बाबूजी की साइकिल : World Bicycle Day With Fathers Day

बड़ी ही अजीब सी थी बाबूजी की साइकिल। मैं तो उसे हमेशा अंग्रेजों के ज़माने की ही कहा करती थी। भले ही हमने उसी से जैसे तैसे चढ़-चढ़ा के साइकिल चलाना सीखा है। आम साइकिलों से थोड़ी बड़ी, सामान्य सी सीट भी नहीं, कड़क और बड़ी। हैंडल थोडा छोटा और ब्रेक सामान्य साइकिलों से बिलकुल उलट। मतलब बाएं हाथ की ओर अगले पहिए का, दाहिने हाथ की ओर पिछले पहिए का ब्रेक। उसका फ्रेम इतने बड़ा कि सिर के नीचे, गर्दन के वहां आता। बाबूजी उसे केरियर से कसके पकड़े होते और हम ज़माने भर के शाणे बनते इतराते जैसे हमारे चलाने से ही साइकिल चल रही है।
 
पहली बार बाबूजी की साइकिल ही तो हाथ में ली थी। जब से होश सम्हाला बाबूजी को उसे ही चलाते देखा। अंतिम समय तक वह घर में रही। नीचे गलियारे में खड़ी रहती थी। उनकी पूरी नौकरी, बाजार के काम, सामाजिक आना-जाना सभी उसी से हो जाया करते। छोटे थे जब साइकिल के हैंडल पर एक मोटे तारों/सरिए से बनी झोले सी कुर्सी आया करतीं थी, शायद आज भी आतीं है व लगा लेते। उस पर नरम सा कपड़ा बिछा लिया जाता और उस पर राजकुमारियों की तरह हमें बैठा कर खूब दूर सैर कराने ले जाया करते। बड़ी बहनों व भाइयों को स्कूल, कॉलेज तक वे उसी से छोड़ने गए। उससे भी ज्यादा ख़ुशी तो तब होती जब वो एक फिरकनी या पुंगी दिला देते और हम उसे आगे बैठ कर जोर-जोर से बजाते जो हॉर्न बजने सा मजा देता और हवा से फर्र-फर्र फिरकनी हाथों में घूमती जाती।
 
बाबूजी को शुरू से ही सुबह साढ़े तीन बजे से उठने की आदत थी। बहुत हुआ तो चार बजे। अपने नित्य काम निपटा कर हाथों में एक बड़ा सा डंडा ले कर घूमने निकल जाते बड़े गणपति से उस जमाने में बिजासन मंदिर तक। मौसम कोई भी हो उनका क्रम कभी टूटते न देखा। हमारी छुट्टियों में या रविवार के दिन सारे मोहल्ले के बच्चे भी उनके साथ जाने को तैयार हो जाते। इतनी तेज चाल थी उनकी कि हम दौड़-दौड़ कर उनकी बराबरी करते। उनकी एक बात हमेशा मेरे दिल को छू जाती थी कि उन्होंने हमारे लड़की होने को कभी भी कोसा नहीं। कभी नहीं डरे कि लडकियां हैं कुछ हो जाएगा। हमेशा बराबरी से शिक्षा-दीक्षा के पक्षधर रहे। सारी मैगजिन्स उनकी बदौलत घर में आतीं थीं। साहित्य रत्न होने के साथ-साथ अंग्रेजी साहित्य में उनकी खासी पकड़ थी। पूरे परिवार व मोहल्ले के बैंकों के, ट्रेजरी के, नियम-कानून से संबंधित काम उन्हीं के मश्वरे व मार्गदर्शन में हुआ करते थे। योगाचार्य भी थे। आर्य समाज मंदिर में बरसों अपनी सेवाएं दी। महू स्कूल में ट्रांसफर हो जाने पर भी वो साइकिल से ही महू जाते-आते रहे।
 
पर मैं तो बात उनकी साइकिल की कर रही। बड़े हुए तो साइकिल चलाने का शौक हुआ। सबसे पहले बाबूजी ने अपनी साइकिल से हमें कैंची चलाना सिखाई। कोई शार्टकट नहीं हुआ करता था। कस के साइकिल की फ्रेम को बगल में दबाया एक हाथ से, एक हाथ से वो हैंडल पकड़ा जिसका ब्रेक सिस्टम उल्टा था। बाबूजी पीछे-पीछे।

दो-एक दिन तक ये सिलसिला चला। बाबूजी की कॉमेंट्री चलती रहती ऐसे चलाओ, वैसे चलाओ, बैलेंस बनाओ, पैडल मारो और भी न जाने क्या क्या। हम भी गिरते-पड़ते उसी साइकिल को घसीटते, आधा पैडल कैंची साइकिल बाबूजी की कृपा से सीखे। 'कैंची' वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनों पैरों को दोनों पैडल पर रख कर चलाते थे और जब हम ऐसे चलाते थे तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और 'क्लींङ क्लींङ' करके घंटी इसलिए बजाते थे ताकि लोग बाग देख सकें कि लड़की भी साइकिल दौड़ा रही है।
 
अब अगला चरण होता था पूरा पैडल मारना। बाबूजी ने निडर बनाया। गिरने का डर निकाला। रफ़्तार सिखाई और अब धीरे-धीरे बैलेंस करना और पूरा पैडल साइकिल का चलाना बाबूजी सिखा चुके थे, पर अभी भी उनकी सहायता लगती थी। अधिकतर डगमगा कर साइकिल हाथ से छूट जाया करती थी। खूब घुटने और मुंह भी फूटे हमारे। हथेलियों में भी कंकड़ चुभ जाते, पर बाबूजी हमेशा हौंसला देते। हारने नहीं देते। अब हमें अगली चढ़ाई करनी थी। चूंकि उस समय जेंट्स मतलब डंडे वाली साइकिल और लेडिस मतलब बिना डंडे की साइकिल हुआ करती।
 
