गुरु नानक का आविर्भाव जिन दिनों हुआ, उन दिनों मानव जाति अंधकार-युग में अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। उसे सच्चा रास्ता दिखाने के लिए गुरु नानक देव जी ने यात्राएं कीं। गुरु नानक देव जी मध्यप्रदेश में संभवतः महाराष्ट्र के नासिक शहर से होते हुए बुरहानपुर आए थे। बुरहानपुर में वे ताप्ती नदी के किनारे ठहरे। वहां से वे ओंकारेश्वर गए और ओंकारेश्वर से इंदौर।
श्री महिपत ने अपनी पुस्तक 'लीलावती' में उनकी इंदौर यात्रा का वर्णन किया है। इसके अनुसार पवित्रता के पुंज, प्रेम के सागर गुरु नानक देव जी दूसरी उदासी (यात्रा) के दौरान इंदौर आए। उन्होंने यहां इमली का एक वृक्ष लगाया। यहीं पर गुरुद्वारा इमली साहिब स्थापित है। गुरुदेव ने लोगों को मूर्ति पूजा से रोका और शब्द की महत्ता बताई।
कहते हैं कि जब लोगों ने आदर के साथ उनके चरणों को छूना चाहा तो वे लोग चकित हो गए। उन्हें केवल प्रकाश ही प्रकाश दिखाई दिया। यहां से गुरु नानक देव जी बेटमा की दुःखी जनता का उद्धार करने के लिए वहां पधारे। वहां पर गडरिये रहते थे। उन्होंने गुरु जी का बहुत आदर-सत्कार किया, उनके उपदेश सुने। लोगों ने जब उनके समक्ष पानी के कष्ट के बारे में प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि उस जगह धन्ना करतार कहकर कुदाली से जमीन खोदो। लोगों ने ऐसा हीकिया तो वहाँ पर मीठे पानी का झरना फूट पड़ा। आज वहां पर एक बहुत सुंदर गुरुद्वारा है।
गुरु नानक देव जी भोपाल में ईदगाह हिल और उज्जैन में शिप्रा नदी के पास उदासियों के अखाड़े में भी पधारे थे। गुरु नानक देव जी ने हर जगह यही उपदेश दिया कि ईश्वर एक है, उसे विभाजित नहीं किया जा सकता। वह सबका साझा है, वह हर एक के अंदर मौजूद है।
'...तन धोते मन अच्छा न होई'
माता तृप्ता देवी जी और पिता कालू खत्री जी के सुपुत्र श्री गुरु नानक देव जी का अवतरण संवत् 1526 में कार्तिक पूर्णिमा को ननकाना साहिब में हुआ। सतगुरु जी की महानता के दर्शन बचपन से ही दिखने लगे थे। नानक देव जी ने रूढ़िवादिता के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत बचपन से हीकर दी थी, जब उन्हें 11 साल की उम्र में जनेऊ धारण करवाने की रीत का पालन किया जा रहा था। जब पंडित जी बालक नानक देव जी के गले में जनेऊ धारण करवाने लगे तब उन्होंने उनका हाथ रोका और कहने लगे- 'पंडित जी, जनेऊ पहनने से हम लोगों का दूसरा जन्म होता है, जिसको आप आध्यात्मिक जन्म कहते हैं तो जनेऊ भी किसी और किस्म का होना चाहिए, जो आत्मा को बांध सके। आप जो जनेऊ मुझे दे रहे हो वह तो कपास के धागे का है जो कि मैला हो जाएगा, टूट जाएगा, मरते समय शरीर के साथ चिता में जल जाएगा। फिर यह जनेऊ आत्मिक जन्म के लिए कैसे हुआ? और उन्होंने जनेऊ धारण नहीं किया।'
बड़े होने पर नानक देव जी को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए 20 रु. दिए और कहा- 'इन 20 रु. से सच्चा सौदा करके आओ। नानक देव जी सौदा करने निकले। रास्ते में उन्हें साधु-संतों की मंडली मिली। नानक देव जी ने उस साधु मंडली को 20 रु. का भोजन करवादिया और लौट आए। पिता जी ने पूछा- क्या सौदा करके आए? उन्होंने कहा- 'साधुओं को भोजन करवाया। यही तो सच्चा सौदा है।'
