पैसों की सभ्यता और मानव जीवन

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

गुरुवार, 16 जुलाई 2020 (16:39 IST)
आज की दुनिया के लोग पैसों के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर पाते हैं। इसी से मनुष्यों के सारे व्यवहार, आचार, विचार सब कुछ पैसों के आसपास चलते हैं। मनुष्य सभ्यता का विस्तार या विकास नदियों के पास ही प्रारंभ हुआ। घुमंतु मानव सभ्यता को एक स्थान पर समूह बनाकर रहने का विचार भी पानी की उपलब्धता के आधार पर विकसित हुआ।
 
शायद इसी से 'बिन पानी सब सून' का विचार जन्मा। मानव सभ्यता के विकास में पैसों का विचार तो बहुत बाद में आया और इस कदर छाया कि आज की दुनिया का मनुष्य बिना पैसों की दुनिया का विचार और व्यवहार ही भूल गया। मूलत: पैसों को मनुष्य के बीच आपसी व्यवहार के साधन के रूप में ही प्रचलित करने की कल्पना मनुष्य के मन में आई।
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पर आपसी व्यवहार का छोटा-सा साधन इतने बड़े जीवन के साध्य में बदल गया। आज का मनुष्य पैसों के मायाजाल में ऐसा उलझ गया कि उसे बिन पैसे जीवन सून लगने लगा। जीवन प्रकृति की रचना और पैसे मनुष्य की रचना फिर भी मनुष्य को प्रकृतिप्रदत्त जीवन से ज्यादा पैसों की कद्र है। आज हम सारे जीवन का अधिकांश समय पैसों की प्राप्ति में खर्च कर देते हैं।
 
यदि पैसों का संग्रह ही जीवन की एकमेव प्रवृत्ति बन जाए तो जीवन का बहुआयामी स्वरूप ही बदलकर एकांगी हो जाता है। मनुष्य के जीवन में पैसों की उपयोगिता एक हद तक है, पर उस हद को लांघना न लांघना यह हर व्यक्ति की अपनी सोच और समझ पर निर्भर करता है। पैसों की शुरुआत धातु से कागज और अब डिजिटल या अंक के स्वरूप में आभासी रूप में पहुंच गई है। पैसों ने मनुष्य को लाचार बनाने से लेकर आर्थिक साम्राज्य का स्वामी भी बना दिया है। कई लोगों को लगता है कि पैसों से सब कुछ पाया जा सकता है।
 
पैसों की सभ्यता ने मानव सभ्यता और स्वभाव में जितना बदलाव किया है, शायद उतना गहरा प्रभाव मनुष्य के जीवन क्रम में किसी और मानवरचित साधन ने नहीं डाला। कभी-कभी तो लगता है कि मनुष्य पैसों की सभ्यता में पूरी तरह उलझ गया है। मनुष्य की मनोदशा आजकल प्राय: ऐसी हो गई है कि उसके हर कर्म के बदले में पैसा पर्याप्त मिलना ही चाहिए।
 
मानव सभ्यता ने भी मनुष्य द्वारा किए गए परिश्रम के बदले में पैसे या पारिश्रमिक का सिद्धांत स्वीकार किया, पर अधिकांश को केवल पारिश्रमिक से संतोष नहीं होता। जो काम लेते हैं उनको लगता है काम करने वाले ने कामचोरी की है, तो कैसे कम से कम पैसा दे, यह चिंतन चलता है या कम पैसे में ज्यादा काम कैसे करवाएं, यह चिंतन या जोड़-बाकी चलता रहता है।
पैसे की सभ्यता के उदय से पहले परिश्रम की सभ्यता थी। परिश्रम के विनिमय से आपसी दैनंदिन कामकाज चलता था। आपके यहां काम करना है तो हम आ जाएंगे, हमारे यहां काम है तो आपको बुलवा लेंगे। इस तरह पारस्परिक परिश्रम का दौर चला और आज भी दूरदराज के पारंपरिक गांवों में इस सभ्यता के अवशेष जिंदा हैं।
 
यह मन और शरीर के संकल्प और सहयोग से रोज के कामकाज को चलाने की मानवीय सभ्यता थी। इस कालखंड में आवागमन के साधनों पर आधारित सभ्यता का उदय नहीं हुआ था। अधिकांश मनुष्य एक निश्चित क्षेत्र में ही अपना जीवन चलाने के लिए गतिविधियां संचालित करते थे। खेती-किसानी, पशुपालन, शिकार और हस्तशिल्प जैसी गतिविधियों को लोग मिल-जुलकर जीवन-यापन का आधार बनाए थे।
 
