केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कार्यभार संभालने के साथ जिस तरह जम्मू-कश्मीर पर ध्यान केंद्रित किया है उससे साफ है कि केंद्र सरकार के मुख्य फोकस में यह राज्य है। वस्तुत: भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में जम्मू-कश्मीर के संबंध में कई घोषणाएं की हैं।
पाकिस्तान में घुसकर हवाई कार्रवाई के बाद वैसे भी आम भारतीय की उम्मीदें सरकार से बढ़ गई हैं। आम भारतीय यह मानकर चल रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में इस बार जम्मू-कश्मीर में स्थायी शांति बहाल हो जाएगी।
कश्मीर में स्थायी शांति के आयाम काफी व्यापक हैं। इसमें आतंकवादियों, उनके प्रायोजकों और समर्थकों, अलगाववादियों, मजहबी कट्टरपंथियों आदि के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई के साथ अब तक वहां शासन करने वाली पार्टियों के दोहरे चेहरे को जनता के सामने उजागर करने तथा जम्मू-कश्मीर के अंदर राजनीतिक-प्रशासनिक असंतुलन को खत्म करना आदि शामिल हैं।
गृहमंत्री का पद संभालने के कुछ ही घंटों के अंदर उन्होंने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मलिक के साथ पूरी स्थिति पर बातचीत की। उसके बाद से बैठकों का सिलसिला चलता रहा। एक बैठक में तो विदेश मंत्री एस. जयशंकर, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण, तेल एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान तक शामिल थे। इसके संकेतों को समझें तो जम्मू-कश्मीर में समग्रता में कदम उठाया जा रहा है। आखिर इसका विदेशी आयाम भी है और वित्तीय भी।
सुरक्षा अधिकारियों के साथ उन्होंने अलग से बातचीत की। सुरक्षा अधिकारियों के साथ बैठक के बाद श्री अमरनाथ यात्रा को सुरक्षित और व्यवस्थित करने की योजना को अंतिम रूप मिला, साथ ही शीर्ष 10 आतंकवादियों की सूची तैयार हुई जिन पर फोकस ऑपरेशन शुरू हो गया है। इसमें हिज्बुल मुजाहिदीन का उच्चतम कमांडर रियाज अहमद नायकू रियाज नायकू शामिल है। आतंकवाद को इस्लामी राज स्थापना का लक्ष्य घोषित करने वाले जाकिर मूसा सहित 103 आतंकवादी मारे जा चुके हैं।
अमित शाह के नेतृत्व में इससे आगे का ही कार्य होना है। उनकी सक्रियता को लेकर कश्मीर घाटी में गलतफहमी भी फैलाने की कोशिश हुई है। इन सब बैठकों के बीच राज्य के विधानसभा सीटों के परिसीमन का मुद्दा भी सामने आ गया। इस पर किसी तरह का अधिकृत बयान हमारे पास नहीं है। पर अगर बैठक में बातचीत नहीं हुई होती तो यह खबर बाहर नहीं आती।
कहा जा रहा है कि शाह ने गृह सचिव राजीव गौबा और कश्मीर मामलों के अतिरिक्त सचिव ज्ञानेश कुमार के साथ परिसीमन पर विचार-विमर्श किया। इस पर आगे बढ़ा जाएगा या नहीं? कहना मुश्किल है। जम्मू और लद्दाख के लोगों की पुरानी मांग है कि हमारे साथ प्रतिनिधित्व में असमानता है जिसे दूर किया जाना चाहिए। इसलिए ऐसा हो तो स्वागत किया जाएगा।
अगर चुनाव आयोग को वर्ष के अंत तक विधानसभा चुनाव कराने की हरी झंडी मिली है और परिसीमन करना है तो उससे पहले कर लेना होगा। परिसीमन की चर्चा के साथ ही नेशनल कॉन्फ्रेंस एवं पीडीपी दोनों के विरोधी स्वर सामने आ गए हैं। महबूबा मुफ्ती ने तो इसको जम्मू-कश्मीर का सांप्रदायिककरण करार दे दिया तो उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया कि परिसीमन पर रोक 2026 तक पूरे देश में लागू है। यह केवल जम्मू-कश्मीर के संबंध में रोक नहीं है। उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि अगर ऐसा हुआ तो वे इसका कड़ा विरोध करेंगे।
