बिहार में विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण या इंटेंसिव रिवीजन का इलेक्टरल रोल जिस तरह विरोध और हंगामा का विषय बना है वह अनपेक्षित कतई नहीं है। कांग्रेस पार्टी और अनेक भाजपा विरोधी दल, एक्टिविस्ट, पत्रकार एनजीओ आदि काफी समय से चुनाव आयोग विरोधी तीखा अभियान चला रहे हैं। राहुल गांधी तो पुनरीक्षण आरंभ होने के पहले से ही आरोप लगा रहे हैं कि हेर-फेर कर भाजपा को जीताने का काम चुनाव आयोग करेगा। ALSO READ: बिहार में 1 लाख मतदाता 'लापता', चुनाव आयोग के SIR में हुआ खुलासा
विरोधी बार-बार आयोग के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय जाते और निराश वापस आते हैं। उच्चतम न्यायालय ने इस बार भी पुनरीक्षण प्रक्रिया रोकने की उनकी अपील खारिज कर दिया। हालांकि आगे वह सुनवाई के लिए सहमत हुआ है। सुनवाई के एक दिन पहले आईएनडीआईए की ओर से राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में बिहार की राजधानी पटना में चुनाव आयोग के कार्यालय तक मार्च किया गया।
वैसे इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चुनाव आयोग के आंकड़े के अनुसार लगभग 85 प्रतिशत पुनरीक्षण फॉर्म मतदाताओं ने जमा कर दिए। चुनाव आयोग का विज्ञापन कहता है कि गणना प्रपत्र भरने की अवधि 25 जून से 26 जुलाई है और मतदाता सूची का प्रारूप प्रकाशन 1 अगस्त, 2025 को होगा। दावे और आपत्तियों की अवधि 1 अगस्त से 1 सितंबर, 2025 है और अंतिम मतदाता सूची का प्रकाशन 30 सितंबर, 2025 को किया जाएगा। इसका अर्थ हुआ कि किसी का नाम छूट गया तो दावा करने के लिए एक महीने का समय है। तो बिना देखे कि किसका नाम जुड़ा, नहीं जुड़ा इस तरह के विरोध का औचित्य क्या है?
आयोग पर पहला आरोप है कि वह इतनी जल्दी बड़े प्रदेश के मतदाताओं की सूची कैसे बना लेगा? जब 2002 में मतदाता सूची का बिहार में पुनरीक्षण हुआ था तब 15 जुलाई से 14 अगस्त यानी वर्तमान के अनुसार ही 31 दिन का समय था। क्या 22- 23 वर्ष के बाद मतदाता सूची की गहनता से जांच परख नहीं होनी चाहिए? अगर चुनाव आयोग ने इसके लिए आवश्यक जनसंपर्क और आधार कार्य नहीं किया तो आलोचना होगी।
मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा है कि पिछले 4 महीने में प्रत्येक विधानसभा, जिला में सर्व दलीय बैठक की गई और लगभग 5 हजार ऐसी बैठकों में 28 हजार लोगों ने भाग लिया। आयोग ने लगभग 80 हजार बीएलओ या बूथ लेवल ऑफिसर नियुक्त किए हैं जो मतदाताओं के घर पहुंच रहे है।
राजनीतिक दलों ने भी 1.54 लाख बूथ लेवल एजेंट बीएलए बनाए हैं। भारी संख्या में स्वयंसेवक भी सक्रिय हैं। कुल 16 करोड़ इन्यूमरेशन फॉर्म प्रकाशित किए गए। एक फॉर्म रिसिप्ट के रुप में मतदाता के पास रहेगा और दूसरा बीएलओ रखेंगे। ऑनलाइन पोर्टल पर भी फॉर्म जमा करने की व्यवस्था है। इसलिए यह नहीं कह सकते कि ड्राइव बिल्कुल अव्यावहारिक है।
पहचान सुनिश्चित करने पर चुनाव आयोग के जोर का सबसे तीखा विरोध हो रहा है। जिन 11 दस्तावेजों की सूची आयोग ने रखी है उसे पढ़ने पर कठिनाई का आभास होता है। पहले कुछ तथ्य पर बात करें। 1 जनवरी, 2003 की सूची में मतदाताओं की संख्या 4 करोड़ 96 लाख थी। वर्तमान में यह संख्या 7 करोड़ 89 लाख है। तो लगभग 2 करोड़ 93 लाख मतदाताओं को ही पहचान सुनिश्चित करनी होगी।
जिन मतदाताओं के नाम 2003 में है उसके अलावा जिनका नाम आया उनको ही जन्मतिथि, जन्म स्थान आदि साबित करने वाले दस्तावेज देने होंगे। उनमें भी माता-पिता का नाम 2003 मतदाता सूची में है तो माता-पिता की पहचान साबित करने के लिए दस्तावेज देने की आवश्यकता नहीं। केवल 2003 वाली मतदाता सूची के उस हिस्से की कॉपी बीएलओ को देनी होगी जिसमें उनके माता-पिता का नाम लिखा है। जिनके नाम 2003 में है उन्हें केवल उसकी फोटो कॉपी बीएलओ को फॉर्म जमा करते समय देनी है जिसमें उनका नाम है।
क्या 2003 की मतदाता सूची में नाम न होने वाले के पास अगर जन्मतिथि तथा जन्म स्थान साबित करने के प्रमाण नहीं हो तो नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं होगा? इसकी आशंका है। पर आयोग का कहना है कि दस्तावेजविहीन व्यक्ति की भारतीय पहचान को सुनिश्चित करने का काम क्षेत्र के एसडीम करेंगे और उनके कागजात का पता लगाने के लिए वालंटियर नियुक्त किए गए हैं।
किसी की पहचान साबित करने का बिल्कुल दस्तावेज नहीं मिलता या उसे गली-मोहल्ले में भी कोई पहचानता नहीं है तो ऐसे लोगों का नाम काट दिया जाएगा। आयोग ने कहा है कि यदि आवश्यक दस्तावेज तथा फोटो उपलब्ध नहीं है तो प्रपत्र भरकर बीएलओ को जमा कर दें। निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी द्वारा स्थानीय जांच या अन्य दस्तावेज के साक्ष्य के आधार पर निर्णय लिया जा सकेगा।
