क्या तनिष्क विवाद के बाद भी दोहराई जाएगी 'विवेक' कथा?

श्रवण गर्ग

रविवार, 18 अक्टूबर 2020 (15:25 IST)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जब महाराष्ट्र से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका से अपने साक्षात्कार में कहा होगा कि पूरी दुनिया में भारत के मुस्लिम ही सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं, तब वे निश्चित ही कल्पना नहीं कर पाए होंगे कि एक राष्ट्रभक्त पारसी समूह और दक्षिण भारत के एक सार्वजनिक उपक्रम द्वारा संयुक्त रूप से संचालित आभूषण बनाने वाली कम्पनी तनिष्क द्वारा जारी किए जाने वाले वीडियो विज्ञापन के बाद राष्ट्रवादियों के झुंड उनके कहे की इस तरह से धज्जियां उड़ा देंगे! इस हिंदी पत्रिका का नाम ‘विवेक’ बताया जाता है और भागवत का साक्षात्कार प्रकाशित होने के कोई पांच दिन बाद ही ‘तनिष्क’ के खिलाफ मचे ‘सोशल बवाल’ ने देश में हिंदू-मुस्लिम सम्बंधों ‘ज़मीनी विवेक’ की ‘गोद भराई‘ कर दी।

भारतीय त्योहारों के अवसर पर जारी किए जाने वाले अनूठे विज्ञापनों की तनिष्क की एक लम्बी श्रृंखला है। विवाद का मुद्दा बनाए गए वीडियो विज्ञापन में एक ऐसी गर्भवती हिंदू महिला की ‘गोद भराई’ की रस्म के अत्यंत ही भावपूर्ण दृश्य हैं, जिसका विवाह एक मुस्लिम परिवार में हुआ है। ससुराल में हिंदू परम्परा के दृश्य से अभिभूत महिला जब अपनी मुस्लिम सास से सवाल करती है कि ऐसी रस्म तो उनके यहां नहीं होती तो वह (सास) जवाब देती है कि बेटी को ख़ुश रखने की रस्म तो हर घर में होती है। बवाल मचाने वालों ने अपनी ‘जनता ट्रायल’ में विज्ञापन को ‘लव-जिहाद’ को बढ़ावा देने वाला ठहरा दिया।

विरोध से घबराकर ‘तनिष्क’ ने अपने कर्मचारियों की हिफ़ाज़त के हित में विज्ञापन को वापस ले लिया। जिन लोगों ने विरोध किया वे उस 26/11 की बर्बरता को भूल गए, जब पाकिस्तानी आतंकवादियों ने इसी टाटा समूह के मुंबई स्थित ‘ताज होटल’ को खून की होली का मैदान बना दिया था और उसके सभी वर्गों के कर्मचारियों ने अपनी जानों की क़ुर्बानी देकर मेहमानों की जानें बचाई थीं।

मोहन भागवत एक बहुत ही विचारशील व्यक्ति हैं। ऐसा माना जाता है कि वे काफ़ी सोच-विचारकर ही कुछ कहते हैं, जिसमें यह भी शामिल होता है कि उनके कहे के बाद उसकी धार्मिक-राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या हो सकती है! पर सवाल यह भी है कि भागवत या अन्य कोई विचारक कभी भी यह दावा क्यों नहीं करते कि दलित और पिछड़े वर्गों के लोग भी सबसे ज़्यादा भारत में ही संतुष्ट हैं?

