समाजवादी पार्टी की कलह से मतदाताओं का ध्रुवीकरण तय

समाजवादियों के असमाजवाद से उप्र में नए राजनीतिक नक्षत्र का उदय तो नहीं? 
उप्र में जो राजनीतिक घटनाक्रम घट रहा है, अप्रत्याशित तो नहीं लेकिन चौंकाने वाला जरूर है। समाजवादी पार्टी का असमाजवाद, बंद कमरों से निकलकर सड़क तक आ गया है। तेजी से बदलते कई-कई नाटकीय घटनाक्रम से वहां सत्ता की दावेदार दूसरी राजनीतिक पार्टियां जरूर अपने फायदे, नुकसान का रोज नया गुणाभाग करती होंगी, लेकिन सपा में दो फाड़ से वोटों का बिगड़ने वाला समीकरण, भाजपा के स्वाद को जरूर बिगाड़ रहा होगा। देश में पहली बार इस तरह की कलह सामने आई जिसमें अपने सुप्रीमों के दम-खम पर शीर्ष तक पहुंची पार्टी अंदरूनी कलह में उलझ खुद का गला काटते दिख रही है। 

मार्च-अप्रेल में संभावित चुनाव से पहले यह अंर्तकलह भले ही सुलझ जाए, लेकिन तब तक मतदाता अपना मन बदल चुके होंगे। पिछड़े तथा बड़ी आबादी और एक राज्य के बावजूद कई खण्डों में विभक्त उप्र वैसे भी नए राजनीतिक मापदण्डों के लिए जाना जाता है। यदि सपा में सब कुछ ठीक ठाक होता तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलना था। वहां पर अधिकतर वोट दलित-मुस्लिम और हिन्दुत्व के नाम पर बंटने का कयास लिए भाजपा काफी उत्साहित थी। आंकड़े भी कुछ ऐसे ही बैठ रहे थे, कि दलित-मुस्लिम और यादव वोटों के ध्रुवीकरण के बीच भाजपा हिन्दुत्व का कार्ड खेल, ब्राम्हण और दीगर हिन्दू वोटों के सहारे आगे निकल जाती। हो सकता है कि इस दशहरे लखनऊ में प्रधानमंत्री का जय श्रीराम के उद्घोष की वजय यही हो। लेकिन अब इस दो फाड़ ने पूरे समीकरण को ही बिगाड़ रख दिया है। जैसा कि सभी मानकर चल रहे थे कि बहुजन समाज पार्टी का वहां पर 18-19 प्रतिशत वोट तो है। ऐसे में उसे बस थोड़ी सी मेहनत कर आंकड़ा बढ़ाना होगा। 
 
अल्पसंख्यक, दलित और यादव वोट आपस में बंट जाने से जो सीधा फायदा भाजपा को होना था, अब यह सब टेढ़ी खीर जैसा लग रहा है। जाहिर है वोटों के ध्रुवीकरण का खेल चलेगा और चहरदीवारी की बातें सार्वजनिक जूतमपैजार की स्थिति तक पहुंच जाने के परिणाम यह होंगे कि कहीं सपा वोट बैंक का झुकाव, बसपा की ओर न हो जाए?  यदि दलित और मुस्लिम वोट बैंक एकतरफा बसपा के खाते में चले गए तो बहनजी को सत्ता में पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता।
 
एक बहस यह भी होगी, कि सपा के अंर्तकलह में अखिलेश शहीद का दर्जा या सहानुभूति के पात्र न बन जाएं? इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने साढ़े 4 वर्ष के कार्यकाल में अखिलेश ने कुछ नहीं तो खुद की विकासवादी और ईमानदार छवि जरूर बनाई है, जो उप्र के लोग बहुत ही सम्मान और विश्वास के साथ देख रहे हैं। एक संभावना यह भी बनती है कि यदि अखिलेश ने कोई दूसरी लाइन पकड़ी, तो एक नए राजनीतिक दल का उदय होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जिस तरह सोमवार को पार्टी की बैठक में सपा सुप्रीमों ने हर उस शख्स का नाम लिया और विश्वासपात्र बताया जिसको अखिलेश ने न केवल दरकिनार कर, पार्टी के लिए घातक कहा था। जाहिर है अखिलेश का कद कमतर करने की कोशिश की गई थी। इतना ही नहीं गले मिलने के फौरन बाद चाचा-भतीजा की वहीं पर झड़प भी उप्र के मतदाताओं को पसंद नहीं आई होगी। 
 
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि लोकतंत्र के इन भगवानों को चुनने वाला मतदाता उप्र में एक-एक आहुति काफी सोच, समझ देकर देगा। मतलब साफ है कि सपा की कलह पर भाजपा भले ही कुछ भी कहे लेकिन अन्दरूनी तौर पर फायदा बसपा को होगा इस आंकड़े को अंदर ही अंदर हर कोई मान रहा है। रही बात कांग्रेस की तो इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस को अभी रेस में आगे बढ़ने के लिए काफी जोर आजमाइश करनी होगी जो इतनी आसान नहीं दिखती। हां समाजवादी पार्टी के असामजवाद से उत्तर प्रदेश की राजनीति में मतदाता, विशेषकर दलित-मुस्लिम-यादव और हिन्दुत्व, दो खेमें में जाते दिखें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। फिर राजनीति में कब कौन छूत-अछूत रहा है, चुनाव अभी दूर हैं तब तक उप्र की राजनीति में और न जाने कब कौन सा ‘सीन’ दिख जाए! अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि कहीं “समाजवादियों के असमाजवाद से उप्र में नए राजनीतिक नक्षत्र का उदय तो नहीं?”

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