अमरनाथ यात्रा : भुलाए नहीं भूलते वे क्षण

मंगलवार, 8 जुलाई 2014 (16:38 IST)
अमरनाथ यात्रा का नाम सुनते ही शरीर में सिहरन दौड़ने लगती है। हालांकि कई लोगों को उन पहाड़ों को देखने की उत्सुकता जाग उठती है जो हिमाच्छादित होने के कारण भी आदमी द्वारा विजय किए जाते रहे हैं वर्षों से, लेकिन अमरनाथ यात्रा का नाम आते ही मुझे वे गोलियों के स्वर और बर्फ में जीवन और मौत से जूझते लोगों की चीख-पुकार ही सुनाई पड़ती है, जिनमें से कुछ तो इसलिए बच गए शायद उनके भाग्य में अभी और जीना लिखा था। जो दुर्भाग्यशाली थे उनका आंकड़ा तो आधिकारिक तौर पर तीन सौ है, लेकिन अपनी आंखों से शवों को देखने और उनके बीच से ही नहीं बल्कि अपनी जान बचाने के लिए मृत शरीरों के ऊपर से भी गुजर जाने वालों के अनुसार यह आंकड़ा कई गुना अधिक है।
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स्मृतिपटल पर वे क्षण किसी चलचित्र की भांति अंकित हो चुके हैं जिनकी अमिट छाप से पीछा छुड़ाने की असफल कोशिश करता तो भी सफलता नहीं हो पाता हूं। प्रथम बार इस वार्षिक अमरनाथ यात्रा, जिसके बारे में सुन तो बहुत रखा था लेकिन कभी अवसर नहीं मिला था भाग लेने का। अमरनाथ यात्रा में भाग लेने का मौका उस समय मिला जब वर्ष 1994 में पाक परस्त आतंकवादियों ने उस यात्रा को रोकने की धमकी दे डाली थी, जिसके प्रति अभी तक यही कहा जाता रहा है कि यह न कभी रुकी है और न ही कभी रुकेगी।

इन शब्दों में सच्चाई भी छिपी है क्योंकि गत वर्ष यात्रा के दौरान हुए हादसे के बावजूद भी यह यात्रा नहीं रुकी थी। हालांकि यह बात अलग है कि चाहे अंतिम दिन तीन चार सौ लोगों ने ही भाग लिया, लेकिन उस कथन की लाज अवश्य रखी गई थी कि ‘न कभी रुकी है और न कभी रुकेगी अमरनाथ यात्रा’।

वर्ष 1994, 1995, 1996 तथा 1997 में लगातार भाग लिया था मैंने अमरनाथ यात्रा में और दो बार तो आतंकवादी ‘प्रतिबंध’ का सामना करना पड़ा था, लेकिन 1996 में प्राकृतिक हादसे के रूप में प्राकृतिक प्रतिबंध की यादें अभी तक मन-मस्तिष्क पर तरोताजा हैं जिनको कई बार मिटाने की कोशिश तो की गई लेकिन उन लोगों की चीख-पुकार जो भयानक सर्दी और विपरीत मौसम के कारण अव्यवस्थाओं के बीच मौत से जूझ रहे थे, के स्वर आज भी कानों में गूंजते हैं। हांलाकि वर्ष 1996 की अमरनाथ यात्रा उन सभी को याद रहेगी, जिन्होंने इसमें भाग लिया था और उनका घरों को वापस लौटना नया जन्म पाने से कम नहीं था।

हालांकि वर्ष 1996 में 21 अगस्त तक तो सब कुछ कुशलतापूर्वक चलता रहा था और सारी गड़बड़ 21 अगस्त की मध्य रात्रि को आरंभ हुई थी जब जोरदार बारिश और हिमपात की शुरुआत से ऐसा लगा था जैसे भगवान शिव ने क्रोधित होकर अपनी तीसरी आंख खोली हो और उसमें समाने के लिए जनसमूह को निशाना बनाया हो। वैसे भी अनुमान से दोगुने लोगों द्वारा यात्रा में भाग लेने के कारण सारी व्यवस्थाएं गड़बड़ा गई थीं और अगर कोई व्यवस्था सही सलामत थी तो वह थी उन लंगर वालों की जो प्रति वर्ष आने वालों की सेवा किया करते हैं।

मौत का नाम सुनकर ही कांप उठा... पढ़ें अगले पेज पर...


