एक व्यक्ति को खलनायक बनाने का अभियान मानवता विरोधी है

माना जाता है कि आपदा बड़े से बड़े निष्ठुर ह्रदय वालों के अंदर भी मानवीय संवेदना पैदा कर देती है। प्रायः संकट के समय घोर शत्रु भी द्रवित होकर मानवीय भूमिका निभाने लगते हैं। भारत में बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, नेताओं, एनजीओवादियों, एक्टिविस्टों का एक समूह ऐसा है जिनका हृदय कोरोना महाआपदा में भी नहीं पिघला। 
 
आप अगर सोशल मीडिया पर लगातार नजर रख रहे हैं तो इन सबकी गतिविधियां तीन बिंदुओं तक सीमित हैं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सारे संकट का महाखलनायक साबित करना, स्वयं को आपदा में बिना स्वार्थ के 24 घंटे सबकी यथासंभव सहायता, सहयोग और मदद करने वाला बताना और विपक्ष की कुछ सरकारों व नेताओं का समर्थन करना। कोरोना के वर्तमान प्रकोप का सामना करने में भारत की संपूर्ण व्यवस्था कमजोर पड़ी है। इस दयनीय अवस्था को कोई नकार नहीं सकता। इसमें प्रधानमंत्री सहित उनकी सरकार की जितनी जिम्मेवारी है उसकी आलोचना निश्चित रूप से होनी चाहिए।

ठोस तथ्यों और तर्कों से की गई ऐसी आलोचनाएं अपना प्रभाव दिखाती हैं तथा सरकारें इसके अनुसार कदम उठाने को भी विवश होती है। किंतु आप सारी समस्याओं के लिए प्रधानमंत्री मोदी को ही दोषी साबित करेंगे तो न इससे सरकार पर कोई असर होगा न उनके समर्थक इससे प्रभावित होंगे और न ही कोई सार्थक उद्देश्य हासिल हो सकता है। वैचारिक घृणा में की गई जा रही बेसिर पैर की आलोचनाएं, निंदा आदि स्वभाविक ही जनसमूह पर प्रभाव डालने में विफल होती हैं। 
 
वास्तव में संकट काल में जब एकजुट खड़ा होना चाहिए, आमजन की हौसला अफजाई करनी चाहिए, स्वयं सुरक्षित रहते हुए दूसरे को सुरक्षित करने तथा जो संक्रमण या किसी अन्य कारणों से पीड़ित हैं उनकी सहायता करने के लिए आगे आना चाहिए उस समय भी ये कुत्सित राजनीति से बाज नहीं आ रहे। जिस तरह ये लोग स्वयं को मसीहा साबित कर रहे हैं, उसका सच भी वही नहीं है जो इनकी सोशल मीडिया अभिव्यक्तियों में दिखता है। 
 
उदाहरण के लिए इस अभियान की एक प्रमुख झंडाबरदार महिला सोशल मीडिया पर बता रही हैं कि उनके यहां लगातार लोगों के मैसेज, फोन आदि आ रहे हैं और वो ज्यादा से ज्यादा लोगों की मदद कर रही हैं। एक मित्र ने इसके परीक्षण के लिए उनको फोन किया। उनके साथ आधा घंटा से ज्यादा समय तक फोन पर बात होती रही। इस बीच कोई फोन नहीं आया न उन्होंने स्वयं कहा कि मैसेज आ रहे हैं जरा एक बार देख लेती हूं, इमरजेंसी हो सकती है या ऐसा कोई संकेत उधर से नहीं आया कि वाकई वो सहायता करने में व्यस्त हैं।

