इसराइल की ऐतिहासिक यात्रा के निहितार्थ

अवधेश कुमार
अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इसराइल यात्रा के दौरान हुए सात समझौतों के आधार पर मूल्यांकन करें, तो फिर वैसे सारे विश्लेषण कमजोर पड़ जाएंगे जो इस यात्रा के साथ लगातार सनसनाहट पैदा करने की कोशिश कर रहे थे। यह सातों समझौते विकास से संबंधित हैं। मसलन, तकनीकी अन्वेषण और उद्योग के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास के लिए 4 करोड़ डॉलर का एक कोष बनाया जाना, भारत में जल संरक्षण, भारत के राज्यों में पानी की जरूरतों को पूरा करने तथा गंगा सफाई के लिए समझौता, भारत-इसराइल विकास निगम की कृषि के लिए 3 साल के कार्यक्रम (2018-2020) की घोषणा, नाभिकीय घड़ी के लिए सहयोग तथा छोटे उपग्रहों को बिजली देने आदि पर सहमति। इनसे कोई क्या निष्कर्ष निकालेगा? हालांकि इन समझौतों का महत्व कम नहीं है। इजरायल ने रेगिस्तान के बीच कम पानी में उन्नत खेती, समुद्र के खारा पानी से खेती तथा पानी को शुद्ध कर पीने योग्य बनाने, नाभिकीय विज्ञान आदि के क्षेत्र में जो उच्चतम प्रगति की है उसका भारत को व्यापक लाभ मिल सकता है। किंतु 70 साल में किसी प्रधानमंत्री की यात्रा केवल इन सहयोगों पर हस्ताक्षर के लिए ही हुई हो, ऐसा तो नहीं माना जा सकता। वास्तव में इस यात्रा के महत्व व्यापक हैं। केवल पाकिस्तान और अरब ही नहीं, पूरी दुनिया की इस यात्रा पर गहरी नजर यूं ही नहीं थी। 
 
एक देश, जिसको भारत ने अपनी आजादी के तीन साल बाद यानी 1950 में ही मान्यता दे दी, लेकिन जिसके साथ राजनयिक संबंध विकसित करने से हिचकता रहा। इस सच्चाई के विपरीत कि बिना राजनयिक संबंध के उससे व्यापक स्तर पर सहयोग और सहकार विकसित हो चुका था। आखिर भारत से रक्षा संबंध तो 5 दशक से भी ज्यादा पुराना है। 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा राजनयिक संबंध स्थापित करने का साहसी कदम उठाने के बावजूद 25 वर्षों तक किसी प्रधानमंत्री ने वहां जाने की जहमत नहीं उठाई। हालांकि दूसरे मंत्री और नेता गए लेकिन संतुलन बनाने के लिए उन्होंने फिलिस्तीन का भी दौरा किया। यहां तक कि जब 2015 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज गईं, तो उन्होंने भी फिलिस्तीन एवं जोर्डन की यात्रा की। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी अपनी यात्रा में यही किया। इसमें यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहां जाने तथा संबंधों को खुलकर स्वीकार करने का साहस दिखाया, तो इसे सामान्य यात्रा कैसे कहेंगे। ध्यान रखिए, प्रधानमंत्री मोदी ने संतुलन बनाने की जो परंपरा थी उसे तोड़ दिया है। इस मायने में भी इसे पश्चिम एशिया की नीति में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक बदलाव माना जा रहा है। सच कहा जाए तो यदि मोदी संतुलन की लीक पर चलते तो जो संदेश वो स्वयं इजरायल को और दुनिया को देना चाहते थे वो नहीं दे पाते। हमारे देश में परंपरागत विदेश नीति के समर्थक भले उसकी प्रशंसा करते, लेकिन उसका संदेश उतना मुखर नहीं जाता जितना अब गया है। 
 
