हिजाब मामले पर उच्चतम न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ का खंडित फैसला इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि ऐसे विवादों का न्यायिक निपटारा जल्दी होना आवश्यक है। अब चूंकि यह बड़ी पीठ के पास जाने वाला है तो अंतिम फैसला आने में समय लग सकता है।
दो न्यायाधीशों में न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया जबकि न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने स्वीकार करते हुए कहा कि यह अंततः पसंद का मामला है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शिक्षालयों में हिजाब पर प्रतिबंध का निर्णय खत्म करने से इनकार करते हुए कहा था कि हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है।
इसके विरुद्ध 26 याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में आई थी। न्यायमूर्ति गुप्ता ने अपने फैसले में लिखा कि हमने 11 प्रश्न तैयार किया और उनके जवाब याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध गए हैं। उनके अनुसार इस सूची में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और अनिवार्य धार्मिक प्रथाओं के अधिकार की परिधि और गुंजाइश संबंधी सारे प्रश्न शामिल है। दूसरी ओर न्यायमूर्ति धूलिया ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के एप्रोच को गलत बताते हुए कहा कि उच्च न्यायालय को कुरान की व्याख्या की दिशा में जाना ही नहीं चाहिए था। उनके अनुसार इसमें लड़कियों की शिक्षा सबसे अहम मामला है।
इन दोनों न्यायमूर्तियों ने जिस तरह का फैसला दिया है उससे इसमें व्यापक संवैधानिक एवं मजहबी अधिकारों के प्रश्न निहित हो गए हैं। हालांकि इसके आधार पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कर्नाटक सरकार से शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक से जुड़े आदेश वापस लेने की मांग उचित नहीं मानी जा सकती। जब कोई फैसला आया नहीं तो जाहिर है कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला अभी तक लागू है। जब उच्चतम न्यायालय में अंतिम फैसला हुआ ही नहीं तो फिर उच्च न्यायालय के फैसले को अमान्य करार देने का आधार हो ही नहीं सकता।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया द्वारा इसमें धार्मिक प्रथाओं की पूरी अवधारणा को निस्तारण के लिए आवश्यक नहीं मानने के तर्क का उदाहरण देना और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता के तर्कों को खारिज कर देना बिल्कुल गलत होगा। न्यायमूर्ति गुप्ता ने स्पष्ट कहा है कि उन्होंने मौलिक अधिकार से लेकर निजी स्वतंत्रता का अधिकार, हिजाब पहनना अनिवार्य धार्मिक प्रथा है या नहीं, स्कूल में हिजाब पहनने के अधिकार की मांग छात्र कर सकते हैं या नहीं आदि सभी संबंधित प्रश्नों के जाने और सभी याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध हैं। वास्तव में न्यायमूर्ति गुप्ता ने मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद पर भी विचार किया।
मसलन क्या अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत निजता का अधिकार परस्पर अलग है या वे एक दूसरे के पूरक हैं? इनका उत्तर भी याचिकाकर्ताओं के पक्ष में नहीं गया।
वास्तव में जब कर्नाटक ने अक्टूबर 2021 में शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर पाबंदी लगाई थी तो कई प्रकार के तर्क दिए गए थे लेकिन सबसे प्रबल मजहबी अधिकार का विषय ही था। यद्यपि कानूनी और संवैधानिक पहलुओं के जानकारों ने इसे उस दृष्टि से पेचीदा बनाया पर एक बड़ा वर्ग मुसलमानों के अंदर यही धारणा बैठाने में कामयाब रहा था कि लड़कियों को शिक्षालय में हिजाब पहनने की अनुमति न देना उनके मजहबी अधिकारों को छीनना है। सच कहा जाए तो ऐसे विषय न्यायालय में जाने ही नहीं चाहिए थे। अगर कोई शिक्षण संस्थान अपने यहां ड्रेस कोड बनाता है तो जो उसे स्वीकार करेगा वह वहां अध्ययन करेगा जो नहीं करेगा वहां नहीं जाएगा।
किसी मजहब, जाति, संप्रदाय के छात्र- छात्राओं के लिए किसी शिक्षालय का ड्रेस कोड बदल दिया जाए यह खतरनाक प्रवृत्ति पैदा करेगा। आज मुस्लिम छात्राओं का मामला है, कल हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, यहूदी किसी का मामला आ सकता है। भारत जैसे विविधता वाले देश में अनेक जातियों समूहों का विषय उभर सकता है। अगर इस तरह सबको मौलिक अधिकार व निजी स्वतंत्रता आदि के दायरे में ला दिया जाए तो किसी संस्थान में अनुशासन, नियम आदि लागू हो ही नहीं सकता। कल्पना करिए फिर कैसी अराजकता की स्थिति पैदा होगी!