हमारे तो बाबूजी की ही साइकिल अब हमें भी जान से प्यारी हो चली थी सो डंडे पर चढ़ाई करके पूरा पैडल मारना और साइकिल घुमाना यही जिद हो आई। अब हमारी लंबाई कम, साइकिल बड़ी सो कुदल्ली मार कर पैडल से डंडा पार कर लेते और डंडे पर ही बैठ जाते। एक पैडल ऊपर, एक नीचे होता तो हर उप्पर वाले पैडल को पैर से जोर से धकिया देते। बस अपनी शान की सवारी चल पड़ती। बाबूजी पूरे समय साथ रहे। वो जानते थे कि हर मोड़ पर उनकी हमें जरूरत पड़ सकती है। जैसे-जैसे हम पारंगत हो रहे थे बाबूजी बेहद खुश हो रहे थे।
 
सिखाते-सिखाते कब बाबूजी ने हमें अकेले छोड़ दिया साइकिल के साथ मालूम ही नहीं पड़ा। कब हम सीट पर सवारी करने लग गए। कब हम खुद से ही साइकिल स्टैंड से चढ़ाने-उतारने लग गए। बाबूजी छूट गए। हम चल पड़े। जब जहां भी मौका लगता और किसी की भी साइकिल हाथ लगती ले दौड़ते। अब तकनीकी ने बहुत तरक्की कर ली है दो साल के होते ही बच्चे साइकिल चलाने लगते हैं वो भी बिना गिरे। दो दो फिट की साइकिल आ गई है और अमीरों के बच्चे तो अब सीधे गाड़ी चलाते हैं और छोटी-छोटी बाइक भी उपलब्ध हैं बाज़ार में। आज की पीढ़ी इस 'एडवेंचर' से महरूम है उन्हें नहीं पता की आठ-दस साल की उम्र में 24 इंच की साइकिल चलाना 'जहाज' उड़ाने जैसा होता था।
 
वो साइकिल, वो कुर्सी, वो बाबूजी के साथ घूमने जाना सब बहुत याद आता है। आज भले ही हवाई यात्राएं कर लें पर जो मजा, जो आनंद उस साइकिल की सवारी का था उसका कोई जोड़ नहीं। मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर संतुलन बनाना जीवन की पहली सीख होती थी! 'जिम्मेदारियों'  की पहली कड़ी होती थी और यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी और ये भी सच है की हमारे बाद 'कैंची' प्रथा, हाफ पैडल, पूरा पैडल, डंडे फिर सीट सवारी की कारीगरी विलुप्त हो गई। सीधे ऊंचाई चाहिए। हर एक को, हर एक जगह।
 
बाबूजी बोला करते थे कि 'जिंदगी इस रोड़ के समान है। सभी को इसी पर चलना है। अपने अलग-अलग वाहनों से या पैदल। ये तुम पर निर्भर करता है कि तुम इस पर अपना रास्ता कैसे खोजते हो और अपनी सवारी कैसे इन सबसे बचाते हुए निकाल ले जाते हो। कोई तुम्हें रास्ता खाली नहीं देगा। ये तुम्हें ही तय करना है कि बिना किसी भी नुकसान के हम अपनी राह चुन कर मंजिल तक पहुंचें।'
 
कितना सुंदर जीने का मंत्र दे गए बाबूजी। खुशकिस्मत होते हैं वो लोग जिन्हें ऐसे पिता और पिता स्वरूप ससुर मिला करते हैं। मैं भी उन्ही खुशकिस्मत सौभाग्यशालियों में से एक हूं। दोनों मुझे मिले। दोनों का साथ हमें मिला। बाबूजी और मेरे ससुर जिन्हें हम दाई कहा करते थे, हमें जीवन के संघर्ष से जीतने के हुनर सिखाने में कभी पीछे नहीं रहे। बाबूजी के अचानक छोड़ जाने के बाद उनकी कमी तो रही ही, पर मेरे ससुर ने कभी भी महसूस नहीं होने दिया। बाकि जिंदगी का मार्गदर्शन उनका रहा। जानें क्यों वर्तमान समय देख कर मुझे लगता है हम ही वो आखिर लोग हैं, जिन्होने वो खूबसूरत रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग देखे हैं, जो लगातार कम होते चले गए। 
 
अब तो लोग जितना पढ़ लिख रहे हैं, उतना ही खुदगर्ज़ी, बेमुरव्वती, अनिश्चितता, अकेलेपन व निराशा में खोते जा रहे हैं। हम ही वो खुशनसीब लोग हैं, जिन्होंने रिश्तों की मिठास महसूस की है!! हम वह पीढ़ी हैं, जिसने अपने मां-बाप की बात भी मानी और बच्चों की भी मान रहे है। सच वो साइकिल चलाना सीखना और जिंदगी की जंग दोनों में कितनी समानता है। साइकिल के पहिए काल चक्र हो गए, ये घूमते गए समय, पीढ़ी, परंपराएं बदलती चली गईं आज भी जब किसी दादाजी या पापा को साइकिल पर बच्चे घुमाते देखती हूं तो पहुंच जाती हूं वहीं, उसी अपने बाबूजी की साइकिल की कुर्सी पर हाथों में फिरकनी और पुंगी का शोर करते हुए अपने बाबूजी की राजकुमारी बन।।। बस इतना ही काफी हो जाता है आंखे गीली और मन प्रफुल्लित करने के लिए।

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