निस्संदेह यदि परिसीमन का फैसला होता है तो इनके साथ अलगाववादी ताकतें भी विरोध करेंगी। ईद के दिन घाटी में काफी समय बाद जिस तरह की पत्थरबाजी की गई, संभव है उसके पीछे ऐसी ही ताकते हों, जो वहां किसी तरह का बदलाव नहीं चाहतीं। वर्तमान परिसीमन के तहत ही तो घाटी का वर्चस्व है।
जम्मू-कश्मीर में आखिरी बार 1995 में परिसीमन हुआ था। स्वयं राज्य के संविधान के अनुसार हर 10 साल के बाद विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन किया जाना चाहिए। 1995 में राज्यपाल जगमोहन के आदेश पर 87 सीटों का गठन किया गया। विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं, लेकिन 24 सीटों को रिक्त रखा गया है।
संविधान की धारा 47 के मुताबिक इन 24 सीटों को पाक अधिकृत कश्मीर के लिए खाली छोड़ गया है, शेष 87 सीटों पर चुनाव होता है। कायदे से विधानसभा क्षेत्रों का 2005 में परिसीमन किया जाना चाहिए था लेकिन फारुख अब्दुल्ला सरकार ने इसके पूर्व 2002 में ही जम्मू-कश्मीर जनप्रतिनिधित्व कानून 1957 और जम्मू-कश्मीर के संविधान में बदलाव करते हुए इस पर 2026 तक के लिए रोक लगा दी।
जरा यहां की भौगोलिक स्थिति को समझिए। जम्मू संभाग 26,200 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है यानी राज्य का 25.93 फीसदी क्षेत्रफल जम्मू संभाग के अंतर्गत आता है। यहां विधानसभा की कुल 37 सीटें हैं। कुल क्षेत्र का 58.33 प्रतिशत लद्दाख संभाग में है लेकिन यहां विधानसभा की केवल 4 ही सीटें हैं। इसके समानांतर कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल 15.7 प्रतिशत यानी 15,900 वर्ग किलोमीटर है और यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं।
कश्मीर संभाग के लोग कहते हैं कि उनकी जनसंख्या ज्यादा है, मसलन 2011 की जनगणना के मुताबिक जम्मू संभाग की आबादी 53,78,538 है, जो राज्य की कुल आबादी का 42.89 प्रतिशत है। कश्मीर की आबादी 68,88,475 है, जो राज्य की आबादी का 54.93 प्रतिशत है। कश्मीर घाटी की कुल आबादी में 96.4 प्रतिशत मुस्लिम हैं। जम्मू संभाग की कुल आबादी में डोगरा समुदाय की आबादी 62.55 प्रतिशत है। लद्दाख की आबादी 2,74,289 है। इसमें 46.40 प्रतिशत मुस्लिम, 12.11 प्रतिशत हिन्दू और 39.67 प्रतिशत बौद्ध हैं।
सवाल है कि विधानसभा क्षेत्रों का निर्धारण केवल आबादी के हिसाब से होना चाहिए या भौगोलिक क्षेत्रफल के अनुसार? दोनों के ही बीच संतुलन होना चाहिए। कश्मीर में 349 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर 1 विधानसभा है, जबकि जम्मू में 710 वर्ग किलोमीटर पर।
परिसीमन के लिए सामान्यत: 5 पहलुओं को आधार बनाया जाता है- क्षेत्रफल, जनसंख्या, क्षेत्र की प्रकृति, संचार सुविधा तथा इससे मिलते-जुलते अन्य कारण। जम्मू-कश्मीर में इनका ध्यान नहीं रखा गया है। जम्मू और लद्दाख को देखें तो क्षेत्रफल अधिक होने के साथ ही भौगोलिक स्थिति भी विषम है। संचार सुविधाओं की भी समस्या है। कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर का क्षेत्र निर्धारण असंतुलित है और इसे दूर करना अपरिहार्य है।
