'बुद्ध की मुस्कान' ने बढ़ाई थी भारत की ताकत

सोमवार, 4 दिसंबर 2017 (14:09 IST)
'स्माइलिंग बुद्धा' भारत के पहले परमाणु कार्यक्रम का नाम था जिसे गुप्त रखने की जिम्मेदारी रॉ को दी गई थी। देश के अंदर किसी प्रॉजेक्ट में पहली बार रॉ को शामिल किया गया था। अंतत: 18 मई, 1974 को भारत ने पोखरण में 15 किलोटन प्लूटोनियम का परीक्षण किया और दुनिया के परमाणु ताकत रखने वाले देशों की जमात में शामिल हो गया। इस पूरी योजना की अमेरिका, चीन और पाकिस्तान जैसे देशों की खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी। पर जब परीक्षण सफलतापूर्वक पूरा हो गया तो पूरी दुनिया हैरान रह गई।
 
इस परीक्षण को 'स्माइलिंग बुद्धा' यानी 'बुद्ध मुस्कराए' नाम दिया गया था। वर्ष 1972 में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर यानी बीएआरसी का दौरा करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वहां के वैज्ञानिकों को परमाणु परीक्षण के लिए संयंत्र बनाने की मौखिक इजाजत दी थी। परीक्षण के दिन से पहले तक इस पूरे ऑपरेशन को गोपनीय रखा गया था। यह बहुत मुश्किल काम था और इसकी भनक अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए को भी नहीं लगने दी गई थी। 
 
इस ऑपरेशन की अगुवाई बीएआरसी के तत्कालीन निदेशक डॉक्टर राजा रमन्ना ने की और उनकी टीम में युवा वैज्ञानिक डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम भी शामिल थे। विदित हो कि भारत के लिए पिछली सदी का 70 का दशक बहुत ही महत्वपूर्ण रहा। एक ओर भारत ने बांग्लादेश के निर्माण में सशक्त भूमिका निभाई और पाकिस्तान को आजादी के बाद से बुरी तरह हराया तो वहीं इमरजेंसी का धब्बा भी भारत ने झेला।
 
भारत उस वक्त पाकिस्तान का अभूतपूर्व दुश्मन बन चुका था क्योंकि भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संग्राम में मदद की और बांग्लादेश का निर्माण हुआ। पाकिस्तान ने इस प्रक्रिया में अपना आधे से ज्यादा भू-भाग और आधी जनसंख्या खो दी। इसी दौर में, अमेरिका और पाकिस्तान में साठगांठ चल रही थी क्योंकि अमेरिका, सोवियत यूनियन के खिलाफ पाकिस्तान को एक एयरबेस के रूप में उपयोग कर रहा था। 
 
इसलिए भारत के खिलाफ अमेरिका ने दुश्मनी का रवैया अपना लिया था। भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति से भी अमेरिका को खासी चिढ़ थी। तब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर भारत को कम आंक रहे थे। मानवाधिकारों का बहुत बड़ा समर्थक बनने वाला अमेरिका उस वक्त पाकिस्तान का समर्थन करने चला था जब वहां नागरिक अधिकारों की अनदेखी हो रही थी और मखौल इस हद तक था कि डेमोक्रेसी लाने के लिए याह्या खान की 'तानाशाह' सरकार काम कर रही थी।
 
इसी दौरान भारत पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका ने हिंद महासागर में एयरक्राफ्ट कैरियर बैटल ग्रुप भेज दिया। भारत फिर भी नहीं माना तो उसने भारतीय सेना को ढाका की ओर बढ़ने से रोकने के लिए सेवेंथ फ्लीट नाम का जंगी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेज दिया। पर भारत इससे भी नहीं डिगा।
 
यह एक बड़ी अमेरिकी गलती थी क्योंकि इससे भारत के आत्मसम्मानी स्वभाव को ठेस पहुंची और परमाणु बम के समर्थन में भारत में फिर से आवाज बुलंद होने लगी। भारत को अपने खिलाफ चीन और पाकिस्तान के गठबंधन का डर आज भी रहता है। उस समय भी चीन पाकिस्तान का साथी बना था। 
 