मैं 21 अगस्त की रात को पंचतरणी में ही काटना चाहता था क्योंकि सुबह दर्शन कर वापसी के लिए अपने शरीर को स्वस्थ नहीं पा रहा था। लेकिन इसका तो अनुमान तक नहीं था कि रुकना खतरे को बुलावा देने की तरह होगा। किया भी क्या जा सकता था शरीर की थकान मिटाने के लिए लिया गया निर्णय मुसीबत में डाल गया और अगले दिन यात्रा को स्थगित कर देना पड़ा क्योंकि सेनाधिकारियों ने बताया था कि पंचतरणी और शेषनाग के बीच हुए भारी हिमपात के कारण सैकड़ों शिवभक्त फंस गए हैं और कई की भयानक सर्दी तथा ऑक्सीजन की कमी के कारण मौत भी हो गई है।

मौत का नाम सुनकर तो एकबारगी सारा शरीर ही कांप उठा। असल में मौत का शिकार वे लोग हुए थे जो बिना किसी मार्गदर्शन के पांवों में नायलन की चप्पलें लगाए और शरीर पर कपड़ों के नाम पर मात्र एक एक धोती डालकर अमरनाथ की यात्रा पर निकले थे और वे इस बात की जानकारी नहीं रखते थे कि गर्म वस्त्रों की सख्त आवश्यकता होती है और सबसे अधिक लोगों की जानें तो उस महागुनस पर्वत की चोटी ने ली थी जहां ऑक्सीजन नहीं है और लोग मैदान देख सुसताने बैठ गए थे क्योंकि भारी हिमपात और जोरदार बारिश ने उनकी चलने की हिम्मत को समाप्त कर दिया था।

सिर्फ महागुनस और पिस्सू टाप ने ही शिवभक्तों की जानें नहीं ली थीं बल्कि पवित्र गुफा के बाहर जमे हुए दरिया पर बने बर्फ के पुल न भी सैंकड़ों जानें ली थीं। असल में गुफा के बाहर जो पवित्र दरिया है उस पर बर्फ पूरे साल जमी रहती है, जिस पर चलकर लोग गुफा में दर्शनों के लिए जाते हैं। ऐसा इसलिए करना पड़ता है क्योंकि यही एकमात्र रास्ता गुफा तक पहुंचने का है और करीब एक किमी लंबा यह बर्फ का पुल नीचे बैठ गया, जिसे लोगों ने ग्लेशियर का फटना समझ लिया था। इस ग्लेशियर के हादसे से बच निकने वालों के लिए यह किसी नए जीवन से कम नहीं था।

यात्रा के दौरान होने वाले हादसों और रास्ते में दिखने वाले भयानक दृश्य रौंगटे खड़े कर देते थे। हालांकि आतंकवाद के सात सालों के दौरान अनेक क्षत-विक्षत शवों को मैंने अपनी आंखों से देखा था, लेकिन यात्रा मार्ग के हृदयविदारक दृश्यों को देख एकबारगी मेरा दिल बैठने लगा, शरीर का रोम-रोम कांप उठा था। महागुनस टॉप पर एक बुजुर्ग दंपति एक ही चादर ओढ़े हुए मौत को गले लगा चुके थे। उनके पास ही तीन युवकों की लाशें पड़ी थी और इन शवों को देखना बस की बात नहीं थी क्योंकि तीनों युवकों के हाथ एक दूसरे से बंधे पड़े थे। लगता था जैसे तीनों ने एक दूसरे को बचाने की खातिर अपनी जान को दांव पर लगाकर मित्रता का अतुल्य उदहारण पेश किया था।

वापसी भी खतरों से खाली नहीं थी, मगर... पढ़ें अगले पेज पर...


