उदयनिधि स्टालिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और युवा मामलों के मंत्री भी हैं। ऐसे शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वो ऐसा वक्तय न दें जिससे करोड़ लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हों। उदयनिधि ने सनातन धर्म की तुलना डेंगू, मलेरिया और कोरोना से करते हुए कहा कि ये कुछ ऐसी चीजें हैं, जिनका केवल विरोध नहीं किया जा सकता, बल्कि उन्हें खत्म करना जरूरी होता है।
इस बयान के विरुद्ध संपूर्ण विश्व के हिंदू समाज के भीतर आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक है। लेकिन तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति और उदयनिधि की पार्टी द्रमुक की विचारधारा तथा अतीत एवं वर्तमान को देखने पर यह निष्कर्ष सही नहीं लगेगा। उन्होंने जो कुछ बोला है वह उनकी राजनीतिक धारा की सोच है। उनके विरुद्ध मुकदमा दर्ज होने के बाद उनकी प्रतिक्रिया देखिए। उन्होंने कहा कि हम पेरियार और अन्ना के फॉलोवर हैं। मैं आज, कल और हमेशा यही कहूंगा कि द्रविड़ भूमि से सनातन धर्म को रोकने का हमारा संकल्प बिल्कुल भी कम नहीं होगा।
इसके बाद आप यह नहीं कह सकते कि वह उत्तेजना या भावावेश में बोल गए। वे जिस कार्यक्रम में बोल रहे थे उसका नाम ही था, सनातन उन्मूलन कार्यक्रम। उन्होंने इस नाम की भी प्रशंसा की और कहा- सनातन क्या है? यह समानता और सामाजिक न्याय के खिलाफ है। सनातन का अर्थ होता है- स्थायी यानी ऐसी चीज जिसे बदला नहीं जा सकता। सनातन उन्मूलन सम्मेलन में उदयनिधि स्टालिन के अलावा कई मंत्री और द्रमुक नेता शामिल हुए।
सनातन के उन्मूलन नामक शीर्षक से कार्यक्रम का आयोजन ही बताता है कि तमिलनाडु में किस तरह की विचारधारा और राजनीति को प्रश्रय दिया जा रहा है। निश्चित रूप से इसकी निंदा की जाएगी और विरोध भी होगा। द्रमुक आईएनडीआईए गठबंधन का एक मुख्य घटक है इसलिए अन्य घटक दलों से पूछा जाएगा कि आपका इस पर क्या मत है? कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों ने इस बयान से तो अपने को अलग किया लेकिन जितना प्रखर विरोध इसका होना चाहिए नहीं किया। यह राजनीतिक विवशता दुर्भाग्यपूर्ण है।
हालांकि उदयनिधि के बयान पर आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। उदयनिधि के दादा करुणानिधि के ऐसे बयान आते रहते थे। अयोध्या में श्रीराम मंदिर के विरोध में उन्होंने कहा था कि राम का जन्म प्रमाण पत्र कहां है? राम सेतु के बारे में उन्होंने कहा कि उसको किस सिविल इंजीनियर ने बनाया था? भाजपा उसका नाम बताए।
द्रमुक के नेताओं के ऐसे बयान आते हैं। 1960 दशक में द्रमुक नेता रामास्वामी नायककर ने तब मद्रास शहर में ट्रकों पर श्रीराम, सीता जी और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की झाड़ू और जूतों से पिटाई करने वाली झांकियां निकाली थी। इसके पीछे लक्ष्य था कि ब्राह्मणों व सनातनियों को भड़काओ और उनके विरुद्ध दूसरी जातियों को लामबंद करो। ब्राह्मण और शुद्र नाम लेकर द्रमुक बहुसंख्यक दलितों का समर्थन पाता है।
दरअसल, द्रमुक निकला ही हिन्दू धर्म विरोधी विचारधारा से। 1916 में टीएम नायर और पी त्यागराज चेट्टी ने द्रविड़ राजनीति की शुरुआत इस आधार पर की कि हम उत्तर भारतीय आर्यों से अलग हैं। उन्होंने जस्टिस पार्टी की स्थापना की जिसमें आई रामास्वामी पेरियार भी शामिल हुए।
अंग्रेजों ने भारत में फूट डालो राज करो की नीति के तहत लोगों की सोच बदलने के लिए इतिहास, धर्म, संस्कृति, समाजशास्त्र की पुस्तकें अपने अनुसार लिखवाईं जिसमें कहा गया कि आर्य बाहर से आए और उनका द्रविड़ों के साथ संघर्ष हुआ जो जारी है। आर्यों ने द्रविड़ों पर अपनी धर्म व्यवस्था लादने की कोशिश की। अंग्रेजों ने ही जस्टिस पार्टी की स्थापना के लिए प्रेरित किया और उसे मदद देते रहे।
अन्नादुरई भी पेरियार के साथ आए लेकिन बाद में अलग होकर उन्होंने द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम या द्रमुक की स्थापना की। पूरा आंदोलन हिंदू धर्म की मान्यताओं पर चोट कर ऐसी सोच स्थापित करने वाला था जिसके कारण तमिलनाडु के निवासियों को लगे कि वे भारत और यहां की संस्कृति या धर्म के अंग है ही नहीं। इसी कारण तमिलनाडु में अलग देश का भी आंदोलन चला।