तब भारतीयों का तर्क था, 'यदि भारत ने परमाणु परीक्षण नहीं किया तो चीन 1971 के युद्ध में पाक का समर्थन कर सकता है। जबकि भारत के भी परमाणु शक्ति संपन्न होने से भारत और चीन के बीच शक्ति संतुलन बनेगा। सोचा यह भी गया था कि चीन, पाकिस्तान का साथ देने की गलती नहीं करेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 
 
परंतु सोचा गया कि भारत के परमाणु शक्ति संपन्न होने के बाद उसके दुनिया की बड़ी ताकतों में शामिल होने का रास्ता साफ हो गया और भारत दक्षिण एशिया की बड़ी ताकत भी बन जाएगा। भारत को सहायता के लिए सोवियत यूनियन का मुंह भी नहीं देखना पड़ेगा। 
 
भारत की बढ़ती ताकत के साथ भारत के प्रति अमेरिका का रवैया भी दोस्ताना हो जाएगा और अमेरिकी दुश्मनी का भाव खत्म हो जाएगा। इससे भी ज्यादा बड़ा बदलाव तब आया, जब 30 दिसंबर, 1971 में परमाणु बम के विरोध में खड़े भारत के अग्रिम पंक्ति के वैज्ञानिक और आईएइसी (इंडियन एटोमिक एनर्जी कमीशन) के चेयरमैन विक्रम साराभाई की मौत हो गई।  
 
उनके बाद होमी सेठना को आईएइसी के चेयरमैन की जिम्मेदारी सौंपी गई जो कि जो पहले बार्क (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर) के प्रमुख थे। सेठना परमाणु शक्ति के पक्के समर्थक थे। भारत ने परमाणु विस्फोट का मन बना लिया और तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गईं।
 
वर्ष 1973 के मध्य तक सारी तैयारियां पूरी होने को थीं और ऐसे में भारत विस्फोट के लिए एक ठीक-ठाक जगह की तलाश में था। पर इसमें समस्या यह थी कि एक दशक पहले 1963 में भारत पीटीबीटी (पार्शियल टेस्ट बैन ट्रीटी) नाम के परमाणु परीक्षण के खिलाफ समझौते पर हस्ताक्षर कर चुका था। 
 
इस समझौते के हिसाब से, 'कोई भी देश परमाणु हथियार या किसी भी दूसरे रूप में परमाणु विस्फोट वातावरण में नहीं कर सकता था। वातावरण जिसमें आसमान भी शामिल था इसलिए वह पानी के अंदर भी विस्फोट नहीं कर सकता था। और न ही अपने देश की सीमा में आने वाले सागर में कर सकता था और ना ही ऐसे समंदर में कर सकता था जिस पर किसी भी देश का अधिकार न हो।'
 
भारत ने विस्फोट के वक्त ये सारी शर्तें मान लीं और सूझ-बूझ का परिचय देते हुए, विस्फोट जमीन के भीतर करने का निर्णय लिया। विस्फोट के कर्ता-धर्ता रहे राजा रमन्ना ने अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र किया है कि इस ऑपरेशन के बारे में इससे जुड़ी एजेंसियों के कुछ लोग ही जानते थे। 
 
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अलावा मुख्य सचिव पीएन हक्सर, एक और मुख्य सचिव पीएन धर, भारतीय रक्षामंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. नाग चौधरी और एटॉमिक एनर्जी कमीशन के चेयरमैन एचएन सेठना और खुद रमन्ना जैसे कुछ ही लोग इससे जुड़े प्रोग्राम और बैठकों में शामिल थे।
 
