यदि हम सोचते हैं की ये ‘क़ुर्बानी’ का त्यौहार केवल किसी धर्म विशेष का है तो ऐसा नहीं है। मेरे मत से ये त्यौहार हर बेटी के माता-पिता और परिजन के लिए होता है जो अपनी बेटी को ब्याहते हैं।
‘कुर्बानी’ ही तो है, अपने जिगर के टुकड़े को किसी को सौंप देना। शर्त यह है कि आप अपनी बेटी को सच्चा प्यार करते हों। यदि अच्छा घर वर मिल जाए तो कुर्बानी ‘कुबूल’ वरना सब ‘फिजूल’
बरसों बाद उन्हें मिल रही हूं। सोच रही हूं ये वही हैं, जो एम.एच.एस.सी. और बी. एड. मेरिट होल्डर और गोल्ड मेडलिस्ट रहीं है। कितना बदल जाता है हम लड़कियों का जीवन। शादी के बाद तो मानो हर घड़ी हर समय आपको केवल अपने नए ‘अस्तबल’ के हिसाब से जमना है। जी हां अस्तबल। जहां कहने को तो आपको खाने को, पीने को, रहने को सब है ऐसा दिखता है, लगता है। पर बस नहीं है तो स्वतंत्रता। अपने मन को किसी पिंजरे में कैद कर के सामने वाले की गुलामी मंजूर कर लो।
उनको शादी कर के आते ही ‘महिला बाल विकास अधिकारी’ के लिए अपॉइंटमेंट लेटर मिला था। ये केवल एक ही नहीं, कई और नौकरियां उनकी योग्यता से, उन्हें अपने दम पर मिल रही थीं। जहां उनकी शादी की गई थी उस घर में सभी पढ़े-लिखे नौकरी पेशा थे। बावजूद इसके किसी ने उनकी अहमियत नहीं समझी। उन्हें घरेलु महिला का ‘ऑप्शन’ दिया जो ‘कम्पलसरी’ था। उनके हसबेंड खुद उस समय इंजीनियर थे पर शहर से बाहर नौकरी करते थे। उनकी जेठानी, ननदें, सासू सभी तो नौकरी करतीं थीं। जेठ भी शहर से बाहर थे जेठानी भी। दोनों अलग-अलग जगह थे। बावजूद इसके उन्हें नहीं जाने दिया गया। आज तक कारण समझ नहीं आया। इतनी बड़ी पोस्ट थी, वो भी सरकारी। उन्होंने भी आवाज क्यों नहीं उठाई ये मैं आज तक समझ नहीं पाई। पढ़ी-लिखी तो वे भी थीं न। उनका दर्द समझने की कभी कोशिश नहीं की किसी ने भी।
शिकायत मुझे सबसे पहले उनके घर वालों से है। जिन्होंने शादी के बाद अपनी बेटी के लिए ससुराल वालों से बात करना जरुरी नहीं समझा। क्या केवल हम अपनी बेटियों को इसलिए पढ़ाते-लिखाते हैं कि उन्हें डॉक्टर, इंजीनियर या ऊंचे पद पर काम करते लड़के मिल जाएं बस। बुद्धि विकास और आत्म सम्मान जागने न पाए। शादी होते ही छोड़ गए, इस बात से खुश कि यूपी के हिसाब से लड़की की शादी कम से कम खर्चे में बिना किसी डिमांड के निपट गई। इंजीनियर लड़का मिल गया। कोई अपनी बेटियों से इतना बेजार कैसे हो सकते हैं? उन्हें सास के पास छोड़ दिया गया। घर की किसी भी महिला सदस्य ने उनके दर्द को नहीं समझा। वो अब घर की अटेंडर हो चली थी। कोई भी उसकी दशा समझने तैयार नहीं। यहां तक कि उनका पति भी परिजनों के आगे मुंह नहीं खोल पाया। कहने को तो सभी उच्चशिक्षित थे पर घटिया विचारधारा का गढ़।
