चुनावी मौसम में भारतीय रक्षा नीति का एसिड टेस्ट

विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र भारत में चुनावों का महापर्व पूरे जोश पर है। निवृत्त हो रही सरकार की साख दांव पर है, तो विपक्ष के वादे। प्रबुद्ध वर्ग से तो यही अपेक्षा रहती है कि वह पिछले 5 वर्ष में सरकार के कामकाज एवं विपक्ष की भूमिका की समीक्षा करेगा और फिर अपने मत का उचित उपयोग करेगा।
 
चुनावों में मंदिर-मस्जिद, जात-पांत आदि के मुद्दे बहुत ओछे और कम समय के लिए होते हैं जिनका राष्ट्र की सभ्यता और विकास के लंबे इतिहास में कोई स्थान नहीं होता, कोई माने नहीं होते। ये मुद्दे मात्र उन लोगों के लिए होते हैं जिन्हें आसानी से बहकाया जा सकता है और ये मुद्दे समय के साथ बदलते भी जाते हैं। अत: ये प्रबुद्ध वर्ग के निर्णय को प्रभावित नहीं करते।
 
किसी भी सरकार के कामकाज के आकलन में जो 2 महत्वपूर्ण विषय/विभाग होते हैं- वे हैं रक्षा और वित्त। शेष सारे विभाग वित्त विभाग की कुशलता और प्रधानमंत्री कार्यालय की दक्षता के अनुसार अपने आप रफ्तार पकड़ते हैं इसलिए वोट देने से पहले निवृत्त हो रही सरकार की रक्षा और आर्थिक नीतियों का लेखा-जोखा अनिवार्य है। तदुपरांत ही सही निर्णय लिया जा सकता है कि वर्तमान सरकार को आगामी 5 वर्षों के लिए बने रहना चाहिए या नहीं?
 
इस आलेख में हम निवृत्त हो रही सरकार की रक्षा नीतियों की कामयाबी और असफलताओं पर चर्चा करेंगे। रक्षा नीति की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है बाहरी खतरों से देश की सीमाओं को सुरक्षित करना। जब सीमाओं की बात आती है तो निश्चित ही अपने पड़ोसी देशों की बात होगी।
 
पहले म्यांमार या बर्मा को लेते हैं। यदि आपको स्मरण हो तो जून 2015 में नगा आतंकियों ने मणिपुर के चंदेल जिले में 6 डोगरा रेजीमेंट के एक भारतीय सेना के काफिले पर हमला कर 18 भारतीय सैनिकों को मार डाला था। तब सरकार ने कठोर फैसला लेते हुए सेना को म्यांमार में घुसने की इजाजत दी और तब 10 जून को भारतीय सेना ने भारत-म्यांमार सीमा पर विद्रोही शिविरों के विरुद्ध सर्जिकल स्ट्राइक कर उन्हें ध्वस्त किया। उस सर्जिकल स्ट्राइक में 158 आतंकियों के मारे जाने की खबरें थीं। उसके बाद से नगालैंड सीमा पर शांति बनी हुई है।
 
इसके बाद आता है बांग्लादेश जिसके साथ सीमा विवाद और घुसपैठियों की समस्या से दोनों देशों के बीच वर्षों से तनाव चल रहा था। पिछले वर्षों में 2 कारणों से इस तनाव से निजात मिली। एक तो बांग्लादेश ने अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है इसलिए वहां से गरीबों का पलायन रुका है और दूसरा वर्षों से लंबित सीमा विवाद को मोदी सरकार ने शासन में आते ही प्राथमिकता देकर सुलझा दिया।
 
अब यदि उत्तर में भूटान की बात करें तो इसके साथ संबंध मजबूत ही हुए हैं, क्योंकि भूटान की जमीन पर चीन के अतिक्रमण के विरुद्ध भारतीय सेना डोकलाम में चीनी सेना के सामने दृढ़ता के साथ खड़ी हो गई थी। भारत अपने मित्र के साथ खड़ा रहा, तब दुनियाभर में भारत के इस साहसी कदम की तारीफ हुई।
 
दूसरी तरफ नेपाल की राजनीति में भी चीन लगातार अपनी दखल बनाए हुए है। वह चाहता है कि नेपाल, भारत के प्रभाव से मुक्त हो किंतु भारत भी निरंतर नेपाल की राजनीति में चीन की घुसपैठ को रोकने के प्रयत्न कर रहा है। भारत अभी तक तो कामयाब रहा है किंतु नेपाल के साथ संबंधों में जरा सी भी लापरवाही नहीं की जा सकती।
 
दक्षिण में चलें तो श्रीलंका है, जहां भी चीन की भूमिका लगातार श्रीलंका को लुभाने की रही है। एक बार तो श्रीलंका के राष्ट्रपति सिरिसेना ने निर्वाचित प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर चीन समर्थित प्रधानमंत्री राजपक्षे को प्रधानमंत्री की शपथ ही दिलवा दी थी। किंतु श्रीलंका के सुप्रीम कोर्ट और भारत के परोक्ष प्रयत्नों से अब भारत की मित्र सरकार प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे के नेतृत्व में वहां पुन: पदासीन है।
 
हिन्द महासागर के दूसरे देश मालदीव को भारत का क्षत्रप माना जाता है। यहां भी अब्दुला यामीन की सरकार थी, जो भारत के हितों के विरुद्ध चीन के साथ नज़दीकी रिश्ते बनाने लग गई थी। किंतु चुनावों में उसकी हार हुई और यहां भी अब भारत की मित्र सरकार राष्ट्रपति इब्राहीम की अगुवाई में पदस्थ है। कहते हैं कि यहां भी परोक्ष रूप से भारत का हाथ था।
 
इस तरह पिछले 5 वर्षों में भारत ने दक्षिण के इन दोनों देशों में बड़ी कूटनीतिक कामयाबियां हासिल कीं। पश्चिम के पड़ोसी देश पाकिस्तान के बारे में ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि पिछले कुछ महीनों में भारतीय सेना ने पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों को जो गहरे जख्म दिए हैं, वे अभी हरे हैं। ये वर्तमान सरकार की कठोर नीति का ही परिणाम हैं कि पाकिस्तान अभी खामोश बैठा हुआ है।
 
अब यदि वैश्विक स्थिति की बात करें तो अमेरिका और रूस के साथ भारत के सामरिक संबंधों में मजबूती आई है। जापान, इसराइल और फ्रांस के साथ अनेक महत्वपूर्ण सामरिक समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं। इस प्रकार निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि इस सरकार का कार्यकाल रक्षा क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियों वाला रहा।
 
अब अगले अंक में हम सरकार की आर्थिक मोर्चे पर उपलब्धियों और/अथवा विफलताओं की समीक्षा करेंगे।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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