सालभर की योगी सरकार के लिए उपचुनावों के ये नतीजे बेहद चौंकाने वाले हैं, होने भी चाहिए, क्योंकि दो धुर विरोधियों- सपा-बसपा गठबंधन के साथ आने से उनके वोट बैंक ने गुल खिला दिया। इसी तरह बिहार में लालू-नीतीश के धर्मनिरपेक्ष गठबंधन से हटकर भाजपा के साथ हाथ मिलाना और अररिया सीट का हाथ से निकल जाना भी इसी फैक्टर से जुड़ा हुआ है। इसे नीतीश की धर्मनिरपेक्ष छवि पर उठ रहे सवालों का जवाब कहा जाएगा। उप्र की दोनों सीटें मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की अपनी खाली की हुई थीं। दोनों पर हार के बहुत गहरे मायने हैं।
29 सालों के बाद गोरखपुर में भाजपा की हार वह भी खुद योगी के घर में, जो 1989 से लगातार गोरखनाथ मंदिर के पास है तथा 1989 से 1998 तक योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ लगातार 3 बार सांसद रहे। उनके बाद से योगी आदित्यनाथ लगातार 5 बार से चुनाव जीतते आ रहे हैं।
इसी तरह 2014 के आम चुनाव में फूलपुर की ऐतिहासिक सीट पर पहली बार भाजपा कमल खिलाने में सफल रही थी और केशव प्रसाद मौर्य यहां से जीतकर दिल्ली पहुंचे थे, लेकिन बीते साल उप्र की सत्ता में उपमुख्यमंत्री बनने के बाद इतने कम समय में हार निश्चित रूप से बड़ी बात है। यह बात अलग है कि उत्तरप्रदेश में समानांतर राजपाट की राजनीति भी काफी सुर्खियों में रही, वहीं योगी सरकार के एनकाउंटर भी जबरदस्त चर्चाओं में थे। लेकिन बिहार के हालातों में कहा जा सकता है कि वहां नीतीश का जादू फीका पड़ा और भाजपा के साथ जाने से धर्मनिरपेक्ष छवि को चोट पहुंची। हालांकि यह सीट आरजेडी की ही थी, जो नए गठबंधन के लिए बड़ी चुनौती थी जिसमें हार का मुंह देखना पड़ा।
भले ही भाजपा कहे कि उसने अभी हुए विधानसभा के चुनावों में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में अपना झंडा गाड़ दिया है, जहां नॉर्थ-ईस्ट में जीत को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के कई भाषण आए वहीं उत्तर-मध्य भारत में कुछ ही दिनों पहले उपचुनावों में कांग्रेस ने राजस्थान की अजमेर और अलवर की लोकसभा सीट और मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर बड़ी जीत हासिल की, वहीं तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल की नवपाड़ा विधानसभा सीट और उलुबेरिया संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के उपचुनाव में जबर्दस्त जीत दर्ज की। इसी प्रकार मध्यप्रदेश में मुंगावली सीट और कोलारस सीट पर विधानसभा का उपचुनाव कांग्रेस ने जीत लिया है और दोनों सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा। उप्र की हार को योगी का रिपोर्ट कार्ड कहा जाए या मोदी की अग्निपरीक्षा? इसको लेकर भी काफी बहस होनी है। ये भी सवाल उठेंगे कि जब जीत का श्रेय योगी को दिया जा सकता है तो हार का सेहरा किसके माथे पर?
बहरहाल, जम्मू-कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र तक शिखर पर पहुंची भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती ऊंचाइयों पर टिके रहने की है और इसके लिए क्या केवल मोदी ही हैं? निश्चित रूप से किसी भी लोकसभा उपचुनाव में मोदी की सभा नहीं लेकिन योगी की सभाएं तो हुईं। तो फिर क्या कहीं ये मायने तो नहीं कि सामाजिक समीकरण बदल रहे हैं, गैरभाजपावाद की ओर विपक्षी दल उसी तरह बढ़ रहे हैं जिस तरह 'कांग्रेसमुक्त भारत' की बातें भाजपा की ओर से होती हैं। इन नतीजों ने विपक्षी एकता ने नई संभावनाएं दिखा दी हैं या ये बता दिया है कि विपक्षियों का वोट प्रतिशत मिल जाए तो ये भाजपा से बहुत आगे जा सकता है और ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में राजनीति इसी दिशा में ही बढ़ेगी। कम से उप्र में भाजपा को बड़ी चुनौती मिलेगी।
लेकिन यह भी याद रखना होगा कि देश की राजनीति की दिशा उप्र से तय होती है, ऐसे में तमाम सोशल इंजीनियरिंग और धर्म बनाम जाति और जाति बनाम धर्म की राजनीति दिखेगी और मतों के ध्रुवीकरण की फिर से नए सिरे से एकजुट विपक्ष कवायद करेगा और ऐसा हुआ तो भाजपा के लिए चुनौती अवश्यंभावी है जिसका भारतीय राजनीति में बहुत गहरे असर से इंकार नहीं किया जा सकता।
इस नतीजे के मायने दरअसल हैं क्या? गैरभाजपावाद की ओर विपक्षी दल उसी तरह बढ़ रहे हैं जिस तरह 'कांग्रेसमुक्त भारत' की बातें भाजपा की ओर से होती हैं। उप्र में भाजपा को बड़ी चुनौती मिलेगी लेकिन यह भी याद रखना होगा कि देश की राजनीति की दिशा उप्र से तय होती है। कहीं मतदाताओं का ध्रुवीकरण या बेचैनी तो नहीं, जो भाजपा के लिए 2019 के आम चुनावों के लिए खतरे की घंटी है? इन सबके बीच विपक्षी एकता के साथ कांग्रेस को अपना वजूद बढ़ाने और स्वीकार्ययोग्य बनाने के लिए भी कठोर तप करना होगा।