सामान्य तौर पर विचार करें तो मतदान की दृष्टि से बहुत ज्यादा कागजातों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। एक समय कोई पहचान पत्र लेकर जाने की आवश्यकता नहीं थी और मतदान केंद्र पर केवल राजनीतिक दलों के पोलिंग एजेंट बताते थे कि ये अमुक व्यक्ति हैं या नहीं। यह अत्यंत सरल व्यवस्था थी।
लोकतंत्र मतदाताओं, राजनीतिक दलों और अधिकारियों सबकी नैतिकता, ईमानदारी और व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है। बूथ लूट से लेकर फर्जी मतदाताओं की घटनाओं ने धीरे-धीरे पहचान सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को जटिल बना दिया है। यह किसी के हित में नहीं किंतु वर्तमान ढांचे में इसके विकल्प की कल्पना ज्यादा चिंताजनक दिखने लगती है।
बिहार में चुनाव आयोग ने यह डरावनी जानकारी दी है कि पुनरीक्षण में ऐसे विदेशी नागरिक मिले जो मतदाता बन चुके हैं। उनकी जानकारी गृह मंत्रालय को दी जा रही है और नागरिकता सुनिश्चित होने के बाद ही तय होगा कि वे मतदाता रहेंगे या नहीं। राजनीतिक दलों ने इस पर भी तूफान खड़ा कर दिया । क्या यह उचित है? निस्संदेह, आधार कार्ड या राशन कार्ड बनवाना आसान नहीं होता। इसलिए चिंता का विषय है कि यह हमारी नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं है।
आधार को सबसे सुरक्षित माना गया। देश भर में फर्जी आधार कार्ड पकड़ में आ रहे हैं। अवैध अप्रवासियों घुसपैठियों तक के आधार कार्ड बने हुए हैं। बिहार के भारी मुसलमान जनसंख्या वाले चार सीमांचल जिलों में आधार कार्ड के आंकड़े हैरत में डालते हैं। बिहार में औसत आधार कार्ड आबादी के 94% है। किशनगंज में 68 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है और आधार सैचुरेशन 126 प्रतिशत है, कटिहार (44%) में 123%, अररिया (43%) में 123%, और पूर्णिया (38%) में 121% आधार सैचुरेशन है।
आबादी से अधिक आधार कार्ड कैसे बने हुए हैं? पिछले वर्ष अररिया में एक बंगलादेशी घुसपैठियों पकड़ा गया जिसके पास पश्चिम बंगाल के 24 परगना से बना आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र था। बांग्लादेशी घुसपैठियों की लड़ाई केवल असम और बंगाल में नहीं बिहार के इन सीमांचल जिलों में भी रही है
स्थानीय पुराने लोग उनके बारे में कुछ जानते हैं लेकिन ज्यादातर की कई पीढ़ी हो चुकी है और उनके अलग बस्तियों में होने के कारण पहचान मुश्किल रहती है। क्या विरोधियों के दबाव में उन सबकी जांच नहीं होनी चाहिए? संविधान की धारा 326 चुनाव आयोग को भारतीय नागरिकों को मतदाता के रूप में अंकित करने का अधिकार देता है। हालांकि नागरिकता की पहचान चुनाव आयोग की जिम्मेवारी नहीं है। इसीलिए उसने गृह मंत्रालय को मामला स्थानांतरित किया है।
विरोधी चाहे इसे एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को परोक्ष रूप से लागू करना माने या कुछ और किंतु भारतीय नागरिकों तक ही मतदान की व्यवस्था और पूरी मतदान प्रणाली की शुचिता तथा भारतीय सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से सतर्कता आवश्यक है। बावजूद मेरा मानना है कि पहचान सुनिश्चित करने के कागजात के संदर्भ में स्पष्ट राष्ट्रीय नीति हो जो विदेशियों घुसपैठियों को तो सामने ले परंतु किसी पात्र भारतीय के लिए तनाव और परेशानी का कारण न बने।
आधार और राशन कार्ड पर उच्चतम न्यायालय ने चुनाव आयोग को विचार करने का सुझाव दिया है। इन्हें सुरक्षित बनाया जाना अति आवश्यक है। आधार के पीछे कल्पना यही थी कि इससे अनेक कार्डों की आवश्यकता खत्म हो जाएगी। दूसरे, स्थानीय लोग किसी के भारतीय होने की पुष्टि करते हैं तो पंचायत, प्रखंड ,अनुमंडल सबको पहचान सुनिश्चित करने के लिए दस्तावेज उपलब्ध कराने का दायित्व लेना चाहिए।
एक बार मतदाता सूची का प्रारूप आ जाने दीजिए और देखिए कि कितने लोग पात्र लोग इससे वंचित होते हैं। अगर संख्या बहुत ज्यादा होती है तो उसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए। जहां एक भी पात्र नागरिक सूची में स्थान पाने से वंचित नहीं हो वही एक भी अपात्र उसमें शामिल नहीं हो यह भी आयोग, राजनीतिक दलों, प्रशासन और हम सबका दायित्व है।ALSO READ: बिहार में 5.76 लाख से ज्यादा मतदाता कई क्षेत्रों में पंजीकृत, चुनाव आयोग की जांच में हुआ खुलासा
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)