करवा चौथ के दिन की बात है, पति घर आए तो साहित्यकार के हिसाब से वह पत्नी से मिले। कविता के रूप में करवा चौथ पर पत्नी को कविता की लाइन सुनाने लगे -"आकाश की आंखों में/रातों का सूरमा /सितारों की गलियों में /गुजरते रहे मेहमां/ मचलते हुए चांद को/कैसे दिखाए कोई शमा/छुप-छुपकर जब/ चांद हो रहा हो जवां "। कविता की लाइन और आगे बढ़ती, इसके पहले मां की आवाज अंदर से आई -"कहीं टीवी पर कवि सम्मेलन तो नहीं आ रहा, शायद मैं टीवी बंद करना भूल गई होंगी। मगर लाइट अभी ही गई और मैं तो लाइट का इंतजार भी कर रही हूं फिर यहां आवाज कैसी आ रही है।
फिर आवाज आई - आ गया बेटा। बेटे ने कहा - हां, मां मैं आ गया हूं। अचानक लाइट आ गई, उधर सास अपने पति का चेहरा देखने के लिए चलनी ढूंढ रही थी किन्तु चलनी तो बहू छत पर ले गई थी और वो बात सास-ससुर को मालूम न थी। जैसे ही पत्नी ने पति का चेहरा चलनी में देखने के लिए चलनी उठाई, तभी नीचे से सास की आवाज आई - बहु चलनी देखी क्या? गेहूं छानना है। बहू ने जल्दीबाजी कर पति का और चांद का चेहरा देखा और कहा - लाई मां।
पति ने फिर कविता की अधूरी लाइन बोली - "याद रखना बस /इतना न तरसाना /मेरे चांद तुम खुद /मेरे पास चले आना" इतना कहकर पति भी पत्नी की पीछे -पीछे नीचे आ गया। अब सासूं मां, ससुर को लेकर छत पर चली गईं। अचानक सासू मां को ख्याल आया कि लोग बाग क्या कहेंगे। लेकिन प्रेम और आस्था उम्र नहीं देखती। जैसे ही ससुर का चेहरा चलनी में देखने के लिए सास ने चलनी उठाई। अचानक बहूू ने मानो जैसे चौका जड़ दिया। वो ऐसे - नीचे से बहु ने आवाज लगाई-" मां जी आपने चलनी देखी क्या ?" आप गेहूं मत चलना में चाल दूंगी। यह बात सुनकर चलनी गेहूं की कोठी में चुपके से कब आ गई, कानों कान किसी को पता भी न चला। मगर ऐसा लग रहा था कि चांद ऊपर से सास बहु के चलनी खोज का करवाचौथ पर खेल देख कर हंस रहा था और मानो कह रहा था कि मेरी भी पत्नी होती तो मैं भी चलनी में अपनी चांदनी का चेहरा देखता।