स्वयं के द्वारा जांचा गया यह एक उदाहरण बताने के लिए पर्याप्त है कि ये किस तरह लोगों की सहायता और सेवा का ढोंग कर रहे हैं। इस महाआपदा के काल में हजारों लोग, जिनमें पत्रकार, बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट, राजनेता, साधु-संत, मौलवी, उलेमा, पादरी, किसान, मजदूर, शिक्षक, नौकरशाह आदि सब शामिल है अनेक प्रकार से संक्रमित मरीज, उनके परिवार तथा उनसे प्रभावित होने वाले लोगों की जो भी संभव है सेवा-सहायता कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर सोशल मीडिया पर दिखावा नहीं करते। हां सोशल मीडिया का सेवा-सहायता के लिए उपयोग कर रहे हैं। अगर आप उनको फोन करेंगे तो थोड़ी देर में ही पता चल जाएगा कि वाकई उनके पास दूसरे फोन आ रहे हैं। 
 
इनमें भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो सरकार की आलोचना कर रहे हैं और यह वाजिब भी है। लेकिन वास्तविक सेवा-सहायता करने वाले अधिकतर एक ही व्यक्ति को महाखलनायक साबित करने की मानसिक व्याधि से पीड़ित नहीं हैं। मनुष्यता और इंसानियत की एकमात्र कसौटी यही है कि संकट के समय ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, दुश्मनी, वैचारिक मतभेद आदि का परित्याग कर एकजुटता के साथ काम किया जाए। देश के बड़े वर्ग ने ऐसा चरित्र पेश भी किया है। जिनको बहुत कुछ करना नहीं है और जिनका एकमात्र एजेंडा यही है कि किसी तरह नरेंद्र मोदी को बदनाम किया जाए उनके लिए इंसानियत या मनुष्यता की कसौटी के कोई मायने न पहले थे ना आज हैं ना आगे रहेंगे।  
 
क्या इनके सोशल मीडिया दुष्प्रचार से आम जनता मान लेगी कि कोरोना क दूसरे विस्फोट के लिए मुख्य दोषी मोदी ही हैं? क्या लोगों की समझ में यह नहीं आएगा कि स्वास्थ्य मुख्यतः राज्यों का विषय है? क्या लोगों के ध्यान में नहीं आएगा कि राज्यों में चलने वाली स्वास्थ्य सेवाएं, जिनमें सरकारी और निजी अस्पताल दोनों शामिल हैं राज्य सरकारों के नियंत्रण में? अगर यह समूह संतुलित रूप से केंद्रों के साथ राज्यों में सत्तारूढ़ संपूर्ण राजनीतिक प्रतिष्ठान की नाकामियों, उनके जनविरोधी कदमों को तथ्यों के साथ रखता तो इनका असर होता। कोरोना का वर्तमान विस्फोट कई सम्मिलित कारकों की संहारक परिणति है। इसमें प्रकृति, समय, कोरोना वायरस का चरित्र, हम सबका सामूहिक व्यवहार, कोराना नियंत्रण करने के पहले के कदमों की आर्थिक कीमत से उत्पन्न परेशानियों का दबाव, केंद्र एवं राज्य सरकारों की लापरवाहियां तथा अनुभवों के आधार पर भविष्य के पूर्वोपाय न करने करने की विफलता जैसे कारक शामिल हैं। 
 
इस समय ऑक्सीजन एक बड़ा संकट है। क्या दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे कोरोना से सबसे ज्यादा आघात झेलने वाली राज्य सरकारें और उनके स्वास्थ्य महकमे को इसका अनुभव नहीं हुआ था? आगे ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हो इसके लिए क्या किया? दिल्ली को राशि भी दी गई ताकि ऑक्सीजन प्लांट विकसित हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या मोदी विरोधी समूह का यह दायित्व नहीं बनता है कि इनको भी सामने लाएं? उद्धव ठाकरे सरकार ने महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा कोरोना का दंश झेलने के बावजूद ऑक्सीजन प्लांट लगाने-लगवाने में किंचित रुचि नहीं दिखाई। क्या महाराष्ट्र में मचे वर्तमान हाहाकार के लिए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे सहित उनकी सरकार और उसमें शामिल राजनीतिक दलों, स्वास्थ्य महकमे व प्रशासन को खलनायक नहीं माना जाएगा? तो यह समूह ये बातें क्यों नहीं उठाता? प्रश्न यह भी है कि जो निजी अस्पताल ऑक्सीजन, ऑक्सीजन, ऑक्सीजन की रट लगाते हुए न्यायालयों का दरवाजा खटखटा रहे हैं क्या उन्होंने अपने लिए ऑक्सीजन प्लांट लगाने की कोई कोशिश की? इन सबको खलनायक की श्रेणी में क्यों न खड़ा किया जाए? 
 
