राहुल के 'चाणक्य', राजस्थान में बनेंगे भाजपा की मुसीबत
सोमवार, 18 दिसंबर 2017 (15:40 IST)
नई दिल्ली। गुजरात के चुनावों के परिणाम आ चुके हैं और विभिन्न राज्यों में अब नए-नए सत्ता समीकरण भी बनने लगे हैं। विदित हो कि गुजरात के चुनावों और इसके परिणामों का असर अगले साल होने वाले राजस्थान के चुनावों पर भी पड़ेगा। यह कहना गलत न होगा कि राहुल गांधी को अपने 'चाणक्य' मिल गए हैं और उनके नए चाणक्य हैं राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत।
गुजरात में कांग्रेस के अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन ने न केवल राष्ट्रीय राजनीति में वरन प्रादेशिक राजनीति में भी गहलोत का कद बढ़ा दिया है। उनके मजबूत कद और प्रभाव के चलते गहलोत अपने गृह राज्य राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए कड़ी चुनौती के तौर पर उभरेंगे।
गुजरात के नतीजों पर पड़ोसी राज्य राजस्थान की भी निगाहें हैं। इस बार कांग्रेस और बीजेपी ने नेतृत्व के लिए दो राजस्थानियों पर भरोसा जताया है। कांग्रेस ने जोधपुर से आने वाले अनुभवी राजनीतिज्ञ और दो बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रह चुके अशोक गहलोत को प्रचार अभियान सौंपा है जबकि बीजेपी ने प्रचार अभियान की जिम्मेदारी राज्यसभा सांसद भूपेंद्र यादव को दी थी।
राजस्थान के अगले आम चुनाव में फिर दोनों आमने-सामने आ सकते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि
सचिन पायलट के साथ लड़ाई की वजह से गहलोत को आंशिक रूप से गुजरात प्रभारी के रूप में नियुक्त किया गया था। यह भी कहा जाता रहा है कि राजस्थान में सचिन पायलट का रास्ता साफ करने के लिए ही गहलोत को गुजरात में उलझाया गया, लेकिन गुजरात में गहलोत का प्रदर्शन राजस्थान में उन्हें फायदा पहुंचाएगा।
राहुल के चाणक्य : गुजरात चुनाव में कांग्रेस के 'चाणक्य' बनने की भूमिका अशोक गहलोत ने निभाई। इन्हीं के कहने पर राहुल गांधी ने एक-एक चाल चली। अगर बूथ लेवल तक की मैनेजमेंट में राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने गुजरात में इतना अच्छा प्रदर्शन किया है तो इसका काफी हद तक श्रेय अशोक गेहलोत को दिया जा सकता है। राहुल गांधी के लिए गहलोत ने ही सारी रणनीति बनाई थी।
गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हाईकमान ने अशोक गहलोत को गुजरात का प्रभार सौंपा तो राजनीति के जानकार अचंभित थे। 66 वर्षीय अशोक गहलोत ने बेहद समझदारी के साथ प्रचार की रणनीति तैयार की थी। वे पूरे चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी का साया बनकर उनके साथ रहे। अशोक गहलोत को परिभाषित करने के लिए उनसे जुड़ा एक किस्सा बेहद अहम है।
साल 1982 में इंदिरा गांधी ने अशोक गहलोत को मंत्री पद की शपथ लेने के लिए बुलावा भेजा था। गहलोत मंत्री पद की शपथ लेने तिपहिया ऑटोरिक्शा में सवार होकर राष्ट्रपति भवन पहुंचे तो सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोक लिया था। बाद में, जोधपुर की गलियों में खाक छानकर संसद पहुंचे इस राजनेता ने कई बार राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई।
अशोक गहलोत पिछले दो महीने से अधिक समय तक गुजरात में रहे। गहलोत ने गुजरात में पार्टी के बड़े नेताओं के बीच समन्वय बनाने की पूरी कोशिश की। पार्टी ने रणनीति के तहत अपना सीएम उम्मीदवार भी घोषित नहीं किया है, ताकि सूबे के दिग्गज नेताओं के बीच फूट को रोका जा सके। गहलोत ने रूपाणी सरकार की कमजोरियों और सत्ता विरोधी रुझानों को ध्यान में रखकर नए समीकरण बनाए।
हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर को अपने पाले में लाने में गहलोत ने अहम भूमिका निभाई। राहुल गांधी का कब और कहां दौरा होगा, यहां भी गहलोत की ओर से ही तय किया गया। गहलोत के इशारे पर राहुल ने नरम हिंदुत्व का कार्ड चला। विदित हो कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद एके एंटनी समिति ने एक रिपोर्ट सौंपी थी।
इसमें साफ तौर से कहा गया था कि मुसलमानों के 'तुष्टिकरण' की नीति कांग्रेस की हार की मुख्य वजह बनी। राहुल गांधी का उदासीन नेतृत्व हार की वजह नहीं है। एंटनी रिपोर्ट ने 'सांप्रदायिक संगठनों' को अपनी पकड़ मजबूत बनाने का मौका दिया। अशोक गहलोत ने काफी हद तक इस बात को राजस्थान में जमीन पर उतारा। उन्हीं के कहने पर राहुल गांधी और कांग्रेस ने नरम हिंदुत्व का कार्ड खेला।
भाजपा ने जहां चुनाव को हिंदू-मुस्लिम मुद्दे की ओर मोड़ने की कोशिश की तो कांग्रेस ने भी जवाब में नरम हिंदुत्व का कार्ड खेला। अशोक गहलोत के इशारे पर ही राहुल गांधी ने 27 से ज्यादा मंदिरों में जाकर दर्शन किए। अब इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी की नई कांग्रेस में अशोक गहलोत का एक निर्णायक ताकत के तौर पर उभरना स्वाभाविक है।