दादाजी ने अखबार से चेहरा निकालते हुए पूछा, क्यों? गिर पड़ी क्या?
मैंने अपने सही-सलामत कोहनी और घुटने दिखाते हुए कहा, नहीं तो! मैं कहां गिरी? ये देख लो।
दादाजी ने कहा, तो फिर? डर लगता है क्या?
नहीं! पर बताओ, मैं साइकिल चलाना सीख भी गई तो चलाऊंगी कहां? सड़क पर तो इतने सारे वाहन रहते हैं। स्कूटर, बस, कार और साइकिल से पूरी सड़क भरी रहती है। इतनी भीड़ में मेरी साइकिल के लिए जगह कहां है?
हां, सीखूंगी। कहते हुए मैं पुनः साइकिल की ओर दौड़ गई।
दादाजी की बातों ने आंवले और नीम के गुणों की तरह धीरे-धीरे असर दिखाया। जीवन के किसी भी पड़ाव पर मुझे कभी भीड़ से डर नहीं लगा। अपने लिए जगह बनाना जो आ गया!