आज चाहे संवैधानिक अधिकारों की जितनी बात किए जाए, जितनी धाराओं का उल्लेख हम कर दें सच यही है की सामान्य ड्रेस पहनकर स्कूल आने वाली छात्राओं को निश्चित रूप से कुछ गलत इरादे वाले लोगों ने हिजाब पहना कर कॉलेज भेजा था। इसके पीछे कट्टर मजहबी मनोवृति के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता। यह साफ हो गया कि किस तरह कट्टर मजहबी तत्वों ने हिजाब को एक हथियार बनाकर कर्नाटक में अशांति पैदा करने का षड्यंत्र रचा।
इसे नजरअंदाज कर केवल संवैधानिक, कानूनी, निजी अधिकार, शिक्षा के अधिकार जैसे विषयों में उलझाया जाए तो यह सच की अनदेखी करना होगा जिसके परिणाम अच्छे नहीं हो सकते। अगर पूरे देश में मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग ने हिजाब के पक्ष में आवाज उठाई उसके पीछे कोई एक सोच है तो वह इस्लाम है। इसलिए इससे अलग करके इस मामले को नहीं देखा जा सकता।
न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा है कि छात्र अपने धार्मिक विश्वास से सेक्यूलर संस्थान में लागू नहीं कर सकते तथा ड्रेस कोड तय करने का अधिकार देने वाला सरकारी आदेश कानून का उल्लंघन नहीं है। इसके पीछे हिजाब को इस्लाम से जुड़ा हुआ बताया गया था, जबकि न केवल जस्टिस गुप्ता ने बल्कि कर्नाटक उच्च न्यालय ने स्पष्ट किया और अनेक इस्लामी विद्वान भी कहते हैं कि हिजाब कभी भी इस्लाम का अपरिहार्य नहीं रहा। न्यायमूर्ति गुप्ता का यह तर्क भी गलत नहीं है कि अगर हिजाब को आवश्यक धार्मिक प्रथा मान लिया जाए तो भी सेक्यूलर शिक्षण संस्थान में इसे पहनने के अधिकार का दावा नहीं कर सकते। सेक्यूलरवाद सभी नागरिकों पर लागू होना चाहिए। किसी एक मजहबी समुदाय को उसके मजहब के रिवाजों के अनुसार खास पहनावे की छूट देना सेक्यूलरवाद की अवधारणा के विपरीत होगा।
न्यायमूर्ति धूलिया के इस तर्क को हम खारिज नहीं कर सकते कि देश में लड़कियों की शिक्षा अहम मामला है। किंतु आखिर वही लड़कियां, जो कल तक सामान्य ड्रेस में आती थी अंततः हिजाब पहनने की जिद पर क्यों आ गई? हिजाब पहने तभी हम शिक्षा ग्रहण करें इस प्रकार की जबकि के पीछे मजहब की गलत अवधारणा के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। यह भी न भूलिए हिजाब पहनने वाली लड़कियों ने अल्लाह हो अकबर का भी नारा लगाया था।
यह देश के लिए चिंताजनक स्थिति है कि किसी शिक्षालय का एक सामान्य आदेश पूरे देश में मजहबी अधिकारों से लेकर मौलिक अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, शिक्षा के अधिकार और न जाने मानवाधिकार के किन- किन पहलुओं का विषय बन गया। इतने बड़े-बड़े वकील उच्चतम न्यायालय में हिजाब पहनने के पक्ष में खड़े हो गए जिससे लगा कि अगर लड़कियों ने हिजाब नहीं पहना तो देश पर पहाड़ टूट जायेगा। था कि लड़कियां हिजाब पहनकर नहीं आए तो उन्हें नहीं आना चाहिए था और बात खत्म हो जानी चाहिए। इतना छोटा विषय अगर संविधान की व्याख्या तक चला जाए और मजहब के शीर्ष नेताओं सहित भारत के नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार, संविधानविद सभी कूद पड़े तो मान लेना चाहिए कि समाज की सोच ज्यादा समस्या ग्रस्त हो चुकी है।
मुस्लिम समुदाय के ही कुछ तत्वों ने आम मुसलमानों में डर पैदा करने की कोशिश की है कि भाजपा सरकार मुसलमानों एवं इस्लाम के विरुद्ध काम कर रही है। यानी हिजाब विवाद पर हम झुक गए तो फिर आगे हमारे अनेक मजहबी अधिकार ऐसे ही खत्म कर दिए जाएंगे। तीन तलाक पर उच्चतम न्यायालय के फैसले तथा सं इसके विरूद्ध पारित कानून को इस्लाम के विरुद्ध बताकर लगातार दुष्प्रचार किया गया है। जाहिर है, ऐसे ही तत्वों ने जानबूझकर हिजाब को इतना बड़ा मुद्दा बनाया और आज स्थिति यह हो गई है कि काफी संख्या में लड़कियां विद्यालय नहीं आ रही। इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ हो ही नहीं सकता। अच्छा हो कि अभी भी इस की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को सुविधाएं तथा इसे यहीं समाप्त कर दें। हालांकि इसकी उम्मीद कम है पुलिस ने तो फिर माननीय उच्चतम न्यायालय ही जल्दी इसका फैसला कर दे। जो भी फैसला है उसे सभी शिरोधार्य करें। ऐसा न हो कि उच्चतम न्यायालय ने अगर अनुकूल फैसला नहीं दिया तो उसे पलटने के लिए फिर राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिश हो। Edited: By NavinRangiyal/ PR
नोट : आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्यक्त विचारों से सरोकार नहीं है।