सूखे की ओर जाती नर्मदा

मप्र की 'जीवनदायिनी' कही जाने वाली नर्मदा के संरक्षण के लिए सरकारी और गैरसरकारी योजनाओं के चलायमान होने के बावजूद समय के अंतराल के साथ नर्मदा का जलस्तर शनै:-शनै: कम होता जा रहा है और नर्मदा अब सरस्वती की तरह भविष्य में आज से लगभग 100-150 साल (अधिक है) में इतिहास में दर्ज हो सकती है, क्योंकि निरंतर हो रहे दोहन और बारिश की कमी, पर्यावरण प्रदूषण आदि-आदि ने अभी से इसे सूखे की ओर जाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं।
 
कम होता जलस्तर
 
जहां नर्मदा का अथाह जल रहता था वहां आज कम पानी नजर आने लगा है। मंडलेश्वर में तो आप आसानी से पार आ-जा सकते हैं। कहीं-कहीं तो नीचे तल भी साफ नजर आता है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि नहरों में निरंतर पानी बह रहा है लेकिन नहरों में पानी पहुंचाने वाली नर्मदा में लगातार जलस्तर कम होता जा रहा है।
 
तीर्थस्थल मोरटक्का खेड़ीघाट में नर्मदा का पानी सिमटता जा रहा है। ऐसे में स्नान करने आने वाले श्रद्धालुओं को खासी दिक्कतें आ रही हैं। उधर अधिकारी दावा कर रहे हैं कि नर्मदा में स्नान करने लायक पानी है। एक ओर जहां गुजरात के फायदे के लिए बांध बनाकर नर्मदा का शुद्ध साफ जल दूषित कर दिया गया, वहीं नर्मदा से सिंचाई और पेयजल के रूप में इसका इस्तेमाल होने लगा। आज मप्र के ही लगभग 95 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में नर्मदा के जल से सिंचाई होती है। नर्मदा का वास्तविक रूप से संरक्षण किया जाता तो आज ये स्थिति पैदा नहीं होती। 
 
नर्मदा पर बांध बनाए जाने को लेकर पर्यावरण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। सरदार सरोवर और इंदिरा सागर बांध भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय ने नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर और इंदिरा सागर जैसे विवादास्पद बांधों के सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए भारतीय वन सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक डॉक्टर देवेन्द्र पांडेय की अध्यक्षता में 10 सदस्यों की एक विशेष समिति नियुक्त की थी।
 
इस समिति ने अब दोनों बांध परियोजनाओं के सुरक्षा उपायों से जुड़े अपने सर्वेक्षण और अध्ययन की दूसरी अंतरिम रिपोर्ट मंत्रालय को पेश की है जिसमें जलग्रहण-क्षेत्र ट्रीटमेंट, लाभ-क्षेत्र विकास, वहन-क्षमता, क्षतिपूरक-वनीकरण, जीव-जंतुओं और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असरों से संबंधित कई चौंकाने वाले तथ्य उजागर हुए हैं। साथ ही ऐसे कई अहम पर्यावरण पहलुओं को भी प्रकाशित किया गया है जिनका अनुपालन नहीं हुआ है।
 
नर्मदा के जल को बार-बार रोकने के कारण नर्मदा प्रदूषित होती जा रही है। दूसरी तरफ नर्मदा बचाओ आंदोलन ने न केवल बहुत सारे पर्यावरणीय उपायों के उल्लंघन को उजागर किया है बल्कि कई पुनर्वास के फर्जीवाड़ों का भी पर्दाफाश किया है।
 
विस्थापन में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार
 
नर्मदा पर बांध से डूब में आने वाले क्षेत्रों के विस्थापितों के पुनर्वास में भी भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा है। बताया जाता है कि मुआवजे के लिए भटकने वाले विस्थापितों से लगभग 10 से 15 प्रतिशत के हिसाब के कमीशन भेंट लिया गया। इसके अलावा फर्जी हितग्राहियों को भी फायदा पहुंचाए जाने के भी संकेत मिलते हैं।
 
नुकसान-फायदा व रोजी-रोटी का संकट
 
नर्मदा पर बांध बनाने का उद्देश्य प्यास बुझाने से ज्यादा बिजली उत्पादन कहा जा सकता है। यह बिजली उत्पादन भी गुजरात के फायदे के लिए कहा जा सकता है। इस परियोजना की लागत से 10 गुना ज्यादा लागत लगना बताई जाती है। कहा जाता है कि यह योजना कच्छ, सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात में पानी देने के लिए बनी थी किंतु आज तक इनमें पानी नहीं आना बताया जाता है।
 