गुरु नानक देव जी जनता को जगाने के लिए और धर्म प्रचारकों को उनकी खामियां बतलाने के लिए अनेक तीर्थस्थानों पर पहुंचे और लोगों से धर्मांधता से दूर रहने का आग्रह किया। उन्होंने पितरों को भोजन यानी मरने के बाद करवाए जाने वाले भोजन का विरोध किया और कहा कि मरने के बाद दिया जाने वाला भोजन पितरों को नहीं मिलता। हमें जीते जी ही मां-बाप की सेवा करनी चाहिए।
सतगुरु जी ने तीर्थ स्थानों पर स्नान के लिए इकट्ठे हुए श्रद्धालुओं को समझाते हुए कहा- मन मैले सभ किछ मैला, तन धोते मन अच्छा न होई। अर्थात अगर हमारा मन मैला है तो हम कितने भी सुंदर कपड़े पहन लें, अच्छे-से तन को साफ कर लें, बाहरी स्नान, सुंदर कपड़ों से हम संसार को तो अच्छे लग सकते हैं मगर परमात्मा को नहीं, क्योंकि परमात्मा हमारे मन की अवस्था को देखता है।
अंतर मैल जे तीर्थ नावे तिसु बैंकुठ ना जाना/ लोग पतीणे कछु ना होई नाही राम अजाना, अर्थात सिर्फ जल से शरीर धोने से मन साफ नहीं हो सकता, तीर्थयात्रा की महानता चाहे कितनी भी क्यों न बताई जाए, तीर्थयात्रा सफल हुई है या नहीं, इसका निर्णय कहीं जाकर नहीं होगा। इसके लिए हरेक मनुष्य को अपने अंदर झाँककर देखना होगा कि तीर्थ के जल से शरीर धोने के बाद भी मन में निंदा, ईर्ष्या, धन-लालसा, काम, क्रोध आदि कितने कम हुए हैं।
एक बार कुछ लोगों ने नानक देव जी से पूछा- आप हमें यह बताइए कि आपके मत अनुसार हिंदू बड़ा है या मुसलमान, सतगुरु जी ने उत्तर दिया- अवल अल्लाह नूर उपाइया कुदरत के सब बंदे/ एक नूर से सब जग उपजया को भले को मंदे, अर्थात सब बंदे ईश्वर के पैदा किए हुए हैं, नतो हिंदू कहलाने वाला रब की निगाह में कबूल है, न मुसलमान कहलाने वाला। रब की निगाह में वही बंदा ऊँचा है जिसका अमल नेक हो, जिसका आचरण सच्चा हो।
इस तरह अलख जगाते सतगुरु जी अब्दाल नगर पहुंचे जहां वली कंधारी नाम का एक माना हुआ फकीर रहता था, जो कि उसके कुदरती चश्मे से सबको पानी पिलाता था। भाई मरदाना भी उसके पास पानी पीने पहुंचे पर फकीर, जो कि सतगुरु जी की प्रसिद्धि से जलता था, ने भाई मरदाने को पानी पिलाने से मना कर दिया। भाई मरदाने ने यह बात सतगुरु जी को बताई तो गुरुजी ने पास ही से एक पत्थर उठाया। निर्मल पावन जल वहीं से बह निकला और फकीर का चश्मा सूख गया। फकीर ने क्रोधित होकर पहाड़ी पर से एक पत्थर गुरुजी के सिर पर मारने के लिए लुढ़काया। पर आत्मिक शक्ति के बादशाह सतगुरु जी ने उसे हाथों पर ही रोक लिया। बताया जाता है कि उस पत्थर पर पंजे का निशान बन गया जो आज तक विद्यमान है। सतगुरु जी की शक्ति देखकर फकीर ने उनके चरण पकड़ लिए, तब गुरुजी ने उसे सत्य धर्म का उपदेश देकर यह वचन दिया कि तेरा भी दीवा सदा दहकता रहेगा।
गुरु नानक देव जी का कहना था कि ईश्वर मनुष्य के हृदय में बसता है, अगर हृदय में निर्दयता है, नफरत है, पर-निंदा है, क्रोध आदि विकार हैं तो ऐसे मैले हृदय में परमात्मा बैठने के लिए तैयार नहीं हो सकता है।
सतगुरु जी ने लोगों को सदा ही नेक राह पर चलने की समझाइश दी। उनका कहना था कि साधु-संगत और गुरबाणी का आसरा लेना ही जिंदगी का ठीक रास्ता है। सबसे बड़ी करामात यही है कि परमात्मा का नाम हृदय में बसाया जाए।
सतगुरु जी का कहना था कि जिस तरह लाखों मन लकड़ी को आग की एक चिंगारी स्वाहा कर देती है, उसी प्रकार परमात्मा का सिमरन (स्मरण) जन्म-जन्मांतर के किए पापों के संस्कार सदा के लिए मिटा देता है। इस तरह अलख जगाते हुए गुरु जी गुरु अंगद देव जी को गुरु गद्दी देकर ज्योति जोत में समा गए।