नई दिल्ली। 6 से 14 वर्ष के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) लागू हुए 4 वर्ष गुजर जानने के बाद भी स्कूलों खासतौर पर निजी स्कूलों में पिछड़े और समाज के कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने के प्रावधान पर ठीक ढंग से अमल नहीं हो रहा है।
इंडस एक्शन और सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन के ताजा अध्ययन के अनुसार दिल्ली में 4 प्रतिशत से कम अभिभावकों को इस बात की जानकारी है कि निजी स्कूलों में आरटीई के तहत समाज के कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने का प्रावधान है।
संगठन के संयोजक तरुण चेरुकुरी ने कहा कि सूचना का अधिकार कानून, 2009 की धारा 12 (1) (सी) के प्रावधानों पर पूरी तरह से अमल किया जाए, तब इससे करीब 1 करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे में आ सकते हैं, लेकिन जागरूकता फैलाने के तमाम प्रयासों के बावजूद इसका समुचित फायदा नहीं मिल पा रहा है।
अध्ययन के अनुसार दिल्ली में आरटीई के कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए सीट आरक्षित करने के प्रावधान को ठीक ढंग से लागू किया जाए तो इसके दायरे में 35 हजार सीटें आ सकती हैं। निजी स्कूलों में ऐसे बच्चों को इसका ठीक ढंग से लाभ नहीं मिल रहा है जिनके परिवार की सालाना आय 1 लाख रुपए से कम है।
हालांकि 94.8 प्रतिशत लोगों के पास बच्चों के जन्म संबंधी प्रमाण-पत्र हैं जबकि 82.8 प्रतिशत लोगों के पास आय के प्रमाण के दस्तावेज हैं।
गौरतलब है कि सर्वशिक्षा अभियान के दौरान पिछले 3 वर्ष में पूरे देश में कुल 1.13 लाख करोड़ रुपए खर्च किए गए लेकिन स्कूलों में शिक्षकों की उपलब्धता, समाज के वंचित वर्ग के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करना, अशक्त बच्चों को पढ़ाई के अवसर मुहैया कराने जैसी कमियों को अभी दूर नहीं किया जा सका है।
स्पास्टिक सोसाइटी ऑफ इंडिया की अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद की सदस्य रही मिथू अलूर ने कहा कि योजनाओं एवं बजट में अशक्त बच्चों की परिभाषा को पूरी तरह से स्पष्ट किए जाने की जरूरत है।
उन्होंने कहा कि कई बार परिभाषा स्पष्ट नहीं होने से लाभार्थियों को उपयुक्त लाभ नहीं मिल पाता है। अशक्त बच्चों के संबंध में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने एवं उन्हें बच्चों की जरूरतों के बारे में जागरूक बनाए जाने की जरूरत है। अभिभावकों को भी स्कूलों में ऐसे बच्चों के लिए सीट आरक्षित होने के प्रावधान की जानकारी दिए जाने की जरूरत है। (भाषा)