नर्मदा किनारे रहने वाले लाखों लोगों के सामने आज रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। नर्मदा पर बांध की वजह से नर्मदा से रोजी-रोटी कमाने वाले अनेक नाविक और मछुआरों को अन्य कम फायदे वाले काम-धंधे की ओर जाने पर मजबूर होना पड़ा है। सरदार सरोवर बांध पर निर्माण के समय 6,400 करोड़ रुपए लागत का अनुमान लगाया गया था लेकिन जब यह वर्ष 2010-2011 में बनकर तैयार हुआ, तब इस पर कुल 40,000 करोड़ रुपए का खर्च आया।
 
इसी तरह से बरगी बांध पर अनुमानित लागत से 10 गुना ज्यादा खर्च आया जबकि इसने तय किए गए सिंचित क्षेत्र के मात्र 5 फीसदी हिस्से को ही लाभन्वित किया। साल 1992 में विश्व बैंक ने अपनी स्वतंत्र जांच बैठाई थी और उसमें पाया था कि इस परियोजना से बहुत ज्यादा नुकसान होगा इसलिए विश्व बैंक ने भी इस योजना पर पैसे लगाने से इंकार कर दिया था। इसके अलावा साल 1993-94 में जब भारत सरकार ने अपनी एक स्वतंत्र जांच बैठाई थी, उसमें भी इस योजना को असफल बताया गया था।
 
उद्गम पर सूखा-लगातार दोहन
 
जब नर्मदा अपने उद्गम स्थल अमरकंटक में ही पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण धीरे-धीरे सूखने लगी है तो अन्य क्षेत्रों की दुविधा देखी जा सकती है। रेत माफिया बिना किसी डर के भ्रष्ट अधिकारियों व नेताओं के संरक्षण के साथ रेत खनन में लगे हैं। इसके अलावा नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक का जंगल प्रदेश अब मात्र लगभग 5 से 7 प्रतिशत ही बचा है।
 
1967 से 1974 के दौरान यहां औसत सालाना बारिश 62 इंच थी, स्थानीय बड़े-बूढ़ों के मुताबिक तब यहां गर्मियों में भी रोजाना 2 से 3 बार पानी बरस जाता था। लेकिन 1974 से 1984 के बीच यह औसत घटकर 53 इंच हो गया। इसी बीच सन् 75 में यहां बॉक्साइट की खदानें भी खुल गईं। इस खदानों और जंगल काटने की गतिविधियों का असर 1984 से 1994 तक के सालाना बारिश के औसत से पता चलता है, जो घटकर 44 इंच तक पहुंच चुका था। इसी प्रकार यहां तापमान में बढ़ोतरी भी इस क्षेत्र के अनियंत्रित दोहन के परिणाम दर्शाती है। 60 के दशक में 0 से 10 डिग्री कम तापमान में ठिठुरने वाले अमरकंटक को अब गर्मियों में 42-44 डिग्री की झुलसाने वाली गर्मी बर्दाश्त करनी पड़ रही है।
 
उभरने लगे हैं तल
 
नर्मदा के अमरकंटक से लेकर अनेक स्थानों पर जलस्तर में कमी से नदी में हमेशा डूबी रहने वाली चट्टानें यहां तक कि तल भी साफ दिखाई देने लगे हैं।
 
महेश्वर- नर्मदा के बीच बने बाणेश्वर मंदिर के आसपास चट्टानें निकल आई हैं। घाटों पर डूबी रहने वाली सीढ़ियां भी अब दिखाई देने लगी हैं। आलम यह है कि केनो स्लालम वॉटर स्पोर्ट्स में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले सहस्रधारा पर्यटन स्थल में खिलाड़ी पानी की कमी झेल रहे हैं।
 
बड़वाह- बांधों द्वारा पानी रोके जाने और कई सालों से कम हो रहे भूजल का स्पष्ट प्रभाव नर्मदा के जलस्तर पर देखा जा रहा है। रेलवे पुल के निचले हिस्से से नर्मदा को पैदल भी पार किया जा सकता है। नर्मदा में इस समय 156.260 मीटर जलस्तर है। भीषण गर्मी के दौर में स्थिति और भी खतरनाक हो सकती है।

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