स्वयं इसराइल ने मोदी की यात्रा को जितना महत्व दिया, उसे देखते हुए इतना तो स्वीकार करना होगा कि किस शिद्दत से उसके नेताओं को किसी भारतीय प्रधानमंत्री के आगमन का इंतजार था। इसराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने कहा भी कि हमने इसके लिए 70 वर्ष इंतजार किया। जिस तरह का अभूतपूर्व स्वागत प्रधानमंत्री मोदी का इसराइल में हुआ वैसा सामान्यतः नेता की यात्रा में नहीं होता। 4 जुलाई को इसराइल पहुंचने से लेकर 6 जुलाई को प्रस्थानगी तक बेंजामिन नेतान्याहू लगातार प्रधानमंत्री के साथ रहे। केवल राष्ट्रपति रेवलिन से मुलाकात के समय वे उपस्थित नहीं थे। प्रधानमंत्री के तेल अबीब हवाई अड्डे पर उतरने के साथ नेतान्याहू अपने मंत्रिमंडल के ज्यादातर साथियों के साथ उपस्थित थे। इसराइल की ओर से पहले ही कह दिया गया था कि मोदी के साथ अभूतपूर्व व्यवहार होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति वहां आते हैं उससे भी यह व्यवहार थोड़ा आगे बढ़ गया। यह सब केवल दिखावटी नहीं हो सकता। मोदी का हवाई अड्डे पर स्वागत के लिए प्रोटोकॉल के हिंसाब से किसी एक मंत्री या अधिकारी को भेजा जा सकता था। उसी तरह नेतान्याहू का हर समय साये की तरह साथ रहना भी अपरिहार्य नहीं था। राजनय में हाव-भाव और व्यवहार से बहुत कुछ संदेश निकलता है। बेजामिन ने जब हिन्दी में कहा कि आपका स्वागत है मेरे दोस्त तो साफ लगा कि उनके दिल से यह बात निकल रही है। दोनों जितनी बार गले मिले शायद वह भी एक रिकॉर्ड हो जाएगा।
 
कहने का तात्पर्य यह कि इस ऐतिहासिक यात्रा में क्या समझौते हुए, ये ज्यादा मायने नहीं रखते, मायने इसके हैं कि इसराइल ने हमें कैसे लिया तथा भविष्य के लिए इसमें क्या संकेत छिपे हैं। प्रधानमंत्री ने नेतान्याहू को भारत आने का निमंत्रण दिया और उन्होंने स्वीकार लिया है। उस दौरान संबंधों की प्रकृति के स्वर कहीं ज्यादा मुखर होंगे। वैसे समझौते के बाद साझा पत्रकार वार्ता के दौरान दोनों देशों ने स्वयं को जिस तरह आतंकवाद से पीड़ित बताया और उसमें सहयोग की बात की उसके संदेश तीर की भांति चारों ओर गए हैं। मोदी ने कहा कि नेतन्याहू के साथ बातचीत में आतंकवाद की रोकथाम और अपने रणनीतिक हितों के संरक्षण के लिए साथ मिलकर अधिक विस्तार से काम करने की भी सहमति बनी है। नेतन्याहू ने कहा कि भारत आतंकवादी संगठनों द्वारा हिंसा और नफरत से सीधे तौर पर पीड़ित है और यही हाल इसराइल का भी है। अगर संयुक्त बयान पर नजर दौड़ाइए तो उसमें साफ कहा गया है कि दोनों नेताओं ने माना कि आतंकवाद वैश्विक शांति और स्थायित्व के लिए बड़ा खतरा है तथा उसके सभी रूपों और अभिव्यक्तियों से लड़ने के लिये अपनी मजबूत प्रतिबद्धता पर जोर दिया। किसी भी आधार पर आतंकी कृत्य को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। बयान में कहा गया कि नेताओं ने जोर दिया कि आतंकवादियों, आतंकी संगठनों, उनके नेटवर्कों और उन सभी के खिलाफ जो उन्हें बढ़ावा, समर्थन, आर्थिक मदद और पनाह देते हैं पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। भारत कंप्रिहेन्सिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म (सीसीआईटी) को संयुक्त राष्ट्रसंघ में जल्द पारित कराने के लिए अभियान चला रहा है और संयुक्त वक्तव्य में इसके प्रति प्रतिबद्धता जताई गई है।   
 
