3 दिसंबर : दिव्यांगों को जीवन की मुस्कान दें...

हर वर्ष 3 दिसंबर का दिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकलांग व्यक्तियों को समर्पित है। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आमसभा द्वारा 'विकलांगजनों के अंतरराष्ट्रीय वर्ष' के रूप में मनाया गया और वर्ष 1981 से 'अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस' मनाने की विधिवत शुरुआत हुई।
 
विकलांगों के प्रति सामाजिक सोच को बदलने और उनके जीवन के तौर-तरीकों को और बेहतर बनाने एवं उनके कल्याण की योजनाओं को लागू करने के लिए इस दिवस की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे न केवल सरकारें बल्कि आम जनता में भी विकलांगों के प्रति जागरूकता का माहौल बना है। समाज में उनके आत्मसम्मान, प्रतिभा विकास, शिक्षा, सेहत और अधिकारों को सुधारने के लिए और उनकी सहायता के लिए एकसाथ होने की जरूरत है।
 
विकलांगता के मुद्दे पर पूरे विश्व की समझ को नया आयाम देने एवं इनके प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण को दूर करने के लिए इस दिन का महत्वपूर्ण योगदान है। यह दिवस विकलांग लोगों के अलग-अलग मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता है और जीवन के हर क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कोई भी हो- सभी विकलांग लोगों को शामिल करने और उन्हें अपने प्रतिभा प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता है।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकलांगों को 'विकलांग' नहीं कहकर 'दिव्यांग' कहने का प्रचलन शुरू कर एक नई सोच का जन्म दिया है। हमें इस बिरादरी को 'जीवन की मुस्कराहट' देनी है, न कि 'हेय' समझना है।
 
विकलांगता एक ऐसी परिस्थिति है जिससे हम चाहकर भी पीछा नहीं छुड़ा सकते। एक आम आदमी छोटी-छोटी बातों पर झुंझला उठता है, तो जरा सोचिए उन बदकिस्मत लोगों को जिनका खुद का शरीर उनका साथ छोड़ देता है, फिर भी जीना कैसे है? कोई इनसे सीखे। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने विकलांगता को अपनी कमजोरी नहीं, बल्कि अपनी ताकत बनाया है। ऐसे लोगों ने विकलांगता को अभिशाप नहीं, वरदान साबित किया है।
 
पूरी दुनिया में 1 अरब लोग विकलांगता के शिकार हैं। अधिकांश देशों में हर 10 व्यक्तियों में से 1 व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग है। इनमें कुछ संवेदनाविहीन व्यक्ति भी हैं। 'विकलांगता' एक ऐसा शब्द है, जो किसी को भी शारीरिक, मानसिक और उसके बौद्धिक विकास में अवरोध पैदा करता है। ऐसे व्यक्तियों को समाज में अलग ही नजर से देखा जाता है।
 
यह शर्म की बात है कि हम जब भी समाज के विषय में विचार करते हैं, तो सामान्य नागरिकों के बारे में ही सोचते हैं, उनकी ही जिंदगी को हमारी जिंदगी का हिस्सा मानते हैं, इसमें हम विकलांगों को छोड़ देते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? ऐसा किस संविधान में लिखा है कि ये दुनिया केवल पूर्ण मनुष्यों के लिए ही बनी है? बाकी वे लोग, जो एक साधारण इंसान की तरह व्यवहार नहीं कर सकते, उन्हें अलग क्यों रखा जाता है? क्या इन लोगों के लिए यह दुनिया नहीं है?
 
इन विकलांगों में सबसे बड़ी बात यही होती है कि ये स्वयं को कभी लाचार नहीं मानते। वे यही चाहते हैं कि उन्हें 'अक्षम' न माना जाए। उनसे सामान्य तरह से व्यवहार किया जाए, पर क्या यह संभव है? प्रश्न यह भी है कि विकलांग लोगों को बेसहारा और अछूत क्यों समझा जाता है? उनकी भी 2 आंखें, 2 कान, 2 हाथ और 2 पैर हैं और अगर इनमें से अगर कोई अंग काम नहीं करता तो इसमें इनकी क्या गलती? यह तो सब नसीब का खेल है।
 
इंसान तो फिर भी ये कहलाएंगे, जानवर नहीं। फिर इनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव कहां तक उचित है? किसी के पास पैसे की कमी है, किसी के पास खुशियों की, किसी के पास काम की, तो अगर वैसे ही इनके शारीरिक, मानसिक, ऐन्द्रिक या बौद्धिक विकास में किसी तरह की कमी है तो क्या हुआ है? कमी तो सबमें कुछ-न-कुछ है ही, तो इन्हें अलग नजरों से क्यों देखा जाए?
 
