दो जून की रोटी की चाहत में पिसता मासूम बचपन...

रविवार, 15 मई 2016 (14:19 IST)
नई दिल्ली। बच्चों को भगवान का रूप माना जाता है लेकिन कारखानों, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, होटलों, ढाबों पर काम करने से लेकर कचरे के ढेर में कुछ ढूंढता मासूम बचपन आज न केवल 21वीं सदी में भारत की आर्थिक वृद्धि का एक स्याह चेहरा पेश करता है बल्कि आजादी के 68 वर्ष बाद भी सभ्य समाज की उस तस्वीर पर सवाल उठाता है, जहां हमारे देश के बच्चों को हर सुख-सुविधाएं मिल सकें।
 
चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 1.02 करोड़ बच्चे काम करते हुए अपना जीवन-यापन कर रहे हैं और वे स्कूलों से दूर हैं। 2001 से 2011 के दौरान शहरी बाल श्रम में 50 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
 
जाने-माने चिंतक केएन गोविंदाचार्य ने कहा कि हमारे ही देश का एक मासूम बचपन ऐसा भी है, जो खेतों व फैक्टरियों में काम कर रहा है, ठेली लगाकर सामान बेच रहा है, रेशम के धागे से कपड़े तैयार कर रहा है, चाय की दुकान पर बर्तन धो रहा है, स्कूल की बसों में हेल्परी कर रहा है, फूल बेच रहा है और न जाने क्या-क्या करने पर मजबूर है।
 
उन्होंने कहा कि इनके काम के घंटे तय नहीं होते और मजदूरी 25 से 50 रुपए तक देकर इतिश्री हो जाती है। साथ ही इन्हें प्रताड़ित भी किया जाता है। ऐसे बच्चों के लिए शिक्षा पाना तो दूर की कौड़ी बना हुआ है।
 
दिल्ली जैसे महानगरों में निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों के बच्चों की स्थिति तो और भी दयनीय है, जहां उनके लिए न तो रहने का ठिकाना है और पढ़ाई-लिखाई की तो कोई व्यवस्था है ही नहीं।
 
स्वराज आंदोलन के योगेन्द्र यादव के अनुसार पढ़े-लिखे बाबू से लेकर अनपढ़ मजदूर तक हर कोई चाहता है कि उसका बच्चा पढ़-लिख जाए। समाज का ऐसा वर्ग, जो सदियों तक विद्या से वंचित रहा, वह सोच रहा है कि शिक्षा मिल गई तो न जाने उनके बच्चे कहां पहुंच जाएंगे। निश्चित ही हमारे समाज में शिक्षा के प्रति आग्रह बढ़ता जा रहा है, लेकिन वहनीय शिक्षा तो दूर वंचित वर्ग के बच्चे आज मजदूरी करने को विवश हैं।
 
देश का एक कटु सत्य यह भी है कि मासूम बच्चों का जीवन कहीं तो खुशियों से भरा है तो कहीं छोटी से छोटी जरूरतों से भी महरुम है। बच्चों के हाथों में कलम और आंखों में भविष्य के सपने होने चाहिए। लेकिन दुनिया में करोड़ों बच्चे ऐसे हैं जिनकी आंखो में कोई सपना नहीं पलता। बस दो जून की रोटी कमा लेने की चाहत पलती है। 
 
सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण मोदी ने कहा कि सभ्य समाज के बच्चे को बेहतरीन शिक्षा और सभी सुख-सुविधाएं मुहैया होनी चाहिए। हमारे देश के हर कोने में पलने वाले हर बच्चे को शिक्षा और उसकी जरूरत की हर सुख-सुविधा मुहैया होनी चाहिए।
 
उन्होंने कहा कि देश के किसी भी कोने में चले जाइए, वहां पर आपको होटलों, ढाबों, दुकानों, घरों, गैराजों, पटाखों, चूड़ी एवं कालीन के कारखानों में गरीबों के बच्चे अपने बचपन को खाक में मिलाते दिख जाएंगे।
 
मोदी ने कहा कि इस कथित सभ्य और बड़े कहलाने वाले समाज के लोग भी बच्चों का शोषण करने में पीछे नहीं हैं। ऐसे में सर्वशिक्षा अभियान भी बेमानी हो जाता है।
 
यूनीसेफ के एक अध्ययन के अनुसार उद्योगों, ढाबों एवं ऐसे ही कार्यस्थलों पर बच्चों का नियोजन इसलिए भी किया जाता जा रहा है, क्योंकि उनका शोषण बड़ी आसानी और सरलता से किया जा सकता है। 
 
आज मासूम बच्चों का जीवन केवल बालश्रम तक ही सीमित नहीं है बल्कि बच्चों की तस्करी और लड़कियों के साथ भेदभाव आज भी देश में एक विकट समस्या के रूप में हमारे सामने है।
 
वर्ष 1980 में 'बचपन बचाओ आंदोलन' की शुरुआत हुई। बालश्रम रोकने के लिए न जाने कितनी संस्थाएं काम कर रही हैं, लेकिन अफसोस तो यह है कि उसके बावजूद बालश्रम में कमी होती नजर नहीं आ रही है। 
 
बच्चों को अभी भी अपने अधिकार पूरी तौर पर नहीं मिल पाते। अनेक बच्चों को भरपेट भोजन नसीब नहीं होता और स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की सुविधाएं तो हैं ही नहीं और यदि हैं भी तो बहुत कम। (भाषा)

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