हिन्दी कविता : मैं सेना का जवान हूं

प्रहलाद सिंह कविया

माना की घर से दूर हूं,
यूं ना समझो कि मैं मजबूर हूं।
तीर्थान्कर काशी गंगा सा पावन हूं,
जो पतझड़ में हरियाली लाए वो सावन हूं।।
बेटे के घर आने की आस संजोती,
बुढी मां की आस हूं।
विरह वेदना में तड़पती,
नववधू की प्यास हूं॥
राहों को तकती आंखों का पानी हूं,
मजबूरी में की गई मनमानी हूं।
विरह-मिलन की रसहीन कहानी हूं,
श्रृंगार सजी दुल्हन की तन्हा जवानी हूं॥
भाई-बहन का सम्मान हूं,
बाबा का अभिमान हूं।
चौपालों में सजी मंडली का अंग हूं,
होली में उड़ता गुलाबी रंग हूं॥
अभी मैं आ नहीं सकता मां,
बस थोड़ी सी मजबूरी है।
मां तुम चिन्ता मत करना,
बस कुछ कोसों की ही दूरी है॥
वादा है अबकी बार मैं,
होली पर आऊंगा।
गुडिया को अपने हाथ से,
झूला झुलाऊंगा।
पापा की खातिर मखमली,
कम्बल लाऊंगा।
मां तेरी खातिर कश्मीरी,
स्वेटर लाऊंगा॥
जाने कितने ही वादे हम,
वधुओं से किए जाते।
ना जाने फिर क्यूं तिरंगे में,
संग खत के लिपट आते॥
मैं भारत मां के,
शीश मुकुट की शान हूं।
कठिनाई से लड़ता सहता,
मैं सेना का जवान हूं॥

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