मेरी और उनकी शादी में लगभग पांच महीनों का ही अंतर रहा होगा। वो मुझे बड़ी हसरतों से देखतीं। मैं उनसे काफी छोटी हूं। हां, वो चूंकि एम.एच.एस.सी. गोल्ड मेडलिस्ट रहीं तो निश्चित ही हुनरमंद तो थीं ही, इसमें कोई शक नहीं। परन्तु न तो कोई उन्हें उनके पति के पास भेजने की पहल करता न उनके भविष्य के बारे में विचार करता। सभी अपने अपने हिसाब से उनका इस्तेमाल करते साड़ी में फॉल लगवाने से लेकर खुद के बच्चों को उनके भरोसे छोड़ के नौकरी करने जाने तक। सासू की सेवा, ननदों के बच्चे, रोटा-पानी, आवक-जावक का आतिथ्य, सिलाई-बुनाई जैसी बातों में उनकी जिंदगी ‘खर्च’ होने लगी जिसमें खुद के लिए बचत का कोई कॉलम नहीं था। केवल टाइम पास जिन्दगी। सच है नर्म-नर्म फूलों का भी रस निचोड़ लेती हैं बड़े पत्थर दिल होते हैं तितलियों के सीने में भी।
नई नवेली वो, बिना पति के अपने बाकी ससुरालवालों के साथ दिन काट रही थी। ननदों के टिफ़िन बनाना, उनके बच्चों को रखना, सासू के आदेश मानना, सबकी सेवा करना इन सब बातों से वो चिढने लगी होगी। पर क्या कभी उसके मां-बाप और भाइयों ने नहीं सोचा होगा की हमारी एकलौती लाड़ली बेटी-बहन के जीवन का अमूल्य समय ‘जाया’ हो रहा है। काफी संपन्न परिवार था। वहां भी सभी पढ़े-लिखे थे। बेटी को ऐसे फेंक गए। और जब उसकी मां ने साथ दिया भी तो उनकी जिंदगी तो दूसरों के लिए गिरवी रखी जा चुकी थी। उनकी अंतरात्मा की एक बार पुकार तो सुनते। कोई मजबूरी भी नहीं थी। न ही कोई कमी। पर उन्हें तो लड़का इंजीनियर मिला बिना दहेज के। पैसे बच गए। समाज में शान हो गई। इससे ज्यादा उन्हें कुछ और चाहिए था भला?
कहते हैं औरतों की दुनिया मां की कोख से शुरू होती है, पिता के पैरों से गुजर कर पति व ससुराल की खुशियों की गलियों से होती हुई अपने बच्चों के सपने पूरे करने में बीतती है। इन्होनें तो अपने जेठ-जेठानी, ननदों के बच्चों के साथ खुद के बच्चों के सपने भी अपने खून से सींचे। खुद को ख़त्म कर के।
पर अन्याय ज्यादा दिन नहीं चलता। पता नहीं क्या हुआ जो उन्होंने बगावत कर दी। जिसमें काफी देर हो चुकी थी। पर देर आयद दुरुस्त आयद। उन्होंने परेशान हो खुद पर ‘चंडी’ चढ़ा ली। मजबूरन अपने पति के साथ कुछ समय के लिए रहने, घूमने की मोहलत मिली। वहां उन्होंने क्या देखा क्या समझा पता नहीं पर उन्होंने अब पति के साथ रहने की ठान ली। अपना निर्णय सुना दिया। और वे चली गईं। पता नहीं क्या हुआ वे फिर से ससुराल अपने बेटे के साथ रहने लगीं। चूंकि मेरी शादी हो चुकी थी काफी सारी बातें मालूम ही नहीं हो पातीं थी। पारिवारिक राजनीति, षडयंत्र, जाल कब बन जाते? क्यों रच दिए जाते? अपनों में इतना बैर-भाव कैसे उपज जाते समझ नहीं आता।
मुझे एक औरत का भविष्य गर्त में जाता दिख रहा था। मैंने एक बार हिम्मत कर के अपने कॉलेज में उन्हें नौकरी के लिए डेमो दिलवाया पर तब तक उनका आत्मविश्वास खो चुका था। वो खुद बोलीं कि वो क्लास में घबरा गईं थीं। शायद ही इस पाप से सभी दोषी मुक्त हो पायेंगे जिन्होंने उन्हें इस हाल में पहुंचाया था।
