श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से विपक्ष दूर क्यों?

Ayodhya Ram Mandir 
 
Shri Ram Temple: अनेक विपक्षी दलों के नेताओं ने साफ कर दिया है कि वो निमंत्रण मिलने के बावजूद अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे। कुछ लोगों ने तो इस कार्यक्रम का ही तीखा विरोध कर दिया है। हालांकि इसके परे आम लोगों में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा तथा लोकार्पण को लेकर उत्साह का माहौल साफ दिखाई पड़ता है। 
 
अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण और प्राण प्रतिष्ठा को लेकर देश में कायम यह वातावरण अस्वाभाविक नहीं है। हमारे देश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या रही है जो श्रीराम मंदिर आंदोलन के महत्व और उसके प्रभाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। यह देखते हुए भी कि अयोध्या आंदोलन ने भारतीय जनता पार्टी को देश के एक बड़े वर्ग का चहेता बना दिया, ऐसे लोग आज तक सच्चाई स्वीकारने को तैयार नहीं है। उनका यही मानना रहा है कि भाजपा और संघ ने जानबूझकर अपनी राजनीति के लिए श्रीराम मंदिर के मुद्दे को उठाया, देश में सांप्रदायिक विभाजन किया तथा हिंदुओं का ध्रुवीकरण करके अपना वोट बैंक बढ़ाया। 
 
कुछ नेताओं का बयान भी है कि आखिर लोकसभा चुनाव के पहले ही इसका इसकी प्राण प्रतिष्ठा क्यों हो रही है? उनके अनुसार यह सीधे-सीधे राम मंदिर का राजनीतिकरण है। कोई पार्टी राजनीति में है, केंद्र की सत्ता में है तो उसकी भूमिका के पीछे राजनीति होगी। किंतु क्या यह मान लिया जाए कि प्राण प्रतिष्ठा का पूरा कार्यक्रम केवल भाजपा की राजनीति है और वह इसका 2024 की दृष्टि से लाभ लेना चाहती है?
 
इसके उत्तर के लिए यह प्रश्न करना होगा कि फिर मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम कब रखा जाना चाहिए था? जिन लोगों के लिए आज भी मंदिर कोई मुद्दा नहीं है उनके वक्तव्य की इस संदर्भ में कोई प्रासंगिकता नहीं है। उनकी बात छोड़ दीजिए। उन सारे हिंदुओं के बारे में विचार करिए जिनके मन में यह आकांक्षा थी कि करीब 500 वर्ष पहले जिस पवित्र मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाई गई, वहां मंदिर का निर्माण हो। इस मंदिर को बचाने और फिर बाद में उस जगह को प्राप्त कर पूजा पाठ करने के लिए संघर्ष का लंबा इतिहास है। 
 
अनेक इतिहासकारों ने उसे महत्व देने की कोशिश नहीं की। न्यायालयों में दोनों पक्षों की हुई बहस तथा पैसों से साफ हो गया कि इसके लिए संघर्ष सतत चलता रहा। इसमें हिंदुओं के साथ सिख, बौद्ध, जैन सबकी भूमिका रही है। इतने संघर्ष और स्वतंत्रता प्राप्ति के बावजूद लगभग 72 वर्षों की कानूनी लड़ाई के बाद इसका फैसला आया। क्या उसे फैसले को साकार करने के लिए समय सीमा का संकल्प नहीं होना चाहिए था? हमारे देश में किसी भी निर्माण में समय सीमा का संकल्प नहीं दिखाते हैं तो वह कितना आगे खींच जाएगा इसकी कल्पना हम आप सबको है। 
 
एक निर्माण कार्य शुरू होने के बाद वह कब पूरा होगा इसकी गारंटी नहीं होती। वैसे भी श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के गठन के कुछ समय बाद धीरे-धीरे यह समाचार आने लगा था कि आम लोगों के दर्शन और पूजन के लिए 2023 के अंत या 2024 के आरंभ में श्रीराम मंदिर खुल जाएगा। निश्चित रूप से इसे हर हाल में पूरा किया ही जाना चाहिए था। कौन सा चुनाव कब है, इसका प्रभाव उन चुनावों पर क्या पड़ेगा इसकी दृष्टि से विचार करना अनुचित होता। संसदीय लोकतंत्र में चुनाव अपने समय पर आयोजित होते हैं और उसके लिए ऐसे ऐतिहासिक सांस्कृतिक आयोजन को टाला नहीं जा सकता।
 
संकल्पबद्धता और इसका ध्यान रखते हुए दिन रात एक नहीं किया जाता तो 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा संभव नहीं होती। संपूर्ण मंदिर और उससे संबंधित अन्य निर्माण कार्य आगे भी जारी रहेंगे। ऐसा सामान्यतः होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब सरदार वल्लभभाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे महान नेताओं ने सोमनाथ के पुनर्निर्माण की योजना बनाई तब भी उसका विरोध हुआ था। हालांकि तब देश में न मीडिया का इतना प्रसार था और न राजनीति में ऐसा तीखा विभाजन और वोट की रणनीति की दृष्टि से ही हर मुद्दे पर अपना स्टैंड लेने का माहौल था। 
 
सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण, प्राण प्रतिष्ठा और निर्माण की पूरी कथा जिन्हें पता है वो किसी तरह का प्रश्न नहीं उठा सकते। 8 मई, 1950 को मंदिर की आधारशिला रखी गई तथा 11 मई, 1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिंग स्थापित किया। तब तक मंदिर का संपूर्ण निर्माण नहीं हो पाया था। एक मुहूर्त तय हो गया था और भावना यही थी कि लंबे समय से बंद ज्योतिर्लिंग का दर्शन पूजन जितनी जल्दी आरंभ हो जाए उतना ही अच्छा।

दूरदर्शी नेताओं का मानना था कि ज्योतिर्लिंग की प्राण प्रतिष्ठा के साथ धीरे-धीरे देश का वायुमंडल बदलेगा और भारत फिर 15 अगस्त, 1947 के पहले की दुर्दशा को प्राप्त नहीं होगा। ध्यान रखिए, वर्तमान सोमनाथ मंदिर का निर्माण 1962 में जाकर पूरा हुआ। इसलिए आधे-अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा पर प्रश्न उठाने वाले सोमनाथ मंदिर के इतिहास को अवश्य पढ़ लें।
 
वास्तव में इस तरह का प्रश्न उठाने वाले लोगों की सोच को समझना कठिन नहीं है। इनमें कुछ ऐसे हैं जिनको मंदिर से ही समस्या रही है और जिनकी राजनीति इससे बुरी तरह प्रभावित हुई। कुछ संघ और भाजपा के स्थायी विरोधी हैं। किसी संगठन या राजनीतिक दल का विरोध करने में समस्या नहीं है पर हर विषय में हमारा विरोध का ही स्टैंड रहे यह अपनी नकारात्मकता और कुंठा को प्रमाणित करता है। राम मंदिर केवल एक मंदिर का निर्माण नहीं है, भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण, एक आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में भारत के उद्भव तथा विश्व कल्याण के लिए समर्पित भावना वाले देश के उदय की दृष्टि से इसका महत्व है। 
 
मंदिर की मूर्तियां पत्थरों या धातुओं की हो, प्राण प्रतिष्ठा एवं नियमपूर्वक पूजन के साथ वह संपूर्ण वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण करने का केंद्र बनता है। संघ परिवार या अन्य हिन्दू संगठनों के लिए यह आंदोलन किसी एक मंदिर के निर्माण तक ही सीमित नहीं था। वह भारत की अंत:शक्ति- आध्यात्मिक-सांस्कृतिक -सभ्यतागत पराभव एवं मानहरण के साथ संपूर्ण देश को व्याप्त पराजय व हीनग्रंथि से निकाल कर भारत को उसके गौरव पर पुनर्स्थापित करने की साधना का अंग था।

किसी की संघ या अन्य संगठनों से जितना भी मतभेद हो, श्रीराम मंदिर आंदोलन ने भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण और एक सांस्कृतिक पहचान के साथ राष्ट्र के उद्भव का संपूर्ण संकेत दिया। धीरे-धीरे इसके पीछे विरोध में कमी आई और ऐसे लोग भी अंदर से मानने लगे कि वहां मंदिर निर्माण ही होना चाहिए, जो पहले यह स्वीकार नहीं करते थे। 
 
राजनीतिक दलों के सामने समस्या यह हो गई कि राम मंदिर का विरोध करेंगे तो एक बड़े वर्ग के वोट से वंचित हो जाएंगे। इसीलिए अनेक दल और नेता न चाहते हुए भी इसके विरोध में खड़े होने से बचने लगे। यह बदले हुए भारत का ही परिणाम था जो आज तक कायम है। इसलिए राम मंदिर का सार्वजनिक विरोध करने वाले नेताओं की संख्या काफी कम हो गई। 
 
चूंकि लंबे समय तक आपने आंदोलन का विरोध किया, मंदिर के अस्तित्व को भी नकारने का अभियान चलाया और कुछ तो इससे आगे बढ़कर श्रीराम को ही एक मिथक साबित करते रहे। ऐसे लोग न्यायालय में भी गए। हालांकि उन्हें लगातार मुंह की खानी पड़ी क्योंकि तथ्य इसके विपरीत थे। लगातार विरोध करने और नकारने के बाद उन सबके लिए मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होना कठिन है और इसे आसानी से समझा जा सकता है।

आखिर कल तक विरोध करने वालों को लगता होगा कि वह किस मुंह से वहां जाएं। इनकी समस्याओं के कारण मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा नहीं रुक सकती। हालांकि इन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ इसका लाभ ले जाएंगे तो इन्हें अवश्य शामिल होना चाहिए।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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