दिनांक 7 अक्टोबर को देवी-विसर्जन के साथ ही 9 दिनों से चले आ रहे शारदीय नवरात्र समाप्त जाएंगे। हमारी सनातन परंपरा में विसर्जन का विशेष महत्व है। विसर्जन अर्थात् पूर्णता, फ़िर चाहे वह जीवन की हो, साधना की हो या प्रकृति की। जिस दिन कोई वस्तु पूर्ण हो जाती है उसका विसर्जन अवश्यंभावी हो जाता है।
आध्यात्मिक जगत् में विसर्जन समाप्ति की निशानी नहीं अपितु पूर्णता का संकेत है। देवी-विसर्जन के पीछे भी यही गूढ़ उद्देश्य निहित है। हम शारदीय नवरात्र के प्रारंभ होते ही देवी की प्रतिमा बनाते हैं, उसे वस्त्र-अलंकारों से सजाते हैं। नौ दिन तक उसी प्रतिमा की पूर्ण श्रद्धाभाव से पूजा-अर्चना करते हैं और फ़िर एक दिन उसी प्रतिमा को जल में विसर्जित कर देते हैं।
नवरात्र के 9 दिन इसी बात की ओर संकेत हैं कि हमें अपनी साधना में किसी एक आकार पर रूकना या अटकना नहीं है अपितु साधना की पूर्णता करते हुए हमारे आराध्य आकार को भी विसर्जित कर निराकार की उपलब्धि करना है। जब इस प्रकार निराकार की प्राप्ति साधक कर लेता है तब उसे सृष्टि के प्रत्येक आकार में उसी एक के दर्शन होते हैं जिसे आप चाहे तो परमात्मा कहें या फ़िर कोई और नाम दें, नामों से उसके होने में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। साधना की ऐसी स्थिति में उपनिषद् का यह सूत्र अनुभूत होने लगता है- सर्व खल्विदं ब्रह्म और यही परमात्मा का एकमात्र सत्य है।