जब किसी प्रतिष्ठित हिंदू संगठन के सम्मानित व्यक्ति द्वारा केवल एक समुदाय विशेष को लेकर ही इस तरह का कोई दावा किया जाता है तो उससे जो ध्वनि निकलती है, वह कुछ अलग तरह से महसूस की जाती है। और वह यह कि जिन लोगों की संतुष्टि की बात कही जा रही है, उन्हें तो वास्तव में भारत देश में उस तरह से निवास करने की नैतिक पात्रता ही नहीं है, जैसी कि बाक़ी वर्गों और समुदायों को है। इस सवाल को तो खैर कोई उठा ही नहीं सकता कि सभी हिंदू भी वास्तव में संतुष्ट हैं या नहीं जबकि भारत को ‘मूलतः’ उन्हीं का देश माना जाता है। ऐसा मानकर चला जाता है कि अगर रहवासी बहुसंख्यक समुदाय का है तो उसके असंतुष्ट होने का तो कभी कोई कारण हो ही नहीं सकता।

हक़ीक़त यह है कि लगभग सभी राजनीतिक दल, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है, स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशकों से ज़्यादा समय बाद भी करोड़ों की एक बड़ी आबादी को कोई ‘आत्माधारी’ शरीर नहीं बल्कि एक ‘विषय’ (सब्जेक्ट) मानते हैं। इन दलों के सामने सवाल इस आबादी को विकास (या विज्ञापनों में भी!) बराबरी की भागीदारी प्रदान कराने का नहीं बल्कि यह है कि उसे अपने आपको देश की ‘मुख्यधारा’ में शामिल होने के बारे में सोचना चाहिए। उस मुख्यधारा में जो कि उसके लिए अदृश्य बना दी गई है।

भारत को इस आबादी का देश ही नहीं माना जाता। उसे एक ऐसा मेहमान या शरणार्थी समझा जाता है, जो या तो ट्रेन छूट जाने के कारण अपने लिए निर्धारित वतन को रवाना नहीं हो पाया या फिर वह जान-बूझकर ही विलम्ब से स्टेशन पर पहुंचा। यह कोई नहीं बताता कि ‘मुख्यधारा’ आख़िर किस कसौटी या बलिदान को माना जाएगा! तनिष्क के विज्ञापन की बात करें तो उसकी एक परिभाषा यही निकलती है कि बहू अगर मुस्लिम और सास हिंदू होती तो ‘गोद भराई’ देश की मुख्यधारा में शामिल मान ली जाती।

दलित महिलाओं के साथ उच्च वर्गों से सम्बंध रखने वाले अपराधियों द्वारा बलात्कार, रात के अंधेरे में उनका प्रशासन द्वारा शव-दाह और सत्ताओं में बैठे लोगों (उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओड़िशा आदि सभी शामिल हैं) द्वारा उनका बचाव- यह देश की कौन सी मुख्यधारा है, जिसके ज़रिए हम दुनिया की महाशक्ति बनना चाह रहे हैं?
चिंता इस बात की नहीं है कि एक पारसी मालिक के आधिपत्य वाली कम्पनी द्वारा जारी विज्ञापन का इतने आक्रामक तरीक़े से विरोध किया गया (गांधीधाम, गुजरात में तो धमकियों के बाद ‘तनिष्क’ के एक शोरूम के बाहर एक माफ़ीनामा उसके मैनेजरों को गुजराती भाषा में चिपकाना पड़ा) कि उसे आनन-फ़ानन में वापस लेना पड़ा और टाटा समूह की समूची देशभक्ति कठघरे में खड़ी कर दी गई, ज़्यादा क्षोभ यह है कि सत्ता और संगठनों के उच्च पदों पर बैठे लोगों ने भी इस नए क़िस्म के राष्ट्रवाद पर अपनी कोई आपत्ति या प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की।

सवाल यह भी है कि जब अतिविशिष्ट लोगों के द्वारा इस तरह के दावे किए जाएं कि मुस्लिम सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं, महिलाएं सबसे ज़्यादा सुरक्षित हैं, दलितों और पिछड़ों के सम्मान की पूरी रक्षा की जाएगी तो उस पर कोई सवालिया निशान क्या केवल उन लोगों के द्वारा ही लगाए जाने चाहिए जो कि वास्तव में पीड़ित हैं या फिर उनके द्वारा भी जो राजनीतिक शोषण की समूची व्यवस्था को मज़बूत करने में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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