इसका अपने-अपने अनुसार विभिन्न अर्थ लगाए जा सकते हैं। इसराइल पर जो हमला होता है उसे कुछ लोग उसी तरह आजादी का संघर्ष मानते हैं जैसा कश्मीर में आतंकवाद को। मोदी की यात्रा से इस स्थिति को नकारा गया है। इसे कुछ लोग भारत की विदेश नीति में बहुत बड़ा बदलाव कह सकते हैं। शायद कुछ लोग हमास की ओर इशारा करें। संयुक्त वक्तव्य में न फिलिस्तीन की चर्चा है न हमास की। जो लोग इसराइल के साथ संबंधों को फिलिस्तीन से जोड़कर देखने के समर्थक हैं उन्हें इससे निराशा हो सकती है, किंतु बदली हुई दुनिया की स्थिति को गौर करिए तो इसमें निराशा की कोई बात नहीं है। आतंकवाद इस समय समूची दुनिया के लिए चिंता का विषय है और इसके किसी रुप में स्वीकृति हमारे लिए भी खतरनाक हो सकती है। 
 
एक समय था जब हथियारबंद लड़ाई को एक वर्ग दुनिया भर में महिमामंडित करता था। अब आतंकवादियों ने दुनिया की सोच को इस विषय में बदल दिया है और यह सही भी है। वैसे यह मानना गलत होगा कि भारत ने इस यात्रा से फिलिस्तीन के मुद्दे को दफन कर दिया है। ऐसा करना होता तो भारत फिलिस्तीन या फिलिस्तीनी प्राधिकरण जो भी कहिए, के राष्ट्रपति मेहमूद अब्बासी को आमंत्रित कर अपने यहां बुलाया नहीं होता। पिछले मई में वे भारत आए थे और उनका एक राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर पूरा सम्मान किया गया। मेहमूद अब्बासी ने स्वयं स्वीकार किया कि उन्हें पता है कि भारत के इसराइल से भी संबंध हैं। उन्होंने भारत से दोनों देशों के बीच समाधान कराने का आग्रह भी किया। कहने का तात्पर्य यह कि फिलिस्तीन को भी भारत इजरायल संबंधों का पता है। दूसरे, प्रधानमंत्री मोदी ने कई अरब देशों की यात्रा करने तथा अरब नेताओं की भारत में आवभगत करने के बाद इजरायल की यात्रा की है। इसका एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि उन्हें कुछ अरब देशों का विश्वास प्राप्त है और भविष्य में संभव है भारत फिलिस्तीन एवं इसराइल के बीच मध्यस्थता करके कोई शांतिपूर्ण समाधान निकाले। ऐसा हुआ तो फिर मोदी की यह यात्रा इतिहास के पन्नों में स्थायी रुप से दर्ज हो जाएगी। 
 
दो देशों के बीच संबंधों के पीछे वैसे तो दोनों के अपने राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होते हैं। लेकिन इसके परे यदि दोनों उसे कुछ मानवीय सिद्धांतों पर आधारित कर दें तो यह सोने में सुगंध वाली बात हो जाती है। मोदी ने कहा कि  हमारा लक्ष्य ऐसे रिश्ते बनाने का है जिसमें हमारी साझा प्राथमिकताएं परिलक्षित हों और हमारे लोगों के बीच स्थायी संबंध बनें। नेतान्याहू ने इसे स्वीकार किया और गरीब देशों खासकर अफ्रिकी देशों के विकास के लिए मिलकर काम करने का वायदा किया। इस दिशा में कितना किया जाएगा यह अलग बात है, पर इसके द्वारा भारत इसराइल संबंधों को एक आदर्श का आधार देने की भी कोशिश हुई है। इसकी प्रशंसा होनी चाहिए। वैसे भी भारत कमजोर देशों की आवाज माना जाता रहा है। अगर इजरायल के साथ मिलकर अफ्रिकी देशों के लिए कुछ किया जा सका तो यह उस आवाज को साकार करना ही होगा।
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