झाबुआ के भगोरिया से लेकर बिहार की पकडुआ शादी तक, क्‍या है इन रीति-रिवाजों का सच, जानकर हैरान रह जाएंगे आप

मध्‍यप्रदेश के झाबुआ समेत आसपास के तमाम अंचलों में भगोरिया उत्‍सव मनाया जाता है। होली के आसपास होने वाले इस उत्‍सव में परंपरा है कि जिस भी लड़के को कोई लड़की पसंद हो तो मेले में ही वो उसका हाथ पकड़कर या उसे उठाकर भाग जाता है।

इसके बाद परिजनों की आपसी चर्चा के बाद दोनों की शादी तय कर दी जाती है। इस तरह से लड़की को लेकर भाग जाने का मतलब यह माना जाता है कि लड़के को लड़की पसंद है और वो उससे शादी करना चाहता है। हालांकि शादी के लिए और भी नियमों का पालन करना होता है, आपसी सहमति से समाज की दूसरी परंपराएं और रीतियों का निवर्हन करना जरूरी होता है।

ठीक इसी तरह से बिहार की बात करें तो यहां पकडुआ शादी की परंपरा है। इसके बारे में कहा जाता है कि बिहार के कई इलाकों में लड़कों को अगवा या किडनैप कर लिया जाता है। जिसके बाद उसकी उस लड़की से शादी कर दी जाती है, जिसके लिए उसे उठाया गया था। इसी तरह की शादी को बिहार में पकडुआ शादी कहा जाता है। इसके साथ ही देशभर के कई राज्‍यों के अलग- अलग क्षेत्रों में कई तरह के जाति, समाज और आदिवासी समुदायों में शादी की अलग-अलग परंपराएं मशहूर हैं।

हालांकि वक्‍त बदलने के साथ ये परंपराएं और रीति-रिवाज भी अब बदलने लगे हैं। तकनीक और मोबाइल के दौर में जहां नौजवान की सोच में बदलाव आ रहा है तो वहीं, पुरानी परंपराएं भी बदलती जा रही हैं।

शादियों के इन्‍हीं चौंकाने वाले उत्‍सव और परंपराओं के बारे में विस्‍तार से जानने के लिए हमने कुछ जानकारों से चर्चा की। आइए जानते हैं क्‍या है बिहार की पकडुआ शादी का सच। क्‍या यह अब भी वहां प्रचलन में है।

क्‍या है बिहार की पकडुआ शादी?
बिहार में प्रचलित इस शादी में लड़के को अगवा किया जाता है और उसके बाद उसकी जबरदस्‍ती अपने घर की लड़की से शादी करा दी जाती है। अगर कोई लड़का शादी के लिए मना करता है, तो उसे मारपीट कर मनाया जाता है या फिर सिर पर बंदूक रख सारी रस्में करा ली जाती हैं। इस प्रथा पर कई टीवी सीरियल और कहानियां भी लिखी जा चुकी है।

कब शुरू हुआ, कैसे आया प्रचलन में?
बिहार में 1970 के दशक में जब पकड़ुआ विवाह शुरू हुआ, तो पहले तो इलाक़े के लठैत या दबंग व्यक्ति ही लड़के का अपहरण कर लेते थे। लेकिन, 80 के दशक में यह एक तरह से व्‍यावसायिक हो गया। यानी  इसके लिए बकायदा गिरोह बनने लगे जो खासतौर से यही काम करते थे। आलम यह था कि शादियों के सीजन में ऐसे गिरोह की डिमांड होती थी। इस तरह की शादी की शुरुआत 70 के दशक में 'बिहार के लेनिनग्राद' कहे जाने वाले बेगूसराय में भूमिहार जाति के बीच हुई। वजह थी ऊंचा दहेज, जिसे लड़की वाले देने में सक्षम नहीं होते थे।

