नई-नई सी है तेरी रहगुजर फिर भी

सोमवार, 28 अगस्त 2023 (23:23 IST)
फिराक जयंती पर विशेष

'हजार बार जमाना इधर से गुजरा है , नई नई सी है कुछ तेरी रहगुजर फिर भी।' भोजपुरी माटी में पैदा हुए, अंग्रेजी के प्राध्यापक और उर्दू साहित्य के अमिट हस्ताक्षर रघुपति सहाय 'फिराक गोरखपुरी' की रचित ये पंक्तियां खुद उन पर बेहद सटीक बैठती हैं। उनकी निजी जिंदगी से लेकर साहित्य सेवा तक, जितनी बार फिराक को याद करिए, यादों की ताजगी कमतर नहीं होती। अपनी शर्तों पर जीने वाले फिराक जब भी रौ में आए, बड़े से बड़े ओहदेदार की भी फिक्र नहीं की, सिवाय अपने जिगरी दोस्त मुंशी प्रेमचंद के। 
 
गोरखपुर ऐतिहासिक अहमियत वाला शहर है। 20वीं सदी के शुरुआती दौर में हिंदी और उर्दू के दो कालजयी रचनाकारों की यह कर्मस्थली रही। इनमें से एक थे 'उपन्यास सम्राट' मुंशी प्रेमचंद और दूसरे थे 'शायरे शहंशाह' रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी। दोनों में खूब पटती भी थी। मुंशी जी और फिराक की भेंट कैसे हुई, यह वाकया फिराक ने खुद अपने एक संस्मरण में बताया था।

बकौल फिराक, 'गर्मी की छुट्टियों में गोरखपुर आया था। एक दिन तीसरे पहर कायस्थ बैंक की शानदार इमारत में मेरे पुराने दोस्त महाबीर प्रसाद पोद्दार मिले। बैंक के लंबे चौड़े बरामदे में  चारपाइयां और कुर्सियां पड़ी थीं। पोद्दार जी के साथ एक और साहब बैठे थे।

गोरा चिट्ठा रंग, मियाना कद, बड़ी-बड़ी आंखे, घनी-घनी मूछें, सर के बाल और मूछें सुनहरे रंग की। घुटने से कुछ ही नीचे आने वाली धोती और छोटे साइज का कुर्ता । मैं पोद्दार जी से बातें करने लगा। उन साहब की ओर मुखातिब भी न हुआ। बाद में पोद्दार जी ने बताया कि ये प्रेमचंद हैं।

यह मुलाकात गहरी दोस्ती में बदल गयी। फिर तो प्रेमचंद का घर मेरे लिए दूसरा घर हो गया था।' फिराक इस दूसरे घर पर बार-बार जाते और दोनों में राजनीति, साहित्य और समाज पर खूब तेज-तेज बहसें होतीं। प्रेमचंद ने उसी समय फिराक की प्रतिभा को पहचान लिया और 'जमाना' में छपने के उनकी नज्में भेजीं।
 
विरोधाभासों से भरी रही फिराक की निजी जिंदगी
फिराक की निजी जिदंगी विरोधाभासों से भरी थी। थे तो वह तबके पूरब के ऑक्सफोर्ड कहे जाने इलाहाबाद विश्विद्यालय में इंग्लिश के शिक्षक, पर उनकी तमाम रचनाएं उर्दू में हैं। उन्हें शायरे शहंशाह की पदवी और साहित्य एकेडमी, ज्ञानपीठ और पद्मभूषण जैसे पुरस्कार उर्दू साहित्य की वजह से ही मिले। 
 
पुश्तैनी घर लक्ष्मी निवास को मानते थे मनहूस
कहा जाता है कि फिराक अपनी शादी में भी खुश नहीं थे। गोरखपुर के तुर्कमानपुर स्थित करीब तीन एकड़ में विस्तृत अपना घर 'लक्ष्मी निवास' उनको कभी रास नहीं आया। अपने एक संस्मरण में वह लिखते हैं, 'तुर्कमानपुर मोहल्ले में मेरा आवास था। सभी जानते हैं लक्ष्मी निवास को। पिताजी जबसे इस मकान में आए, उनकी वकालत काफी कम होती गई। कई अकाल मौतें भी होती रहीं। एक ओर उनकी शायरी जोर मारती रही। दूसरी ओर शहर में कई बड़े बड़े वकील मुख्तार अपनी जगह बनाने लगे।'
 
फारसी के नामचीन शायर थे पिता गोरख सहाय
फिराक के पिता गोरख प्रसाद सहाय 'इबरत' गोरखपुर के जाने-माने वकील और फारसी के मशहूर शायर थे। उस जमाने में लक्ष्मी निवास  समय-समय पर पंडित जवाहरलाल नेहरू, अली बंधु, शिब्बन लाल सक्सेना और मुंशी प्रेमचंद जैसी हस्तियों का ठिकाना हुआ करता था। जाने-माने साहित्यकार और शहर के नामचीन रईस और साहित्यकार भी आते थे। लंबी बीमारी के बाद पिता की मौत। उनके द्वारा छोड़े गए कर्ज, भाइयों की तालीम और बहनों की शादी के लिए फिराक ने उस कोठी को महादेव प्रसाद तुलस्यान को बेच दिया था। 
 
