1947 से अब तक 720 कैदियों को दी फांसी, 2015 में आखिरी बार याकूब मेमन फांसी पर टंगा
मंगलवार, 17 दिसंबर 2019 (00:54 IST)
सोमवार 16 दिसंबर के दिन निर्भया बलात्कार एवं हत्याकांड को पूरे 7 बरस का वक्त बीत गया। संभावना तो यह थी कि निर्भया की सातवीं बरसी के पहले ही इसके 4 दोषियों के गले फांसी के फंदे से नप चुके होंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आंकड़ों के अनुसार 1947 से लेकर अब तक 720 कैदियों को फांसी दी जा चुकी है। आखिरी बार 30 जुलाई 2015 को याकूब मेनन को दी गई थी।
उच्चतम न्यायालय ने निर्भया मामले में पिछले साल 9 जुलाई को 3 दोषियों द्वारा दायर की गई पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया था। शीर्ष अदालत 17 दिसंबर को मौत की सजा का सामना कर रहे इस मामले के 1 अन्य दोषी की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करेगी।
3 दोषियों के पास अभी भी मामले में उनकी मौत की सजा के खिलाफ शीर्ष अदालत में उपचारात्मक याचिका दायर करने का विकल्प है। इसके बाद वे राष्ट्रपति के पास दया याचिका दे सकते हैं।
यदि उनकी दया याचिका खारिज हो जाती है, तो अधिकारी सजा पर तामील के लिए स्थानीय अदालत से मौत के वारंट की मांग कर सकते हैं। दया याचिका खारिज किए जाने को भी दोषी अदालतों में चुनौती दे सकते हैं।
संसद ने पिछले साल पॉक्सो अधिनियम के तहत 12 साल या उससे कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामलों में मृत्युदंड का प्रावधान कर इसके दायरे का विस्तार किया था।
एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 से 2014 तक निचली अदालतों ने 1810 लोगों को मृत्युदंड की सजा सुनाई। इनमें से आधे से अधिक मामलों को उम्रकैद में बदल दिया गया। इनमें से 443 लोगों को उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने इन कैदियों में से 73 की मौत की सजा बरकरार रखी जिनमें से कई लोग एक दशक का समय जेल में व्यतीत कर चुके हैं।
शीर्ष अदालत ने पिछले साल मौत की सजा के 11 मामलों को उम्रकैद में बदल दिया था, जबकि 7 साल पहले 16 दिसंबर को दिल्ली में हुए निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले में पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए 3 मामलों में मौत की सजा की पुष्टि की थी।
भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने प्राथमिकता के आधार पर मौत की सजा के मामलों की सुनवाई की। इसके लिए उन्होंने 4 पीठों का गठन किया था और प्रत्येक पीठ में 3-3 न्यायाधीश थे। ये पीठें मृत्युदंड के मामलों पर फैसला करने के लिए 6 सप्ताह से अधिक समय तक साथ-साथ बैठी थीं।
भारत में जिन कानूनों के तहत फांसी की सजा दी जाती है उनमें बाल यौन अपराध रोकथाम (पॉक्सो) अधिनियम, अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम, गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम तथा स्वापक औषधि एवं मन:प्रभावी वस्तु अधिनियम (एनडीपीएस) शामिल हैं।
15 नवंबर 1949 को अंबाला केंद्रीय कारागार में पहली फांसी
स्वतंत्र भारत के शुरुआती दिनों में जिन्हें फांसी दी गई उनमें नाथूराम गोडसे और नारायण डी आप्टे शामिल हैं जिन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के लिए मौत की सजा दी गई थी। उन लोगों को 15 नवंबर 1949 को अंबाला केंद्रीय कारागार में फांसी दी गई थी।
2008 में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के दोषी मोहम्मद अजमल आमिर कसाब को 29 अगस्त 2012 को फांसी पर लटकाया गया था। कसाब और अफजल गुरु को गुप्त रूप से बिना उसके परिजनों को सूचना दिए फांसी दी गई थी। दोनों मामलों में फांसी दिए जाने के बाद दुनिया को इसकी जानकारी मिली थी।
संसद भवन पर हमले के दोषी मोहम्मद अफजल गुरु को 9 फरवरी 2013 को फांसी दी गई थी। 18 दिसंबर 2002 को उच्चतम न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी।
भारत में अंतिम बार मौत की सजा 30 जुलाई 2015 को याकूब मेनन को दी गई थी। मेनन ने 1993 में मुंबई में हुए धमाकों के लिए धन मुहैया कराया था।
2017 में शीर्ष अदालत ने 7 मामलों में मौत की सजा की पुष्टि की, जबकि 2016 में एक मामले में मृत्युदंड को बरकरार रखा और 7 मामले में मौत की सजा को कम कर दिया।
देश में निचली अदालतों ने 2018 में 162 लागों को मौत की सजा सुनाई जो पिछले 2 दशक में सबसे अधिक है। इनमें से 45 मामले हत्या के थे जबकि 58 मामले यौन अपराधों के थे।
देश के उच्च न्यायालयों ने 2018 में 23 मामलों में मौत की सजा की पुष्टि की जबकि 58 मामले में मौत की सजा को बदल दिया। इस साल 23 मामले के दोषियों को उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया।
वर्ष 2018 में मध्यप्रदेश में सबसे अधिक 22 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई, जो 2017 की तुलना में 4 गुना से अधिक है। इसी प्रकार महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में क्रमश: 16 एवं 15 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई है।