इंदिरा गांधी सरकार ने इस ऑपरेशन में मात्र 75 वैज्ञानिकों को लगा रखा था। भारतीय सेना के प्रमुख जनरल जी.जी. बेवूर और इंडियन वेस्टर्न कमांड के कमांडर ही सेना के लोग थे, जिन्हें होने वाले इस ऑपरेशन की जानकारी थी। तत्कालीन रक्षामंत्री जगजीवन राम को भी इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उन्हें इस बारे में तभी पता चला जब यह ऑपरेशन सफलतापूर्वक पूरा हो गया।
 
विस्फोट से पहले की अंतिम बैठक में इंदिरा गांधी के अंतिम शब्द निर्णायक साबित हुए। राजा रमन्ना ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, 'मेरा मानना था कि यह एक औपचारिकता होगी पर उस बैठक में तीखी बहस हो गई। पीएन धर ने इस विस्फोट का जोरदार विरोध किया क्योंकि उन्हें लगा था कि यह  विस्फोट भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा।'
 
हक्सर ने भी कहा कि अभी इसके लिए सही वक्त नहीं है और इसके पीछे अपने तर्क दिए। रमन्ना ने खुद कहा कि अब जितनी तैयारियां हो चुकी हैं और जिस स्थिति तक हम आ चुके हैं, इसके बाद टेस्ट को टालना नामुमकिन है। और रमन्ना इसे सौभाग्य की बात कहते हैं कि तभी इंदिरा गांधी जो शांत बैठी थीं, बोलीं, 'इस साफ-सीधी बात के लिए इस परीक्षण को निर्धारित तारीख पर हो जाना चाहिए कि भारत को (दुनिया के सामने) एक ऐसे प्रदर्शन की जरूरत है।'
 
यह परमाणु डिवाइस (उपकरण) जब पूरी तरह तैयार हो गया तो यह षट्कोणीय आकार की थी और इसका व्यास 1.25 मीटर और वजन 1400 किलो था। यह डिवाइस ट्रेन से वहां पर ले जाई गई थी और इसके लिए सेना ने वहां रेल की पटरियां बिछाई थीं। सेना इस डिवाइस को बालू में छिपाकर ले गई थी।
 
ये परमाणु विस्फोट पोखरण, राजस्थान में इंडियन आर्मी बेस में किया गया। समय हुआ था, सवेरे के 8 बजकर, 5 मिनट और एक तेज विस्फोट। विस्फोट इतना तेज था कि एक बड़ा सा गड्ढा जमीन में हो गया था जिसका व्यास 45 से लेकर 75 मीटर तक था। जमीन में 10 मीटर नीचे तक इसका प्रभाव था। इस विस्फोट के चलते आसपास के 8 से 10 किमी के इलाके में तेज झटका लगा था।
 
चूंकि यह ऑपरेशन बुद्ध जयंती के दिन किया गया जो कि 1974 में 18 मई के दिन पड़ रही थी। इसलिए ऑपरेशन की सारी तैयारी के दौरान इसे शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट कहा जा रहा था। ऑपरेशन पूरा होने पर वैज्ञानिकों ने इंदिरा गांधी को फोन किया और खबर दी कि 'बुद्ध मुस्कराए'। 
 
इस परीक्षण के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने देशवासियों से एक महान वादा किया कि वह पाकिस्तान को भारत की परमाणु ताकत से कभी ब्लैकमेल नहीं होने देंगे। अगर भारत के साथ परमाणु बराबरी पाने के लिए पाकिस्तान के लोग कोई भी बलिदान देंगे, यहां तक कि अगर उन्हें घास भी खानी पड़ी तो खाएंगे।
 
अब यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि भारत का यह पहला परमाणु परीक्षण, जिसका प्लान पिछले एक दशक से हो रहा था, निस्संदेह लौह महिला इंदिरा गांधी की दृढ़ इच्छाशक्ति की मिसाल है। पाकिस्तान, चीन और अमेरिका की तिकड़ी का दबाव झेलने के बाद यह इंदिरा गांधी का एक ऐसा कदम था जिसके बाद 25 साल तक (कारगिल तक) पाकिस्तान भारत की ओर नजरें उठाकर भी नहीं देख सका।

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