हिंदी विरोध का सबसे तगड़ा आंदोलन तमिलनाडु में ही चला। यह बात अलग है कि तमिलनाडु के ही विवेकशील नेताओं ने इन सबका विरोध किया। उदाहरण के लिए सी राजगोपालाचारी ने भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की। उन्होंने गीता और उपनिषदों पर टीकायें लिखकर बताया कि आर्य द्रविड़ के नाम पर झूठ फैलाया जा रहा है। रामचरितमानस और रामायण के बारे में गलत बातें फैलाए जाने की काट के लिए उन्होंने गद्य में चक्रवर्ति तिरुमगन लिखा जो रामायण कथा है।
उन्होंने स्वयं और उनकी प्रेरणा से काफी लोग ऐसे लेख लिखते रहे जिससे साबित होता था कि आर्य द्रविड़ भेद भारत में या हिंदू धर्म में नहीं है और तमिल भी सनातनी हिंदू हैं। बाद के कालखंड में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी कमजोर हुई और द्रविड़ राजनीति आगे बढ़ने लगी। हिंदी के विरुद्ध 60 और 70 के दशक के आंदोलन की उग्रता और उत्तेजना के कारण तमिलनाडु की सोच में व्यापक अंतर आया और द्रविड़ दल सशक्त हुए। 1977 से आज तक द्रमुक और अन्नाद्रमुक दो पार्टियों के इर्द-गिर्द तमिलनाडु की राजनीति चल रही है।
भाजपा पहले वहां शक्तिशाली नहीं है लेकिन उसका समर्थन बढा है। दूसरे दलों को लगता है कि हिंदू धर्म पर जितना चोट करेंगे, उनकी राजनीति की धारा वहां सशक्त होगी। अन्नाद्रमुक के भाजपा के साथ होने कारण भी वे अपने इस हिंदू धर्म विरोधी, हिंदी विरोधी तेवर को आक्रामक बनाए रखती है।
जो कुछ उदयनिधि या दूसरे नेता अपनी राजनीति के लिए बोलते हैं वह सच नहीं है और उनकी अज्ञानता का भी द्योतक है। सनातन का अर्थ ठहराव या जड़ता नहीं है।
नित्य नूतन सनातन: यानी जो नित्य नूतन है वही सनातन है। जैसे सूर्य सनातन है। सुबह सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक को क्या आप जड़, स्थिर या ठहरा हुआ कहेंगे? यही तो सनातन है। दूसरे, तमिलनाडु हिंदू धर्म, सभ्यता-संस्कृति और अध्यात्म का महत्वपूर्ण केंद्र है। पूरे तमिल संगम साहित्य को उठा लीजिए हिंदू इतिहास, विचारों और कथाओं से भरे पड़े हैं। विविधता में एकता हमारी संस्कृति है लेकिन विरोधी इस एकता की बजाय विविधता को उठाकर तमिल संस्कृति को भारतीय संस्कृति से अलग साबित करते रहे हैं।
तमिल संस्कृति भारतीय संस्कृति ही थी। संत तिरुवल्लुवर की रचना तिरुक्कुरल का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यह ग्रंथ लोगों को ईश्वर में आस्था की ही बात करता है और बताता है कि पूजा पाठ के लिए संन्यासी होने की आवश्यकता नहीं, गृहस्थ होकर भी आप ऐसा कर सकते हैं। यह तो हिन्दू धर्म की ही धारा है। हिंदू धर्म की दो प्रमुख शाखाएं शैव और वैष्णव तमिलनाडु में न केवल मजबूत रहे बल्कि वहां के संतो ने अपने मार्ग का प्रसार भारत के दूसरे क्षेत्रों में भी किया।
नयनमार या नयनार संतों की लंबी परंपरा है जो भगवान शिव के भक्त थे। ऐसे 63 संतों के नाम हमारे ग्रंथो में उपलब्ध हैं। झूठ है कि सारे ब्राह्मण थे। ये समाज के सभी जातियों से आते थे। इनके रचित भजन व मंत्र संपूर्ण देश में गाये व पढ़े जाते हैं। विष्णु या नारायण की उपासना करने वाले 12 संतों, जिन्हें आलवार कहते हैं, सर्वत्र सम्मान है और इनमें निम्न जाति के भी थे। वैष्णव संप्रदाय के पंथ विशिष्टाद्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैतवाद सबका स्रोत तमिलनाडु और आसपास ही है।
विशिष्टाद्वैतवाद के संस्थापक संत रामानुजाचार्य के मानने वाले पूरे भारत में है। द्वैतवाद के संत माधवाचार्य ने जिन 37 ग्रंथों की रचना की वह संपूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसलिए आर्य और द्रविड़ भेद या तमिल संस्कृति भारतीय संस्कृति से अलग आदि विचार तथ्यों से बिल्कुल पड़े हैं।
कोई पार्टी इतनी हैसियत नहीं रखता कि हिंदू धर्म को खत्म कर दे। उदयनिधि की बातें इसलिए डराती हैं कि यह हिंदू समाज की एकता की कोशिशों के साथ भारत की एकता अखंडता पर वैचारिक चोट करने वाले हैं। लेकिन गुस्सैल प्रतिक्रिया देने की बजाय तथ्यात्मक प्रतिवाद करें। आईएनडीआईए के दलों को भी विचार करना पड़ेगा कि समाज और देश की एकता से बड़ी कोई राजनीति नहीं हो सकती।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)