व्यंगात्मक कविता : शादी का लड्डू
निशा माथुर
दिल क्या करे, जब किसी से,
उफ, बोलो किसी को प्यार हो जाए,
और हादसों की दुनिया में यही प्यार,
जब गले का हार हो जाए ।
तुम्हारी आहट सुनकर ही प्रिये,
अब मेरा दिल क्यूं घबराने लगा है ।
जिंदगी का द्वंद समझ में आया,
मैंने शादी का लड्डू क्यों चखा है ।
पहले तुम्हारी फरमाइशों का फरमान,
प्रिय, मुकद्दस- मुकद्दर होता था ।
ख्यालों, ख्वाबों, ख्वाहिशों को पूरा करता,
मैं सिकंदर महान होता था ।
तुम स्वप्न सरीखी नूरजहां-सी ताजा,
मैं ताज सजाता शाहजहां होता था ।
हाथों में हाथ डाले, भीगी-भीगी रातों में
बरसात का वो गाना होता था ।
तुम सखी, संगिनी से जीवन संगिनी,
अर्धांगिनी जो बन बैठी हो प्रिय।
सात फेरों के सात वचनों का अब
यह जो हमारा सुहाना संगम है, प्रिय।
कोयल-सी आवाज तुम्हारी बदली,
अब रह-रह के हूक उठती मेरे हिय,
कहते हैं, इस नटखट मृगनयनी संग,
मेरी जोड़ी जैसे राम संग सिय।
अब तुम संग देखे ख्वाब क्यों मुझे,
मेरे सपनों में आकर यूं डरा जाते हैं।
तुम्हारे वही ख्याल मेरे दिल की चौखट को,
सुनामी-सा हिला जाते हैं।
ऐसी-तैसी ख्वाहिशें तुम्हारी,
मेरे घर के बजट की चुटकी ले जाती हैं ।
मेरी, तीस दिन की कमाई,
रानी रूपमती के चेहरे पर लुटा दी जाती है।
कितनी सच्चाई है, लोगों के कहने में,
रूसवाई है, इस दर्द को सहने में ।
ये युग का शंखनाद है या फिर,
जीवन पर्यन्त पत्नी-श्री का सिंहनाद है ।
तबले-सी बजती आजादी पर,
सप्त स्वर-लहरी का एक मूलमंत्र याद है।
कि, हे प्रिय यह शादी का लड्डू
जो खाये वो पछताए ,
जो ना खाये वो भी पछताए ।