दूसरे, यहां अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय के आरक्षण में भी विसंगति है। जम्मू संभाग में अनुसूचित जाति के लिए 7 सीटें आरक्षित हैं लेकिन उनका भी रोटेशन नहीं हुआ है। घाटी की किसी भी सीट पर आरक्षण नहीं है जबकि यहां 11 प्रतिशत गुज्जर-बक्करवाल और गद्दी जनजाति समुदाय के लोग रहते हैं।
अगर देश के लिए निर्धारित कसौटियों पर परिसीमन हुआ तो फिर पूरा राजनीतिक वर्णक्रम बदल जाएगा। जम्मू संभाग के हिस्से ज्यादा सीटें आएंगी और लद्दाख की सीटें भी बढ़ेंगी। कश्मीर की सीटें घट जाएंगी तो कश्मीर घाटी की बदौलत अभी तक राज करने वाली दोनों मुख्य पार्टियों के लिए समस्या खड़ी होगी इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक है। देश के अन्य राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अंतर है। किसी दूसरे राज्य में ऐसा असंतुलन नहीं है।
जम्मू-कश्मीर को भारत के सभी राज्यों की तरह समान धरातल पर लाना है तो वहां की राजनीतिक, प्रशासनिक, सुरक्षात्मक और सबसे बढ़कर संवैधानिक स्थितियों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। परिसीमन तो इसमें से एक कदम होगा।
यह सही है कि पैंथर्स पार्टी की ओर से भीम सिंह द्वारा इसके विरुद्ध दायर याचिका पर जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय तथा बाद में 2011 में उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने भी परिसीमन के पक्ष में फैसला नहीं दिया, लेकिन कई बार न्यायालय भी अपने फैसले बदलता है। सरकार चाहे तो इस दिशा में भी कदम उठा सकती है। तो देखते हैं क्या होता है?
बहरहाल, मोदी सरकार की पिछले 7-8 महीने की जम्मू-कश्मीर नीति को एकसाथ मिला दें तो साफ हो जाएगा कि सुनियोजित तरीके से सभी मामलों पर कदम उठाए जा रहे हैं। ऑपरेशन ऑलआउट के तहत आतंकवादियों के खात्मे में तेजी, आतंकवाद के वित्तपोषण के अपराध में अलगाववादी नेताओें की एनआईए द्वारा गिरफ्तारी आदि।
जिस समय अमित शाह बैठकें कर रहे थे उसी समय न्यायालय ने शब्बीर शाह, आसिया अंद्राबी और मसर्रत आलम को एनआईए के हिरासत में दे दिया। जमायत-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध एवं उनके प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करना, घाटी में एकसाथ 112 कंपनी सुरक्षा बलों को उतारना, संदिग्धों के घर की तलाशी, हुर्रियत एवं उनके समर्थकों की सुरक्षा वापसी, प्रमुख हुर्रियत नेताओं के यहां छापा, अब आतंकवादियों की हिटलिस्ट बनाकर उनके खिलाफ केंद्रित ऑपरेशन और अब परिसीमन की चर्चा!
इसके साथ आर्टिकल 35 ए हटाने की घोषणा सरकार कर चुकी है। यह राष्ट्रपति के आदेश से कभी भी हो सकता है। पाकिस्तान को यह बताया जा ही चुका है कि अगर आपने आतंकवादी हमले कराए तो फिर आपके घर में घुसकर हम मारेंगे। इस तरह जम्मू-कश्मीर में भी भारत के अनुकूल बदलाव का नया दौर चल रहा है जिसमें लक्ष्य भी साफ है, सुसंगति भी है और संकल्पबद्धता भी।
उम्मीद करनी चाहिए कि 'नरेन्द्र मोदी सरकार-2' इन सबको तार्किक परिणति तक ले जाएगी। यह सब जम्मू-कश्मीर के लिए इतिहास निर्माण जैसा होगा और यहां से एक 'नए अध्याय' की होगी शुरुआत।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)