सरकार की प्रथम जवाबदेही जनता के प्रति है, लोकसेवकों के प्रति नहीं

वैसे तो भारत एक लोकतांत्रिक देश है। अगर परिभाषा की बात की जाए तो यहां जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता का ही शासन है। लेकिन राजस्थान सरकार के एक ताजा अध्यादेश ने लोकतंत्र की इस परिभाषा की धज्जियां उड़ाने की एक असफल कोशिश की। 
 
हालांकि जिस प्रकार विधानसभा में बहुमत होने के बावजूद वसुंधरा सरकार इस अध्यादेश को कानून बनाने में कामयाब नहीं हो सकी, वो यह दर्शाता है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें वाकई में बहुत गहरी हैं, जो कि एक शुभ संकेत है। लोकतंत्र की इस जीत के लिए न सिर्फ विपक्ष की भूमिका प्रशंसनीय है जिसने सदन में अपेक्षा के अनुरूप काम किया बल्कि हर वो शख्स, हर वो संस्था भी बधाई की पात्र है जिसने इसके विरोध में आवाज उठाई और लोकतंत्र के जागरूक प्रहरी का काम किया।
 
राजस्थान सरकार के इस अध्यादेश द्वारा यह सुनिश्चित किया गया था कि बिना सरकार की अनुमति के किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं किया जा सकेगा, साथ ही मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करने वाले सरकारी कर्मचारियों के नामों का खुलासा करना भी एक दंडनीय अपराध माना जाएगा।
 
जहां अब तक गजेटेड अफसर को ही लोकसेवक माना गया था, अब सरकार की ओर से लोकसेवा के दायरे में पंच-सरपंच से लेकर विधायक तक को शामिल कर लिया गया है। इस तरह के आदेश से जहां एक तरफ सरकार की ओर से लोकसेवकों (चाहे वो ईमानदार हों या भ्रष्ट) को अभयदान देकर उनके मनोबल को ऊंचा करने का प्रयास किया गया वहीं दूसरी तरफ देश के आम आदमी के मूलभूत अधिकारों और प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का भी प्रयत्न किया गया।
 
भाजपा की एक सरकार द्वारा लिए गए इस प्रकार के फैसले ने न सिर्फ विपक्ष को एक ठोस मुद्दा उपलब्ध करा दिया है बल्कि देश की जनता के सामने भी वो स्वयं ही कठघरे में खड़ी हो गई है। आखिर लोकतंत्र में लोकहित को ताक पर रखकर लोकसेवकों के हितों की रक्षा करने वाले ऐसे कानून का क्या औचित्य है? इस तुगलकी फरमान के बाद राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि 'हम 2017 में जी रहे हैं, 1817 में नहीं।' आखिर एक आदमी जब सरकारी दफ्तरों और पुलिस थानों से परेशान हो जाता है तो उसे न्यायालय से ही इंसाफ की एकमात्र आस रहती है, लेकिन इस तरह के तानाशाही कानून से तो उसकी यह उम्मीद भी धूमिल हो जाती।
 
इससे भी अधिक खेदजनक विषय यह रहा कि जिस पार्टी की एक राज्य सरकार ने इस प्रकार के अध्यादेश को लागू करने की कोशिश की, उस पार्टी की केंद्रीय सरकार द्वारा इस प्रकार के विधेयक का विरोध करने के बजाय उसका बचाव किया गया। केंद्र सरकार की ओर से केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और उनके राज्यमंत्री पीपी चौधरी का कहना था कि इस विधेयक का उद्देश्य ईमानदार अधिकारियों का बचाव, नीतिगत निष्क्रियता से बचना और दुर्भावनापूर्ण शिकायतों पर रोक लगाना है। इन शिकायतों की वजह से अधिकारी कर्तव्यों के निर्वहन में परेशानी महसूस कर रहे थे। राजस्थान सरकार द्वारा एक अध्ययन की ओर से बताया गया कि लोकसेवकों के विरुद्ध दायर मामलों में से 73% से अधिक झूठे प्रकरणों के होते हैं।
 
जब देश के प्रधानमंत्री अपने हर भाषण में भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की बात करते हों, प्रेस की आजादी के सम्मान की बातें करते हों, देश में पारदर्शिता के पक्षधर हों, जवाबदेही के हिमायती हों और अपनी सरकार को आम आदमी की सरकार कहते हों, तो उन्हीं की एक सरकार द्वारा ऐसे बेतुके अध्यादेश का समर्थन करना देश के जेहन में अपने आप में काफी सवाल खड़े करता है।
 
सत्ता तो शुरू से ही ताकतवर के हाथों का खिलौना रही है। शायद इसीलिए आम आदमी को कभी भी सत्ता से नहीं, बल्कि न्यायपालिका से न्याय की आस अवश्य रही है। लेकिन जब न्यायपालिका के ही हाथ बांध दिए जाएं तो?
 
अगर सरकार की नीयत साफ है और वो ईमानदार अफसरों को बचाना चाहती है तो क्यों नहीं वो ऐसा कानून लाती कि सरकार का कोई भी सेवक अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता है तो उसके खिलाफ बिना डरे शिकायत करें, त्वरित कार्रवाई होगी, क्योंकि सरकार देश के नागरिकों के प्रति जवाबदेह है, लोकसेवकों के प्रति नहीं। लोकसेवक अपने नाम के अनुरूप जनता के सेवक बनकर काम करने के लिए ही हैं।
 
लेकिन अगर शिकायत झूठी पाई गई तो शिकायतकर्ता के खिलाफ इस प्रकार कठोर से कठोर कानूनी प्रक्रिया के तहत एक्शन लिया जाएगा कि भविष्य में कोई भी किसी लोकसेवक के खिलाफ झूठी शिकायत दर्ज करने की हिम्मत नहीं कर पाएगा। 
 
इस प्रकार न सिर्फ झूठी शिकायतों पर अंकुश लगेगा और असली दोषी को सजा मिलेगी बल्कि पूरा इंसाफ भी होगा। इस देश में न्याय की जीत तभी होगी, जब हमारी न्याय प्रणाली का मूल यह होगा कि कानून की ही आड़ में देश का कोई भी गुनहगार गुनाह करके छूटने न पाए और कोई भी पीड़ित न्याय से वंचित न रहे।

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