुए हैं, वे 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय प्रावधानों के अतिरिक्त हैं अथवा उसके लिए अन्य मदों के खर्चों में कटौती की गई है?
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अभूतपूर्व वैश्विक मानवीय आपदा और 2 पड़ोसी देशों- चीन और नेपाल के साथ सीमा पर बेहद तनावपूर्ण हालात के मद्देनजर अपेक्षा की जा रही थी कि सरकार संवैधानिक प्रावधान या तकनीकी पेंच का सहारा नहीं लेगी और संसद का विशेष सत्र बुलाएगी। लेकिन विशेष सत्र तो दूर, सरकार की मंशा नियमित मानसून सत्र बुलाने की भी नहीं दिख रही है। कोई कह सकता है कि फिजीकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने की जरूरत की वजह से संसद का कामकाज चल पाना संभव नहीं है। लेकिन यह दलील बेदम है, क्योंकि इसी कोरोना काल में दुनिया के तमाम देशों में सांसदों ने अपने-अपने देश की संसद में अपनी सरकारों से कामकाज का हिसाब लिया है और ले रहे हैं।
 
इतना जरूर है कि लॉकडाउन प्रोटोकॉल और फिजीकल डिस्टेंसिंग की अनिवार्यता का ध्यान रखते हुए तमाम देशों में सांसदों की सीमित मौजूदगी वाले संक्षिप्त सत्रों का या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग वाली तकनीक का सहारा लेकर 'वर्चुअल पार्लियामेंट्री सेशन' का आयोजन किया गया है। कई देशों ने संसद सत्र में सदस्यों की संख्या को सीमित रखा है तो कुछ देशों में सिर्फ संसदीय समिति की बैठकें ही हो रही हैं।
 
हमारे यहां आमतौर पर संसद का मानसून सत्र जुलाई के तीसरे सप्ताह से लेकर अगस्त के तीसरे सप्ताह तक चलता है। वैसे सत्र बुलाने को लेकर कई तरह के सुझाव विपक्षी सांसदों की ओर से राज्यसभा के सभापति और लोकसभा अध्यक्ष को मिले हैं, मगर इस बारे में कोई फैसला नहीं हुआ है। वैसे भी संविधान के मुताबिक 6 महीने में 1 बार संसद का सत्र बुलाने की बाध्यता है और यह समयसीमा सितंबर तक की है। संसद का पिछला सत्र 23 मार्च तक चला था। इस लिहाज से 23 सितंबर के पहले किसी भी समय सत्र आहूत किया जा सकता है।
 
जानकार सूत्रों के मुताबिक हालांकि यह सत्र भी संक्षिप्त ही होगा यानी 1 महीने के बजाय 2 सप्ताह का। वैसे कहने भर को ही यह सत्र 2 सप्ताह का होगा जबकि इसमें कामकाज सिर्फ 1 ही सप्ताह होगा, क्योंकि बताया जा रहा है कि दोनों सदनों की बैठकें 1 दिन छोड़कर होंगी। जिस दिन बैठक नहीं होगी, उस दिन पूरे संसद भवन को सैनिटाइज किया जाएगा।
 
जाहिर है कि यह संसद के संक्षिप्त सत्र की यह कवायद महज संवैधानिक खानापूर्ति और अध्यादेशों को विधेयक के रूप में पारित कराने की औपचारिकता पूरी करने के लिए होगी। संसद के प्रति सरकार यानी प्रधानमंत्री की उदासीनता को देखते हुए सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने भी अपनी अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों की बैठक आयोजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
 
गौरतलब है कि हमारे यहां विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 24 स्थायी संसदीय समितियां हैं जिनमें से इस समय 20 समितियों के अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं। जिन विपक्षी सांसदों ने अपनी अध्यक्षता वाली समितियों की बैठक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बुलाने की पहल की, उन्हें राज्यसभा और लोकसभा सचिवालय ने रोक दिया।
 
राज्यसभा में कांग्रेस के उपनेता आनंद शर्मा गृह मंत्रालय से संबंधित मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। पिछले दिनों वे चाहते थे कि समिति की बैठक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हो, पर राज्यसभा सचिवालय ने इसके लिए मना कर दिया है। इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय समिति के अध्यक्ष शशि थरूर ने भी अपनी समिति की बैठक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कराने की अनुमति मांगी थी, जो लोकसभा सचिवालय से नहीं मिली। दोनों सदनों के सचिवालयों की ओर से दलील दी गई कि संसदीय समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं, लिहाजा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बैठक करना नियमों के विरुद्ध है।
 
सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशभर के मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बैठकें की हैं, प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर ही दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सदस्य देशों के प्रमुखों की वर्चुअल मीटिंग हो चुकी है, चीन से टकराव के मसले पर प्रधानमंत्री विपक्षी नेताओं के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बैठक कर चुके हैं, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए मामलों की सुनवाई कर रहे हैं, देश के कैबिनेट सचिव अक्सर राज्यों के मुख्य सचिवों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग करते ही हैं, तो फिर संसदीय समिति की बैठक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए क्यों नहीं हो सकती? यह स्थिति तब है, जब प्रधानमंत्री जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के अधिक से अधिक इस्तेमाल का आग्रह करते रहते हैं।
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केंद्र की देखा-देखी राज्य सरकारें भी मनमानी कर रही हैं। मसलन, पिछले दिनों 1-1 करके 6 राज्य सरकारों ने अपने यहां श्रम कानूनों को 3 साल के लिए स्थगित करने का आनन-फानन में ऐलान कर दिया। ऐसा सिर्फ बीजेपी शासित राज्यों ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस शासित राज्यों ने भी किया। जबकि यह फैसला राज्य सरकारें नहीं कर सकतीं, क्योंकि यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में है, लिहाजा श्रम कानूनों के मामले में ऐसा कोई फैसला संसद की मंजूरी के बगैर हो ही नहीं सकता। संविधान ने संसद के बनाए कानूनों को स्थगित करने या उनमें संशोधन करने का अधिकार राज्यों को नहीं दिया है, लेकिन कोरोना संकट की आड़ में राज्य बेधड़क अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चले गए।
 
कुल मिलाकर कोरोना काल में संसद की भूमिका को पूरी तरह शून्य कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट अलग कह चुका है कि वह इस समय सरकार के कामकाज में कोई दखल देना उचित नहीं समझता। इस प्रकार भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन गया, जहां कोरोना के संकटकाल में व्यवस्था तंत्र की सारी शक्तियां सरकार ने अघोषित रूप से अपने हाथों में ले ली हैं।
 
मशहूर इसराइली इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोहा हरारी ने महज 3 महीने पहले ही अपने एक लेख के जरिए भविष्यवाणी की थी कि कोरोना महामारी के चलते दुनियाभर में लोकतंत्र सिकुड़ेगा, अधिनायकवाद बढ़ेगा और सरकारें अपने आपको सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएंगी। उनकी यह भविष्यवाणी दुनिया के किसी और देश में तो नहीं, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश भारत में जरूर हकीकत में तब्दील होती दिख रही है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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