इसलिए नफरत करता है मोदी से पश्चिमी मीडिया

देश के आम चुनावों के नतीजे आने से पहले प‍‍श्चिमी मीडिया में इस तरह के लेख, सम्पादकीय और टिप्पणियां लिखी गई कि अगर नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो यह ना केवल भारत वरन सारी दुनिया के लिए बहुत बड़ी दुखद घटना होगी।
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अमेरिकी, ब्रिटिश और फ्रेंच मीडिया में ऐसे बहुत से लेख प्रकाशित हुए। हम समझते हैं कि मीडिया का यह काम होता है कि वह बिना ‍क‍िसी राग-द्वेष या पक्षपात के घटनाओं का तार्किक विश्लेषण करे और इनका निष्कर्ष निकाले और वह किसी एक घटना विशेष या वर्तमान क्षण की किसी एक प्रवृत्ति से प्रभावित हुए यह पता लगाता है कि वर्तमान घटनाओं के लिए अतीत किस सीमा तक जिम्मेदार है। परंतु मोदी के खिलाफ पश्चिमी मीडिया के जो आरोप हैं उनमें एक शब्द कॉमन है और वह शब्द है हिंदू।

मोदी की आलोचना में पश्चिमी देशों के मीडिया ने उन्हें हिंदू नेशनलिस्ट, हिंदू रेडिकल और हिंदू मर्डरर आदि। आखिर हिंदू शब्द को क्यों इतनी घृणा के साथ इस्तेमाल किया जाता है? क्या हिंदू इस दुनिया की सबसे शांतिप्रिय कौम नहीं है? अपने तीन हजार से अधिक वर्षों के लिखित इतिहास में कहीं इस बात का प्रमाण नहीं मिलता है कि हिंदुओं ने दुनिया के किसी भी देश पर सैन्य हमला किया हो। इसके ठीक विपरीत उनका प्रभाव पूर्व की ओर बढ़ा और कंबोडिया में अंगकोर वाट के मंदिर इसके गवाह हैं।

पश्चिमी देशों में भी योग का असर देखा जा सकता है जोकि लोगों की दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। हिंदुओं का भारत एक ऐसा देश है जहां दुनिया की हर पीड़ित, शोषित और सताई हुई कौम ने शरण पाई। स‍ीरियन क्रिस्चयन हों, पारसी हों, यहूदी हों या आज के तिब्बती हों और क्या इन लोगों को इस देश में उनके धर्म का पालन करने की पूरी छूट नहीं मिली? लेकिन हिंदू शब्द इस तरह से लिखा जाता है मानो वे दुनिया के सबसे हिंसक और कट्‍टरपंथी कौम हों।

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मोदी से घृणा के कारण? : जब ब्रिटिश लोगों ने भारत पर अधिकार कर लिया तो महसूस किया कि मुट्‍ठीभर लोग भारत जैसे विशाल देश पर शासन नहीं कर सकते हैं। इसके लिए उन्होंने एक तरीका खोज निकाला और एक समुदाय को दूसरे से लड़वाते रहने के उपाय किए। चूं‍कि देश में हिंदू बहुसंख्‍यक थे इसलिए उनका निशाना हिंदू बने। हिंदुओं का तो ‍इतिहास रहा है कि उसे विदेशी आक्रांताओं, हमलावरों के क्रूर हमलों का सदियों तक शिकार होना पड़ा। इस कारण से अंग्रेजों ने मुस्लिमों को हिंदुओं के खिलाफ खड़ा किया। और इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता के साथ देश के दो टुकड़े हो गए और एक हिस्सा पाकिस्तान बनकर अलग हो गया।

यह कहना गलत ना होगा कि पाकिस्तान के बनने की दिशा में अंग्रेजों ने मुस्लिमों के दिमागों में खूब जहर भरा। इन लोगों ने बाद में सिखों में असंतोष पैदा किया जिसने खालिस्तान का विचार पैदा किया। उन्होंने अंग्रेज मिशनरीज को खुली छूट दी और देश के समूचे उत्तर पूर्व हिस्से को ईसाई बना दिया। इतना ही नहीं, इन लोगों में भी स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षा जगाई गई जिसके कारण इस क्षेत्र में हिंसा होती रही है।

उस समय के अंग्रेजी मीडिया ने नवोदित हिंदू आंदोलनों, जैसे कि श्री अरविंदो ने प्रयास किए थे, को बर्बर, कट्‍टर और हास्यास्पद बताया। जबकि इस सारे मामले में भारतीय मीडिया का यह हाल था कि उसने अंग्रेजी मीडिया की बातों को ही तोतों की तरह रटा और इसको दोहराता रहा। इसके अलावा, अंग्रेजी ने भारतीयों की एक ऐसी प्रजाति भी पैदा की जोकि अंग्रेजों के बाकी बचे या छूटे कामों को करने के लिए सदैव ही तत्पर रही। उन्होंने एक ऐसा मध्यम वर्गीय समाज पैदा किया जो कि अंग्रेजों के जाने के बाद उनके प्रतिनिधि होने का काम बखूबी निभा सके। इस तरह देश में 'ब्रिटिश क्लोन' पैदा किए गए और इन्हें पैदा करने का माध्यम शिक्षा को बनाया गया।

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भारत में ब्रिटिशकालीन शिक्षा के पोप, लॉर्ड मैकॉले, ने अपने उद्देश्य को इस तरह परिभाषित किया। उसका कहना था-हमें फिलहाल एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहिए जोकि हमारे (शासक वर्ग) और जिन करोड़ों लोगों पर हम शासन करते हैं, उनके मध्य दुभाषिए का काम कर सकें। यह एक ऐसे लोगों का वर्ग था जिनका रंग और रक्त हिंदु्स्तानी था, लेकिन वे अपनी अभिरुचियों, विचारों, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज थे। आज मोदी की निंदा करने वाला पश्चिमी देशों का मीडिया वही कर रहा है ‍जो ब्रिटिशों ने किया और कहा।