वापसी का रास्ता कोई कम खतरों से भरा नहीं था। सबसे बड़ा खतरा उन शवों का था जिनमें मानव और पशुओं के शव थे और मार्ग रुक गया था इन शवों के कारण। कई स्थानों पर तो लोग शवों के ऊपर से ही जान बचाने की दौड़ में लगे हुए थे। तो कहीं पर कोई हमदर्दी दिखा बेहोश पड़े यात्री के हाथों पांवों की मालिश कर प्राण बचाने की कोशिशों में जुटा था। हालांकि हादसा तो प्राकृतिक था लेकिन इस दौरान एकता और भाईचारे के अतिरिक्त मानवीय पक्ष भी देखने को मिला था। हालांकि अपनी जानों को खतरा था फिर भी लोग एक दूसरे को सहारा और उनके जीवन बचाने के प्रयासों में जुटे थे तो लंगरवाले आप विपरीत परिस्थितियों में रहकर हजारों यात्रियों को भोजन उपलब्ध करवा रहे थे और इस सच्चाई को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अगर लंगरवालों की कृपा न होती तो इस प्राकृतिक हादसे में मृतकों का आंकड़ा कई हजार होता।

और जब हेलीकॉप्टरों ने मौसम के साफ होने पर यात्रियों को बचाने के लिए उड़ानें भरनी आंरभ की तो रोंगटें खड़े कर देने वाले दृश्य थे सभी के सामने। जान बचाने की दौड़ में लोग लाशों के बीच भी यात्रा करने को तैयार थे तो युवा अपनी जानों की परवाह किए बिना बुजुर्गों को सर्वप्रथम सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने की कोशिशों में लग गए थे।

सारे हादसे के दौरान उन सुरक्षाकर्मियों की महत्वपूर्ण भूमिका को कम करके आंका नहीं जा सकता जिन्होंने अपनी जानें भी गंवाई और मानवीय फर्ज पूरा करते हुए सैंकड़ों उन श्रद्धालुओं की जानों को बचाया जो जिन्दगी और मौत के बीच जूझ रहे थे। वर्ष 1996 में हुई अमरनाथ त्रासदी में मौत का शिकार हुए श्रद्धालुओं की मौत को तो सभी पक्षों ने उजागर किया, लेकिन सभी उन श्रमिकों तथा घोड़ों की मौतों को भुला बैठे, जिन्होंने सिर्फ इसीलिए अपनीं जानें दीं क्योंकि वे मानवीय फर्ज अदा करते हुए मुसीबत में फंसे सैंकड़ों लोगों की जानें बचाने में जुटे थे तो हिमस्खलन, हिमपात और भूस्खलन में जा फंसे थे।

पांच दिनों तक हुए मौत के तांडव ने तीन सौ लोगों की जानें ली जो अमरनथ यात्रा के दौरान अपने किस्म की प्रथम घटना थी, जिस पर समस्त विश्व में त्राहि त्राहि मच गई थी। हालांकि तीन सौ का आंकड़ा तो आधिकारिक है लेकिन गैर सरकारी आंकड़ा तो इससे कहीं अधिक है। यह इसी से स्पष्ट होता है कि अनेकों यात्री अभी भी लापता हैं जिनके परिजनों द्वारा जम्मू कश्मीर के विभिन्न पुलिस स्टेशनों में उनके लापता होने की रिपोर्टें लिखवाई गई हैं और अब जबकि एक और अमरनाथ यात्रा आ गई है लेकिन यह लापता होने वाले अमरनाथ यात्री अभी तक अपने घरों को नहीं लौटे हैं।

हालांकि इससे पूर्व 1994 और 1995 में भी मुझे अमरनाथ की यात्रा पर जाने का अवसर मिला था जो भी स्मरणीय हैं। इन दोनों वर्षों के दौरान यात्रा स्मरणीय इसलिए बन पड़ी थी क्योंकि तब कोई प्राकृतिक हादसा तो नहीं हुआ था लेकिन आतंकवादी दलों द्वारा ‘प्रतिबंध’ लगा इसे रोकने का प्रयास अवश्य किया गया था, लेकिन वे इसे रोक नहीं पाए थे क्योंकि इस यात्रा के प्रति किसी ने सही कहा था कि यह न कभी रूकी है और न कभी रूकेगी।