आश्चर्य इस बात का है कि जहां की ये कहानी है वो सभी कथित नौकरीपेशा, उच्च शिक्षित लोगों का परिवार है। पर अंदर से ऐसी सड़ांध मारती कहनियां भी हैं। उनकी ननद खुद नौकरी करती रही और अपने बच्चे उनके भरोसे छोड़-छोड़ के जाती रही। अपने ससुराल को छोड़ यहां पीहर में। पर उसने भी कभी अपनी भाभी के बारे में नहीं सोचा। उनको भी इच्छा होती होगी... ऐसा कभी महसूस नहीं किया। उनकी जेठानी, उसने कभी नहीं सोचा कि देवरानी के पक्ष में अपनी बात रखे? सभी ने उनको माध्यम बनाया और अपना स्वार्थ निकाला। बचा-खुचा सास-ससुर की जिम्मेदारी उनके कंधे पर टांग कर सब अपनी अपनी ऐय्याश जिन्दगी जीने में मगन हो गए।
पता नहीं उन्हीं का दम और सहन शक्ति थी, या मजबूरी जो उनहोंने इन सभी स्थियों को अपनी किस्मत मान लिया। जब मां-बाप, भाई- बहिन आपके हित के लिए खड़े नहीं होंगे तो शोषण अपनी सारी सीमाएं तोड़ देता है खास कर तब और जब आपकी बेटी आत्मनिर्भर नहीं है। यहां कुर्बानी उनकी हुई थी... उनकी योग्यता की, उनके स्वाभिमान की, उनके सपनों की, उनके अरमानों की. मत पूछिये कुर्बानी अच्छी होती है या बुरी पर इतना जान लीजिये की मरने का दर्द सबको होता है। उनको भी अपनी कुर्बानी का दर्द तो होता ही होगा, होना भी चाहिये।
प्रेम एक चौराहा है जहां से विरह, विश्वास, प्रतीक्षा, पीड़ा के मार्ग निकलते हैं। इन मार्गों से निकलने वाली अनंत उलझी गलियों का जाल। वो शायद इसी में उलझ गई। सास-ससुर की सेवा उन्हीं के हिस्से में है। क्योंकि बाकि सब तो नौकरी करते हैं न? कैसे सम्हालते? उसे तो कोई काम होता नहीं न। नौकर हैं घर में। उसकी क्या जिंदगी? उसे तो यही करना था। उसके बच्चे बाहर हैं। पति रिटायर हो गए। जेठ के बच्चे विदेशों में घर बसा चुके। ननदें अपने घरों में मस्त हो गईं। पारिवारिक राजनैतिक चौसर के सारे खिलाड़ी केवल उसकी ‘गोट’ पीटते रहे और खुद बोनस अंक और दाम पाते रहे। इसमें होने वाली सारी सामाजिक-पारिवारिक बुराइयों का ठीकरा उसी के माथे फूटा क्योंकि ये उसको अपने सास-ससुर की बेइंतहा ‘सेवा’ का ‘फल’ था। जिससे सबने पल्ला झाड़ लिया है।
मैं उन्हें देख रही हूं, अपनी सासू की सेवा करते हुए, बिखरी हुई जिन्दगी की किरचें सम्हाल कर हंसी में छुपा कर जीते हुए, और कुछ- कुछ खुद को भी दोषी मानते हुए। शर्मिंदा होती हुई देखती रही उन्हें... अपने बच्चों से खिलखिला के बात करते हुए, जिन्हें उन्होंने बरसों बाद देखा था। मैं जो इतना लिखती हूं, बुद्धि की बातें उकेरती हूं, विचारों का क्रान्तिकारी सैलाब लिए चलती हूं, मैं क्यों न कुछ कर पाई उनके लिए? क्यों छोड़ दिया उन्हें उनके हाल पर? शायद कोई हल निकलता। ये जानते हुए भी की महिलाओं की पढाई-लिखाई और नौकरी सिर्फ उनकी कमाई का जरिया नहीं होतीं बल्कि उनके स्वाभिमान और स्वाधीनता और आर्थिक निर्भरता का आसरा व प्रतीक होती है। दोषी तो मैं भी हूं. पाप कम हो या ज्यादा पाप ही होता है। मुझसे भी हुआ।
अपने जमीर को जिन्दा रखने के लिए मैं केवल माफ़ी मांग सकती हूं। पर सोचती हूं क्या कोई इस पाप से मुक्त हो पायेगा जिन्होनें इनके सपनों, हसरतों, अरमानों को बेरहमी से कुचला. उनके जीवन को मशीन समझ अपने रिमोट से चलाया। कभी नहीं... क्योंकि कोई भी अपने अनंत जन्मों में भी उसका खोया समय नहीं लौटा पायेगा। उसकी सेवा का मोल नहीं चुका पायेगा। औकात और हैसियत ही जो नहीं है किसी की भी....