परिपूर्ण यानी सामान्य मनुष्य समाज की यह विडंबना है कि वे अपंग एवं विकलांग लोगों को हेय की दृष्टि से देखते हैं। लेकिन विकलांग लोगों से हम मुंह नहीं चुरा सकते, क्योंकि आज भी कहीं-न-कहीं हम जैसे इन्हें हीनभावना का शिकार बना रहे हैं, उनकी कमजोरी का मजाक उड़ाकर उन्हें और कमजोर बना रहे हैं। उन्हें दया से देखने के बजाय उनकी मदद करें। आखिर उन्हें भी जीने का पूरा हक है और यह तभी मुमकिन है, जब आम आदमी इन्हें आम बनने दें।
 
जीवन में सदा अनुकूलता ही रहेगी, यह मानकर नहीं चलना चाहिए। परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं और आदमी को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कहते हैं, 'जब सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं तो भगवान एक खिड़की खोल देता है, लेकिन अक्सर हम बंद हुए दरवाजे की ओर इतनी देर तक देखते रह जाते हैं कि खुली हुई खिड़की की ओर हमारी दृष्टि भी नहीं जाती।'
 
ऐसी परिस्थिति में जो अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से असंभव को संभव बना देते हैं, वे अमर हो जाते हैं। दृढ़ संकल्प वह महान शक्ति है, जो मानव की आंतरिक शक्तियों को विकसित कर प्रगति पथ पर सफलता की इबारत लिखती है। मनुष्य के मजबूत इरादे दृष्टिदोष, मूक तथा बधिरता को भी परास्त कर देते हैं।
 
अनगिनत लोगों की प्रेरणास्रोत, नारी जाति का गौरव मिस हेलेन केलर शरीर से अपंग थी, पर मन से समर्थ महिला थीं। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति ने दृष्टिबाधिता, मूक तथा बधिरता को पराजित कर नई प्रेरणा शक्ति को जन्म दिया। सुलीवान उनकी शिक्षिका ही नहीं, वरन् जीवनसंगिनी जैसे थीं। उनकी सहायता से ही हेलेन केलर ने टॉल्स्टाय, कार्ल मार्क्स, नीत्शे, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी और अरस्तू जैसे विचारकों के साहित्य को पढ़ा।
 
हेलेन केलर ने ब्रेल लिपि में कई पुस्तकों का अनुवाद किया और मौलिक ग्रंथ भी लिखे। उनके द्वारा लिखित आत्मकथा 'मेरी जीवन कहानी' संसार की 50 भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है। अल्प आयु में ही पिता की मृत्यु हो जाने पर प्रसिद्ध विचारक मार्क ट्वेन ने कहा कि 'केलर मेरी इच्छा है कि तुम्हारी पढ़ाई के लिए अपने मित्रों से कुछ धन एकत्रित करूं।' लेकिन इससे केलर के स्वाभिमान को धक्का लगा। सहज होते हुए मृदुल स्वर में उन्होंने मार्क ट्वेन से कहा कि 'यदि आप चंदा करना चाहते हैं तो मुझ जैसे विकलांग बच्चों के लिए कीजिए, मेरे लिए नहीं।'
 
एक बार हेलेन केलर ने एक चाय पार्टी का आयोजन रखा और वहां उपस्थित लोगों को उन्होंने विकलांग लोगों की मदद की बात समझाई। चंद मिनटों में ही हजारों डॉलर सेवा के लिए एकत्र हो गए। हेलेन केलर इस धन को लेकर साहित्यकार-विचारक मार्क ट्वेन के पास गईं और कहा कि इस धन को भी आप सहायता कोष में जमा कर लीजिए। इतना सुनते ही मार्क ट्वेन के मुख से निकला, 'संसार का अद्भुत आश्चर्य! ये कहना अतिशयोक्ति न होगा कि हेलेन केलर संसार का महानतम आश्चर्य हैं सचमुच!'
 
सचमुच हेलेन केलर 19वीं शताब्दी की सबसे दिलचस्प महिला हैं। वे पूरे विश्व में 6 बार घूमीं और विकलांग व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण वातावरण का निर्माण किया। उन्होंने करोड़ों रुपए की धनराशि एकत्र करके विकलांगों के लिए अनेक संस्थानों का निर्माण करवाया। दान की राशि का 1 रुपया भी वे अपने लिए खर्च नहीं करती थीं। हेलेन केलर की तरह ही ऐसे अनेक विकलांग व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने विकलांगता को अपने जीवन निर्माण एवं विकास की बाधा नहीं बनने दिया।
 
स्टीफन हॉकिंग का नाम भी दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम है। चाहे वह कोई स्कूल का छात्र हो या फिर वैज्ञानिक- सभी इन्हें जानते हैं। उन्हें जानने का केवल एक ही कारण है कि वे विकलांग होते हुए भी आइंस्टीन की तरह अपने व्यक्तित्व और वैज्ञानिक शोध के कारण हमेशा चर्चा में रहे।
 
विज्ञान ने आज भले ही बहुत उन्नति कर ली हो, लगभग सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली हो किंतु वे अभी भी सबसे खतरनाक शत्रु पर विजय पाने में असमर्थ हैं, वह शत्रु है मनुष्य की उदासीनता। विकलांग लोगों के प्रति जन-साधारण की उदासीनता मानवता पर एक कलंक है।
 
हेलेन केलर का कहना था- 'हमें सच्ची खुशी तब तक नहीं मिल सकती, जब तक कि हम दूसरों की जिंदगी को खुशगवार बनाने की कोशिश नहीं करते।' 

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