इस मामले का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि द इकॉनामिक्सट ने जिन भारतीय बुद्धिजीवियों का उल्लेख किया उनमें से ज्यादातर हिंदू हैं। इस तरह वे कह सकते हैं कि देखिए हम नहीं कह रहे हैं वरन यह बात तो खुद भारतीय कह रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि नेहरू ने प्रत्येक ब्रिटिश चीज चाहे वह शिक्षा व्यवस्था या कुछ और, एक अंधभक्त की तरह अपनाया। और इसमें थोडा सा सोवियत मार्क्सवाद मिला दिया जिसका नतीजा यह सामने आया कि पीढ़ी दर पीढ़ी हिंदुओं से घृणा करने वाले शिक्षाशास्त्री पैदा हो गए।

इस मामले में एक महत्वपूर्ण कारक यह भी है जिसकी कभी चर्चा नहीं की जाती है वह है कहीं गहरे तक समाया ईसाई विश्वास कि हिंदू मूर्तिपूजक हैं और वे पत्थर की मूर्तियों की पूजा करते हैं। जबकि वास्तव में हिंदू मूल रूप से एक सर्वोच्च ईश्वरत्व में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि इसका विभिन्न युगों में अवतरण हुआ है। जबकि यह भी अतार्किक है और ईसाई यह मानते हैं कि कुंआरी मैरी ने गर्भधारण किया था और जीसस ने ब्रेड और वाइन को हजारों गुना बढ़ा दिया था, लेकिन हिंदुओं पर आरोप लगाए जाते हैं कि वे अंधविश्वासी होते हैं। लेकिन यह तथाकथित एकेश्वरवाद और हिंदू बहुदेववाद की प्राचीन लड़ाई पश्चिम के लोगों के अवचेतन मन में बैठी हुई है और इसी के चलते एक वेंडी मोनिगर, एक माइकेल विजेल अथवा एक क्रिस्टोफी जैफरलॉट जैसे विद्वान हमेशा ही धूर्तता से या कम कपटपूर्ण तरीके से हिंदुओं की श्रेष्ठता के गोपनीय बोध को नीचा दिखाते हैं।

राजीव गांधी ने भी तो यही किया था... पढ़ें अगले पेज पर...


ऐसे चिंतकों से पश्चिमी देशों के पत्रकार भी प्रेरणा पाते हैं। पश्चिम का मीडिया मुख्य रूप से कहता है कि मोदी वर्ष 2002 में हुए नरसंहार का एक हत्यारा है। लेकिन हमें अतीत की घटनाओं पर भी नजर डालनी चाहिए और उस दुखद घटना का भी विश्लेषण करना चाहिए जिसमें निर्दोष मुस्लिमों की क्रूरतापूर्ण तरीके से हत्या कर दी गई। लेकिन जो बात यह जानकार पत्रकार कभी नहीं कहते हैं क्योंकि वे इसके बारे में सोचते ही नहीं है कि ऐसे भीषण दंगे भी एक दिन में पैदा नहीं होते हैं।

इतने बड़े पैमाने पर दंगों के लिए सैकड़ों और कभी-कभी हजारों वर्षों की दबी हुई निराशा, कुंठा और क्रोध जिम्मेदार होता है। इस निराशा, कुंठा और क्रोध को उस घटना ने जगा दिया जिसके तहत साबरमती ट्रेन में एक मुस्लिम भीड़ ने 56 हिंदुओं, जिनमें 36 निर्दोष महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, को जिंदा जला दिया गया था। लेकिन इसके लिए पश्चिमी देशों का मीडिया किसी एक आदमी को दोषी करार देने की बजाय समूचे गुजरात को दोषी ठहराता है। उन्हें याद रखना चाहिए कि सड़कों पर उतरने वाले हिंदू किसी उग्रवादी संगठनों के कार्यकर्ता नहीं थे और इसमें दलित, मध्यमवर्गीय हिंदू और उच्च मध्यम वर्गीय हिंदू भी शामिल थे।

लेकिन इस मामले में सबसे सरल काम यह है कि आप मोदी की कटु आलोचना करें जिन्होंने दंगों के कुछेक दिन बाद सेना बुलाई थी। लेकिन राजीव गांधी ने भी तो यही किया था। जब दिल्ली के लोगों ने राजीव की मां और प्रधानंमत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद सिखों की हत्या करना शुरू कर दी थी तब उन्होंने भी कई दिनों के बाद सेना को बुलाया था। वास्तव में इससे यह फर्क नहीं पड़ता है कि पश्चिमी देशों के सभी संवाददाता दिल्ली में नहीं रहते हैं, जहां पर दूतावासों की कॉकटेल्स से लेकर पत्रकारों की पार्टियों में 'धर्मनिरपेक्षता' के विचारों का जाप किया जाता है।

इस बारे में यह कहना गलत ना होगा कि ये पत्रकार, दूतावासकर्मी ज्यादातर तीन से पांच वर्ष तक रहते हैं और इतना समय भारत जैसे विशाल, जटिल और विरोधाभासी देश को समझना संभव नहीं है। ये लोग शहर दर शहर हवाई जहाजों में उड़ते हैं, पांच सितारा होटलों में ठहरते हैं और उन्हें वास्तविक भारत को समझने और आत्मसात करने का अवसर ही नहीं मिलता है। (लेखक पेरिस स्थित एक अखबार के सम्पादक हैं)।

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