ग्रामीण हाट-बाजार या छोटे-बड़े गांवों में लोग अपने अनाज को 5-10 किलो ले जाते हैं और जरूरत की वस्तुएं खरीद लेते हैं। बकरी-मुर्गी बेचकर भी सामान लाया जाता है। यानी आज के काल में भी मानव समाज में आदिम सभ्यता का वस्तु विनिमय, धातु और कागजी मुद्राओं से लेकर आधुनिक आभासी मुद्रा (डिजिटल मनी) सभी प्रचलित है। यानी प्राचीनकाल से आज की दुनिया तक पैसे के स्वरूप में काफी बदलाव हुआ है।
मानव सभ्यता तेजी से साकार मुद्रा से निराकार मुद्रा की दिशा में जा रही है। निराकार मुद्रा में सिर्फ आंकड़े स्थानांतरित करने से ही आर्थिक व्यवहार संपन्न हो रहा है। लेन-देन, भुगतान, व्यापार सब डिजिटल या निराकार पैसों से होने लगा है। धातु के सिक्के, कागज के नोट और आभासी आंकड़े तीनों के साथ-साथ परिश्रम तथा वस्तु विनिमय का भी प्रचलन है। यह पद्धति गांवों के साथ-साथ 2 देशों के स्तर पर भी प्रचलित है, जैसे भारत और ईरान के मध्य पेट्रोल का भुगतान गेहूं से।
 
पैसे का स्वरूप कैसा भी हो, पर मानव मन में यह भाव आना कि 'पैसे की ताकत ही जीवन में सबसे बड़ा साधन है जिसके बल पर कुछ भी करना संभव है', इसका मनुष्य सभ्यता पर बहुत गहरा प्रभाव हुआ है। मानव के मन में पैसों की ताकत के इस्तेमाल से एक नई सभ्यता का उदय हो चुका है, जो पैसों को सबसे बड़ी ताकत या जीवन-यापन की अनिवार्यता समझने लगे हैं।
 
पैसा प्रमुख और मानव गौण होने लगा। मानव का बनाया आपसी व्यवहार का साधन खुद मानव के जीवन का साध्य बन गया। मानव सभ्यता में उल्टी गंगा बहने लगी। पैसे की ताकत मनुष्य की ताकत को ललकारने लगी। मानव सभ्यता पैसे की सभ्यता से संचालित होने लगी। मानव पैसे का जनक है और अब पैसा अपनी ताकत से मनुष्य की हैसियत निर्धारित करने की हैसियत पा गया। 
 
मानव अंतहीन पैसा पैदा कर सकता है, पर पैसा एक भी मानव नहीं पैदा कर सकता। यह विचार ही मानव सभ्यता की ताकत है। पैसे को साध्य न मानने वाले लोग आज भी पैसे की सभ्यता से बड़ी मानव सभ्यता की जीवनी शक्ति को मानते हैं और मनुष्य के मन की ताकत को पैसे की ताकत के समक्ष फिसलने नहीं देते। पैसे की सभ्यता ने मानव सभ्यता को समृद्ध करने के बजाए अंतहीन समस्याओं का अंबार खड़ा कर दिया जिनका समाधान पैसे की ताकत से संभव नहीं है।
 
रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, आवागमन, राजनीतिक, सामाजिक कार्य, पर्यटन, आवास आदि जीवन की सारी गतिविधियां पैसे की सभ्यता से संचालित होने लगी हैं। यदि आपके पास पैसा नहीं है, तो आप हक के बजाए दया के आधार पर जीने को अभिशप्त हो जाते हैं। आपको मनुष्य होने के नाते ही नहीं, आर्थिक हैसियत के आधार पर सारी सुविधाएं मिलेंगी या नहीं, यह पैसे की सभ्यता का निर्धारित मापदंड है।
 
मानव होने मात्र से गरिमामय रूप से जीवन-यापन का अधिकार पैसे की सभ्यता में संभव नहीं होता। पैसे की सभ्यता मानव जीवन में धन संग्रह को साध्य बना सकती है और परिश्रम की सभ्यता मानव में सामुदायिकता तथा एक-दूसरे की मदद का रास्ता समझाती है। दोनों सभ्यता मानव समाज में लंबे समय से घट-बढ़ रही है, पर कम परिश्रम और अधिक पैसा मनुष्य के मूल साधन मन और तन की शक्ति और तेजस्विता को क्षीण कर रहा है।

 (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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