महिला दिवस व्यंग्य : पुरुषों ने क्या बिगाड़ा है भला!

8 मार्च अतंर्राष्ट्रीय महिला दिवस तो ठीक है, पर क्यों नहीं कभी पुरुष दिवस मनाया जाता ? आखि‍र वह भी तो इसी धरती का प्राणी है, और पूरे विश्व में उसका अपना अस्ति‍त्व है। फिर क्यों आखि‍र हर पुरुष के इस धरती पर होने का उत्सव नहीं मनाते?

वैसे तो हर साल 19 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस भी होता है, लेकिन यह महिला दिवस की तरह उत्सव जैसा जरा कम ही प्रतीत होता है। मेरा मतलब बिल्कुल भी वह नहीं है, जो आप समझ रहे हैं, हालांकि मुझे नहीं पता कि आप क्या समझ रहे हैं, लेकिन बस अब पुरुष दिवस मनाने को लेकर सरकार से मांग न करने लगिएगा। वरना कहीं ऐसा न हो कि‍, गुर्जर और जाट आंदोलन की ही तरह पुरुष दिवस की मांग को लेकर सड़कें, चौराहे या फिर कोई रेल की पटरियां भर जाए, और इसका सारा ठीकरा मेरे सर फूट जाए।


 
वैसे देखा जाए तो कोई बुराई नहीं है पुरुष दिवस को मनाने में। भई सारे महापुरुषों के नाम तो हमने कोई न कोई दिवस कर ही रक्खा है। और महिलाओं के नाम भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक दिवस इकट्ठा ही कर दिया, ताकि महिलाओं में ही आपस में कोई मनमुटाव न हो जाए कि भारत की महिलाओं के लिए य‍ह दिन और अमरीका की महिलाओं को वो दिन दे दिया, हमें भी य‍ही दिन चाहिए।

भई महिलाएं तो महिलाएं है, लेकिन उनका अपना सम्मान है। पर हम तो पुरुषों की बात कर रहे हैं ना... एक बात बताइए, पुरुषों ने क्या बिगाड़ा है भला? सुबह से लेकर रात तक नौकरी पर हाड़-मांस खपाने के बाद घर पहुंचकर बीवी की फरमाइशें और नखरे उठाने तक सारे जिम्मेदारी भरे काम आखि‍र पुरुष ही तो करता है। और तो और असहमत होने पर भी बीवी की हां में हां मिलाने जैसा कठिन से कठि‍न काम भी उसी के हिस्से आता है।

बीवी के खि‍लाफ या विरोधी धारा में एक लफ्ज़ भी कहने की मजाल उठाने की भी वह मजाल नहीं करता और हम इतने बड़े सहनशील और त्याग के देवता का जरा भी एहसान नहीं मानते।
 
अजी अगर कम लगता है, तो लंबी सी फेहरिस्त भी है पुरुष की महानता के किस्सों की....कितनी बार अपने घर में शांति बनाए रखने के लिए वह दिल पर पत्थर और होंठों पर मुस्कान रखकर झूठ तक बोलता है, जब बीवी पूछती है कि...कैसी लग रही हूं मैं। और कहीं नहीं, तो कम से कम परिवार और बीवी के सामने तो अपनी नजरों के इधर-उधर दौड़ने वाले बटन पर कसकर ब्रेक लगाए रखता पुरुष पूर्णत: पत्नीव्रता बने रहने का जो अथक प्रयास करता है, वह उसके संघर्ष की गहरी गाथा है। यहां तो उसे सराहा जाना ही चाहिए।

हालांकि भले ही कुछ महिलाओं का मानना हो कि सभी मर्द एक से होते हैं, पर हम यह नहीं कह सकते कि सब एक से ही होते हैं। वैरायटी का चलन हर जगह है। दरअसल महिलाओं की तरह ही पुरुष भी धड़ों में बंटा हुआ है, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की तरह।

एक तरफ महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा के लिए मर मिट जाने वाले पुरूष है, तो दूसरी ओर उन्हीं को मारने-पीटने वाले पुरुष। एक तरफ मर्या‍दि‍त और शि‍ष्टाचारी पुरुष हैं, तो दूसरी तरफ मर्यादा का उल्लंघन करते भ्रष्टाचारी। महिलाओं को इज्जत देने वाले पुरुष हैं तो इज्जत लूटने वाले भी। बस यही अंतर पुरुष के दोनों प्रकारों में संतुलन बनाए रखता है और वह पुरुष दिवस की दौड़ तक पहुंच ही नहीं पाता।

महिलाओं की बात अलग है, वे तो प्राचीन काल से ही अपने दैवीय गुणों के लिए जानी जाती हैं, जो उनके लिए बोनस पॉइंट है उसी का फायदा मिलता है अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में।

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