राहुल गांधी ने 26 फ़रवरी को रायपुर में हुए कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन में बताया था कि उनके पास ख़ुद का कोई घर नहीं है। नई दिल्ली में तुग़लक़ लेन स्थित आवास भी उनका अपना नहीं है। उन्हें शायद तभी कोई आभास हो गया होगा कि आगे क्या होने वाला है!
सूरत के न्यायालय द्वारा 23 मार्च को सुनाए गए फ़ैसले के बाद लोकसभा सचिवालय ने संसद सदस्य के रूप में उनकी सदस्यता ख़त्म कर दी है। साथ ही सांसद के तौर पर मिले हुए तुग़लक़ लेन के आवास को भी अब उन्हें महीनेभर के भीतर ख़ाली करना पड़ेगा। तुग़लक़ लेन का घर ख़ाली करके राहुल कहां जाएंगे?
ऊपर की अदालतों के द्वारा अगर सूरत की सज़ा में किसी भी तरह की राहत नहीं दी जाती है तो 22 अप्रैल के बाद के 2 सालों के लिए राहुल गांधी के नए आवास का पता गुजरात या देश की कोई जेल होगी। शनिवार की अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल ने कितने भी लंबे वक्त के लिए अपने नए ठिकाने पर रहने की तैयारी भी दिखा दी।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर उस (फ़िलहाल) अज्ञात जेल की किसी अत्यधिक सुरक्षा प्राप्त कोठरी को राहुल की हैसियत के मुताबिक़ सुविधायुक्त बनाने का काम युद्धस्तर पर प्रारंभ भी कर दिया गया हो। किसी भी बात का अब कोई भरोसा नहीं रहा है।
'मोदी' सरनेम को लेकर दायर किए गए मानहानि के मुक़दमे के एक रुके हुए फ़ैसले ने चौबीस घंटों के भीतर ही एक सौ चालीस करोड़ लोगों के देश की राजनीति को आगे आने वाले सालों के लिए हिलाकर रख दिया। ऐसा ही एक क्षण 12 जून 1975 को तब उपस्थित हुआ था जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने राहुल की दादी इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता को ख़ारिज कर दिया था।
उसके बाद जो घटनाक्रम चला उसने देश की तक़दीर को बदल दिया था। राहुल उस समय पांच साल के थे। अड़तालीस साल बाद किसी और संदर्भ में हो रही इतिहास की पुनरावृत्ति क्या एक बार फिर जून 1975 के बाद बने घटनाक्रम की तरह की ही साबित होगी?
सूरत के फ़ैसले के तत्काल बाद से ही सवाल उठाए जा रहे थे कि राहुल अब क्या करेंगे? राहुल ने उनका भी जवाब दे दिया है। उनके जवाबों ने भाजपा को और ज़्यादा डरा दिया होगा! दूसरी ओर उनके जवाबों से जनता का बचा हुआ डर भी ख़त्म हो गया होगा। विपक्ष और ताकतवर बन गया होगा! मैं भारत की आवाज़ के लिए लड़ रहा हूं। मैं हर क़ीमत चुकाने को तैयार हूं, राहुल ने लोकसभा से निष्कासन के बाद कहा था। वे अब चुनौती दे रहे हैं कि उन्हें जीवनभर के लिए निष्कासित कर दिया जाए, जेल में डाल दिया जाए तो भी लोकतंत्र के लिए उनकी लड़ाई जारी रहने वाली है।
राहुल ने इस क़ीमत को चुकाने की तैयारी दस साल पहले सितंबर 2013 में ही प्रारंभ कर दी थी, जब चुने हुए जनप्रतिनिधियों को न्यायालयों द्वारा दोषी करार दिए जाने के बाद भी विधायिकाओं में उनकी सदस्यता क़ायम रखने संबंधी मनमोहन सिंह सरकार के अध्यादेश की प्रति को उन्होंने सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया था।
राहुल गांधी ने तब कहा था : इस देश में आप भ्रष्टाचार से संघर्ष करना चाहते हैं, चाहे वह कांग्रेस पार्टी हो या फिर भाजपा, हम इस तरह के छोटे-छोटे समझौते करना जारी नहीं रख सकते। हम अगर इस तरह के समझौते करेंगे तो फिर हर जगह करने लगेंगे।
राहुल गांधी ने अगर सितंबर 2013 में अपनी ही यूपीए सरकार के उक्त अध्यादेश का विरोध नहीं किया होता तो 23 मार्च के फ़ैसले के बाद उनकी लोकसभा की सदस्यता पर आंच नहीं आती। यहां यह उल्लेखनीय है कि न सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी का ही उस अध्यादेश को पूरा समर्थन प्राप्त था, बाक़ी सभी दलों के बीच भी उस पर व्यापक सहमति थी।
राहुल जब नई दिल्ली में उस अध्यादेश की प्रति फाड़ रहे थे, मनमोहन सिंह अमेरिका की यात्रा पर थे और वॉशिंगटन में रात का वक्त था। कुछ घंटों के बाद ही वे राष्ट्रपति ओबामा से मिलने वाले थे। अध्यादेश की प्रति को फाड़ने की घटना के कुछ महीनों बाद ही 2014 में मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए। सूरत की अदालत के फ़ैसले के बाद राहुल ने महात्मा गांधी के इस कथन को ट्वीट किया था कि मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है। सत्य मेरा भगवान है, अहिंसा उसे पाने का साधन।
राहुल चाहे 'महात्मा गांधी' नहीं बनना चाह रहे हों, गुजरात की धरती से ही उठा बवंडर उन्हें कुछ-कुछ उसी तरह की भूमिका की ओर धकेल रहा है। इस वक्त कहना मुश्किल है कि राहुल को दी जाने वाली छोटी से छोटी अवधि की हिरासत भी क्या उस लोकतंत्र के लिए एक लंबी आयु की सांस बन जाएगी, जिसको की मुद्दा बनाकर भाजपा उनसे माफ़ी की मांग कर रही है।
राहुल को मिल रही सज़ाओं के डरकर उनके द्वारा प्रधानमंत्री से पूछा गया यह सवाल कि 'अडाणी के साथ उनका रिश्ता क्या है? न सिर्फ़ ख़त्म नहीं होने वाला है उसकी धार और तेज़ाबी हो सकती है! राहुल के जेल चले जाने के बाद उनके सवाल के जवाब की मांग देश की वह जनता कर सकती है, उन्हें जो लाखों की संख्या में 'भारत जोड़ो यात्रा' के दौरान सड़कों पर मिली थी। (इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)