आश्चर्य देखिए कि यह समूह इन लूटेरे अस्पतालों को हीरो बना रहा है क्योंकि ये सरकार के विरुद्ध न्यायालय चले गए या बोल रहे है। कोई निजी अस्पताल अपने आईसीयू के लिए जितने बिस्तर रखता है उन सबके लिए सभी उपयुक्त संसाधन उसके पास होना चाहिए जिसमें ऑक्सीजन भी शामिल है। अगर इन्होंने नहीं किया तो ये अपराधी हैं। समूह इन आपराधिक सच्चाइयों को उजागर नहीं करता। चुनाव प्रचार के लिए क्या केवल मोदी, अमित शाह और भाजपा दोषी हैं? केरल में कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां, मुस्लिम लीग चुनाव प्रचार नहीं कर रही थी? मुख्यमंत्री पी. विजयन के कोरोना संक्रमित होने के बावजूद वहां चुनाव अभियान चल रहे थे।

भाजपा वहां छोटी पार्टी है इसलिए इसका चुनाव अभियान इन दलों से छोटा रहा। फिर भी आप केरल कोरोना संकट के लिए मोदी को ही दोषी साबित कर रहे हैं। तमिलनाडु में भी भाजपा छोटी पार्टी है। ऐसी कौन पार्टी है, जो मतदान होने तक वहां चुनाव प्रचार में संपूर्ण शक्ति के साथ नहीं लगी थी? पश्चिम बंगाल में भी क्या भाजपा अकेले चुनाव प्रचार कर रही थी? ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की सभाओं में क्या लोग नहीं आ रहे थे? क्या वामपंथी पार्टियां, कांग्रेस और आईएसएफ की सभाएं बिना लोगों के हो रही थी? 
 
अगर कोरोना फैलाव में चुनावी सभाओं और रैलियों की भूमिका है तो इसके लिए सभी पार्टियां समान रूप से दोषी हैं और केरल तमिलनाडु जैसे राज्य में गैर भाजपा दल ज्यादा दोषी हैं। हालांकि यह कहना कठिन है कि उन राज्यों में चुनाव प्रचार नहीं होते तो कोरोना नहीं फैलता। दिल्ली, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, कर्नाटक, तेलंगना आदि राज्यों में कोरोना चुनावी राज्यों से पहले और ज्यादा भयावह रूप में फैला? यह अलग से विचार का विषय है। 
 
ये सारे ऐसे प्रश्न हैं जिनका निष्पक्ष उत्तर दिया जाना चाहिए? जब निष्पक्षता और मनुष्यता यहीं तक सीमित हो कि सारी समस्या के लिए एक व्यक्ति को खलनायक बनाकर उसकी छवि को लांछित किया जाए जिससे उसके और पार्टी के प्रति लोगों में नाराजगी पैदा हो और वह सत्ता से बाहर हो जाए तो फिर सच के साथ खड़े नहीं हो सकते। यही यह समूह कर रहा है। इससे दुर्भाग्यपूर्ण और दिल दहलाने वाला व्यवहार कुछ नहीं हो सकता। संकट की घरी में जानी दुश्मन भी अपनी दुश्मनी को परे रखकर सेवा और सहयोग में लग जाते हैं।

इस समूह के लोगों से भी इतना अनुरोध तो किया ही जाएगा कि कुछ समय के लिए इंसानियत और मानवीयता के नाते एक व्यक्ति से घृणा की मानसिकता से बाहर आएं। यह विकट काल है जो हम सबसे एक संवेदनशील भूमिका की मांग कर रहा है। जो इससे चूक कर राजनीतिक विरोधी और घृणा अभियान में लगे रहेंगे उनके साथ भी प्रकृति और इतिहास न्याय करेगा।  

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