बाद के दिनों में नाना साहब देशमुख भी इसमें रहे
महादेव प्रसाद तुलस्यान के पुत्र बाला प्रसाद तुलस्यान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से खासे प्रभावित थे। लिहाजा बाद के दिनों में उन्होंने इस कोठी को संघ को दे दिया। वर्षो तक नानाजी देशमुख यहां संघ प्रमुख के रूप में रहे। अब इसके एक हिस्से में सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल है। बाकी हिस्से में मकान और एक निजी चिकित्सालय है। 
 
जंगे आजादी में भी लिया था भाग
फिराक गोरखपुरी ने जंगे आजादी में भी भाग लिया था। नौकरी छोड़ी थी और जेल भी गए थे। वह महात्मा गांधी के मुरीद थे। जवाहर लाल नेहरू से उनके निजी रिश्ते थे। इसका उन्होंने कई जगहों पर जिक्र भी किया है। गांधीजी के बारे उन्होने कहा था, 'गांधी की टूथलेस स्माइल पर संसार न्यौछावर हो सकता है।

उनके जमाने में ईसा, कृष्ण और बुद्ध भी उनके सामने फीके पड़ गए थे।' 8 फरवरी 1921 को गोरखपुर स्थित बाले मियां के मैदान में महात्मा गांधी के भाषण से प्रभावित होकर फिराक ने डिप्टी कलेक्टर का ओहदा छोड़ा और जंगे आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। असहयोग आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार हुए और करीब डेढ़ वर्ष तक आगरा और लखनऊ के जेल में रहे। 
 
चौरीचौरा कांड के बाद हुआ गांधीजी से मोहभंग
चौरीचौरा कांड के बाद उस समय के तमाम कांग्रेसी नेताओं की तरह फिराक भी आंदोलन को एकाएक स्थगित करने के पक्ष में नहीं थे। लिहाजा उनका गांधीजी से मोहभंग हो गया। अपनी एक रचना में उन्होने लिखा भी, बंदगी से कभी नहीं मिलती,  इस तरह तो जिंदगी नहीं मिलती। लेने से तख्तो-ताज मिलते हैं, मांगने से भीख भी नहीं मिलती।
 
नेहरू से रही खासी निकटता
फिराक के पंडित जवाहर लाल नेहरू से निकट के संबंध थे। अपनी विद्वता और मंत्रमुग्ध करने वाली भाषण कला से वे पंडित नेहरू के काफी करीब हो गए। यह निकटता ताउम्र बनी रही। उनको राजनीति में लाने का श्रेय भी नेहरूजी को ही है। नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद वह इलाहाबाद चले गए। वहां नेहरू से मिलकर कांग्रेस का काम करने लगे। बाद में नेहरू ने उनको 250 रुपये माहवार पर कांग्रेस का अंडर सेक्रेटरी बना दिया। इस पद पर वह 1926 से 1927 तक रहे।

1927 में जब नेहरू अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन करने विलायत चले गए तो फिराक ने भी यह पद छोड़ दिया। पर नेहरू से उनकी नजदीकी ताउम्र बनी रही। बकौल फिराक, 'वालिद के इंतकाल के बाद बहनों की शादी और अन्य जरूरतों के लिए मुझे अपना पुश्तैनी मकान बेचना पड़ा। उन्हीं दिनों पंडित नेहरू गोरखपुर आए। नेहरूजी ने बिना कुछ कहे सब समझ लिया और उन्हें अपने साथ दिल्ली लेते गए।'
 
राजनीति में भी आजमाया हाथ, पर विफल रहे
1957 में फिराक बांसगांव से लोकसभा का चुनाव तबके कद्दावर समाजवादी नेता शिब्बन लाल सक्सेना की किसान मजदूर प्रजा पार्टी से लडे। इस चुनाव में उनकी जमानत जब्त हो गई। फिर उन्होंने राजनीति से  तौबा कर ली। साथ ही यह भी कहा, 'राजनीति उन जैसे पढ़े-लिखों का शगल नहीं।' उनके सचिव रहे रमेश द्विवेदी ने फिराक से जुड़ी अपने संस्मरणों की पुस्तक में इस चुनाव की चर्चा की है।

उनके खिलाफ हिंदू महासभा से उस समय के गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ और कांग्रेस से सिंहासन सिंह चुनाव लड़ रहे थे। गोरखपुर आकाशवाणी में दिए एक साक्षात्कार में फिराक ने खुद इस चुनाव के अनुभवों की चर्चा की थी। उन्हें सबसे बड़ा मलाल इस बात का था कि  जवाहर लाल नेहरू की कांग्रेस के खिलाफ उन्हें चुनाव लड़वा दिया गया। इसके लिए उन्होंने शिब्बन लाल सक्सेना को भी बुरा-भला कहा था। 
 
यूं होता था उनका चुनाव प्रचार
आकाशवाणी के पूर्व कार्यक्रम अधिशासी रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव 'जुगानी भाई' इस चुनाव से जुड़े रोचक किस्से बताते हैं। उनके अनुसार चुनाव प्रचार के लिए एक बस ली गई थी। यह बस नजीर भाई की थी। जो इसे भाड़े पर गोला से गोरखपुर के बीच चलाते थे। बस के आधे हिस्से में कार्यालय था। इसी से चुनाव संचालन होता था। आधे में पोस्टर बैनर और झण्डे आदि रखे जाते थे। यह बस जहां तक जाती थी फिराक साहब वहीं तक चुनाव प्रचार करते थे। फिराक के भाषण का विषय सिर्फ राजनीतिक नहीं था, सामयिक साहित्य व संस्कृति  पर भी वह धारा परवाह बोलते थे। यह उनका अंतिम चुनाव रहा।

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