क्‍या कहते हैं जानकार?
मनोज भावुक बिहार के लोकप्रिय भोजपुरी साहित्‍यकार हैं। वे अपना यूट्यूब चैनल चलाते हैं और बिहार, भोजपुर और उत्‍तर प्रदेश की तमाम परंपराओं, संस्‍कृति और रीति रिवाजों के बारे में शोध कर लिखते पढते रहे हैं। वेबदुनिया से चर्चा में उन्‍होंने बताया कि अभी बिहार में इसका कोई अस्‍तित्‍व नहीं है। दरअसल, ऐसी परंपराओं को लेकर बहुत सारी भ्रांतियां हैं। भोजपुरी क्षेत्र छपरा, सिवान, गोपालगंज, आरा, बक्‍सर,  भोजपुर, सासाराम, मगही आदि क्षेत्रों में यह परंपरा नहीं है।

प्रतीकात्‍मक पर रह गया
उन्‍होंने बताया कि मिथिलांचल यानी मैथिली क्षेत्र, जहां मैथिली बोली जाती है ऐसे क्षेत्रों में मेला लगता है। इन मेलों में यह रिवाज रहा है कि जिसे जो पंसद आ जाती थी वो उससे शादी कर लेता था। लेकिन अब तो इन इलाकों में भी इस तरह के उत्‍सव कम हो गए है। कुछ जगहों पर जरूर बचा हुआ होगा, लेकिन वो भी प्रतीकात्‍मक तौर पर रह गया है।

क्‍या यह अवैध है
मनोज भावुक बताते हैं कि दरअसल, इसका एक लीगल ऑस्‍पेक्‍ट भी है, क्‍योंकि यह पकडुआ शादी यानी किसी को भगाकर ले जाना एक तरह का किडनैप ही है। लेकिन प्रशासन और पुलिस भी जानती है कि यह सिर्फ मजे के लिए होता है या फिर सिर्फ बतौर उत्‍सव होता है। इसलिए वे भी कोई कार्रवाई नहीं करते हैं। क्‍योंकि हिंदुस्‍तान में कई ऐसे समाज और उनमें ऐसी संस्‍कृतियां और रिवाज हैं जो सिर्फ एक बहुत ही रिमोट स्‍तर पर होते हैं। वहीं कुछ आदिवासी इलाके हैं बिहार और झारखंड में जहां, उनके अपने तरीके और परंपराएं देखेने को मिल जाएगी। ऐसे में इसे सिर्फ प्रतीकात्‍मक तौर पर देखा जाता है। उन्‍होंने बताया कि जहां तक बिहार में इसके अब तक प्रचलन की बात है तो यह लगभग खत्‍म हो गया है। वैसे भी इसे बेहद ओवररेट कर के दिखाया गया है।

25 साल में एक भी केस नहीं देखा
धार में रहने वाले ख्‍यात फोटोग्राफर चेतन सोनी ने वेबदुनिया को बताया कि वे करीब 25 साल से भगोरिया में जा रहे हैं और आदिवासी अंचल के इस सबसे बड़े उत्‍सव को अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं, लेकिन इतने साल में उन्‍होंने आज तक एक भी केस नहीं देखा, जिसमें किसी लड़की को लेकर कोई लड़का भागा हो। उन्‍होंने बताया कि यहां सिर्फ एक कैजुअल मिलना-जुलना होता है। एक तरह का मेल मुलाकात की जगह है। पहले जब मोबाइल नहीं थे तो ज्‍यादा तादात में युवा लड़के  लड़कियां यहां आते थे और उत्‍सव के बहाने मिलते जुलते थे, लेकिन अब मोबाइल के दौर में यहां आने की जरूरत ही नहीं। वे मोबाइल पर ही आपस में बात कर लेते हैं।

कुल मिलाकर शादियों की कुछ परंपराओं को अतिरेक के साथ पेश किया गया। हालांकि प्रतीकात्‍मक तौर पर अब भी कुछ जगहों पर रीति रिवाज फॉलो किए जाते हैं, लेकिन जिस तरह से पेश किया जाता रहा है, ऐसा कुछ है नहीं।

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