1995 में लगातार दूसरे वर्ष यात्रा,यात्रा न रह कर देश के लिए एक चुनौती बन गई थी क्योंकि धर्मांधता की रौंह में बहकर वार्षिक यात्रा पर ‘प्रतिबंध’ लगाने वालों ने 1995 में यात्रा की शुरूआत के दो सप्ताह पूर्व ही इसको रोकने के प्रयास आरंभ किए थे और यह सिलसिला यात्रा के संपन्न होने तक जारी रहा था और करीब 22 लोगों की जानें ली थीं इस सिलसिले ने।हालांकि सरकार ने 1994 में यात्रा को दी गई धमकियों से सबक अवश्य सीखा था और उसने 1995 में अधिक संख्यां में सुरक्षाबलों को तैनात कर यात्रा को सफल बनाया था।

जब 1994 में मैं इस यात्रा में शामिल हुआ था तो आतंकवादी धमकी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया था क्योंकि मात्र 50 हजार श्रद्धालु ही इसमें भाग लेने के लिए आए थे लेकिन 1995 की रोचक बात यह थी कि यात्रा पर ‘प्रतिबंध’ और यात्रा को दी गई धमकी ने यात्रा में भाग लेने वालों की संख्या को और बढ़ा दिया था जो 70 हजार तक पहुंच गई थी।लेकिन 1995 की एक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि अव्यवस्थाओं के चलते 20 हजार से अधिक लोग बिना दर्शन किए ही वापस लौट आए थे और यह सिलसिला 1996 में जारी रहा था जब सरकार ने जो प्रबंध किए थे वे उस समय ढह गए थे जब डेढ़ लाख लोग यात्रा में भाग लेने के लिए आ गए थे। असल में सरकार की सोच यही रही थी कि 1994 में प्रतिबंध के कारण कम लोग ही आए थे तो हो सकता है 1995 में भी कम लोग ही आएं लेकिन सभी समीकरण गड़बड़ा गए थे।

सहारा था तो सिर्फ इन जांबाजों का... पढ़ें अगले पेज पर....


1994 तथा 1995 की दोनों यात्राएं अव्यवस्थाओं के बीच की थी मैंने जिसमें अगर कोई सहारा था तो वह था उन सैनिकों का जो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जान हथेली पर रख कर यात्रियों को सिर्फ सुरक्षा ही प्रदान नहीं करते बल्कि अन्य वे सहायता भी उपलब्ध करवाते जो उनके बस में होती थी।

दोनों ही बार मैंने महसूस किया कि अमरनाथ यात्रा इन आतंकवाद के इन सालों के दौरान धर्म की यात्रा कम और चुनौती की यात्रा अधिक बन कर रह गई है क्योंकि ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ और ‘बेनजीर भुट्टो-मुर्दाबाद’ के नारों के बीच संपन्न होने वाली यात्राओं ने इसे स्पष्ट किया था कि लोग धार्मिक समारोह में नहीं बल्कि यह दर्शाने के लिए यात्रा में भाग ले रहे थे कि कश्मीर उनका है और कोई ताकत उनसे छीन नहीं सकती और यही सोच उन कुछ यात्रियों की मौत का कारण भी बनी थी जिन्होंने खन्नाबल चौक में 1995 में नारेबाजी की तो आतंकवादियों के हथगोलों के हमले में कुछेक को अपनी जानें गंवानी पड़ी थी। इसके बाद भी कई बार यात्रा पर हमले हो चुके हैं। अब तो पत्थर भी फैंके जाने लगे हैं।

बंदूकों के साये में होने वाली इन दोनों यात्राओं में बिताए गए क्षणों को भी भूला नहीं जा सकता, जिसमें भाग लेने के दौरान सिरों पर मंडराता खतरा तो था ही रास्तों में आतंकवादियों के हमलों तथा सुरक्षबलों के साथ होने वाली मुठभेड़ें प्रत्येक उस श्रद्धालु के शरीर में सिहरन पैदा कर देते थे जो प्रथम बार कश्मीर के दौरे पर आया था और जिसने आतंकवादी गतिविधियों के प्रति मात्र सुन रखा था।

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