भारतीय संविधान में संशोधन व कुछ नए प्रावधान जोड़ने अत्यावश्यक हो गए हैं

- डॉ. आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय'
कैलिफोर्निया, यूएसए
 
मैं विद्यानगर, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) का मूल निवासी हूं। फरवरी 1982 में मैं अमेरिका (USA) आकर बसा था। अभी हाल में ही मार्च 2015 में मैं कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी से (‘कम्युनिटी सर्विस ऑफिसर’ के पद से) रिटायर हो गया। गत 33 वर्षों के अपने अमेरिका-प्रवास के दौरान मैंने यहां के प्रवासी भारतीयों, मूल अमेरिकनों व उन अन्य विदेशियों, जो अमेरिका में बसे हुए हैं और भारत तथा भारतीय राजनीति में विशेष रुचि रखते हैं, के सैकड़ों लेख व कई पुस्तकें पढ़ीं, समय-समय पर उनके आमने-सामने विचार सुने, बरसों यूनिवर्सिटी में काम करते हुए अनेक विद्वान अमेरिकन प्रोफेसर मित्रों के संपर्क में आया, जो मुझसे मिलने पर अक्सर किसी न किसी भारतीय राजनीति के टॉपिक पर चर्चा छेड़ देते थे। तो उन सबके और अपने भी विचारों के सारांश व निचोड़ मैं यहां रखना चाहता हूं। शायद आपको रुचिकर लगे।
 
अमेरिका में अधिकांश यानी 95% लोगों का यह कहना, मानना या विचार है कि 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत में जो संविधान लागू हुआ था वह वहां के प्रथम प्रधानमंत्री (यानी जवाहरलाल नेहरू) के कार्यकाल तक यानी कोई 17-18 वर्षों तक तो बिलकुल ठीक या उचित था, क्योंकि यह संविधान तत्कालीन स्वातंत्र्योत्तर भारत की आवश्यकता के अनुरूप व देश की तत्कालीन परिस्थितियों को मद्देनजर रखकर बनाया गया था। किंतु नेहरूजी के देहांत के बाद यानी 1964 के बाद से देश में द्रुतगामी परिवर्तन हुए हैं तदनुसार भारत के संविधान में ‘द्रुतगामी-संशोधन’ नहीं हो पाए। विकासशील देशों की दौड़ में भारत के पिछड़ जाने का यह एक बहुत कारण भी है। किसी भी देश का संविधान लचीला होना चाहिए जिसमें उस देश की वर्तमान परिस्थितियों और आवश्यकता के अनुसार तत्काल संशोधन किया जा सके, क्योंकि संविधान का मुख्य उद्देश्य होता है- देश की शासन व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने के साथ-साथ ‘राष्ट्र कल्याण’। यदि राष्ट्र कल्याण के लिए हमें अपने संविधान में एक नहीं, अनगिनत संशोधन भी करने पड़ें तो वे हमें करने चाहिए, नए प्रावधान जोड़ने की आवश्यकता हो तो वे भी हमें जोड़ने चाहिए, इस बात से कोई भी देशवासी इंकार नहीं कर सकता।
 
अमेरिका में अक्सर मुझे/ हमें सुनने को मिलता है- जब भारत में देश के वास्तविक शासक प्रधानमंत्री होते हैं तो वहां पर राष्ट्रपति की क्या आवश्यकता है? अमेरिकी अक्सर उदाहरण देते हैं कि हमारे यहां चूंकि वास्तविक शासक राष्ट्रपति होते हैं अतः यहां पर हम प्रधानमंत्री नहीं बनाते। कुछ अमेरिकन अपनी ‘बनियागिरी’ दिखाते हुए यह भी कह देते हैं कि इस तरह से हम प्रधानमंत्री पर होने वाला अनावश्यक खर्च भी बचा लेते हैं। इसी तरह से जब भारत के राज्यों के वास्तविक शासक मुख्यमंत्री होते हैं तो वहां पर राज्यपालों की क्या जरूरत है?
 
स्वतंत्र भारत के गत कोई 68 वर्षों में/ से हम यही देखते आ रहे हैं कि राष्ट्रपति देश के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों को ‘पद और गोपनीयता की शपथ’ दिलवाने (और वह भी ज्यादातर 5 साल में सिर्फ 1 बार) के अलावा और कोई भी महत्वपूर्ण काम नहीं करते और यह काम तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस भी कर सकते हैं। ठीक इसी तरह से भारतीय राज्यों के 29-30 राज्यपाल भी नवनिर्वाचित मुख्यमंत्रियों और उनके कैबिनेट को हर 5 साल में 1 बार ‘पद और गोपनीयता’ की शपथ दिलवाने के सिवाय कोई अन्य महत्वपूर्ण कार्य नहीं करते, तो यही काम राज्यों के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस भी कर सकते हैं।
 
कभी-कभी राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को उसे पुनर्विचार के लिए लौटा देते हैं। राज्यपाल भी विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को यदा-कदा पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेज देते हैं। यह काम भी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस भी कर सकते हैं। आखिर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की स्वीकृति के बिना राष्ट्र और उसके राज्यों में कोई कानून लागू हो भी/ ही नहीं सकता। अमेरिका में भारत के हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट को बेहद-बेहद-बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। अमेरिकी अक्सर कहते रहते हैं- इसमें कोई दो मत नहीं कि आपके यहां (यानी भारत में) न्यायालय सचमुच उच्च कोटि के और निष्पक्ष हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों तक के निर्वाचन को अवैध घोषित किया है।
 
तो इस तरह से सचमुच भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और 29-30 राज्यपालों की अब कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के 10 वर्षों के कार्यकाल के बाद ही भारतीय संविधान में संशोधन करके इस पद को समाप्त कर देना चाहिए था।
 
यह कड़वा सच कौन नहीं जानता कि भारत के राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट के तथा राज्यपालगण अपने मुख्यमंत्रियों और उनकी कैबिनेट के हाथों की कठपुतलियां होते हैं। राष्ट्रपति द्वारा संसद में दिए जाने वाले अभिभाषण/राष्ट्र के नाम संदेश आदि तक को प्रधानमंत्री के निर्देशन में ही तैयार किया जाता है। जो राष्ट्रपति-राज्यपाल ‘कठपुतली’ नहीं रहना चाहते (आमतौर पर वे जो प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री के दल के नहीं हैं) उनके साथ सरकार की खींचतान शुरू हो जाती है और अंततोगत्वा उन्हें निकाल दिया जाता है।
 
फिलहाल अभी तक राष्ट्रपति के लिए ऐसी नौबत नहीं आई है, लेकिन कई राज्यपाल अपने पदों से 'भगाए' जा चुके हैं। उन्हें ‘भगाता’ कौन है? प्रधानमंत्री के इशारे पर ही राष्ट्रपति, क्योंकि वही राज्यपालों के ऑफिशियली बॉस होते हैं। राष्ट्रपति ही राज्यपाल की नियुक्ति करते हैं, कहना न होगा प्रधानमंत्री की ही सलाह पर। 2014 में केंद्र में बीजेपी की सत्ता में आने के बाद आपने नोटिस किया ही होगा कि कांग्रेस शासनकाल में नियुक्त राज्यपालगण धीरे-धीरे हटाए जा रहे हैं और उनकी जगह बीजेपी के राज्यपाल नियुक्त होते जा रहे हैं।
 
भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और 29-30 राज्यपालों के वेतन, उनके आलीशान महलनुमा निवास, उनकी विदेश यात्रा और उनकी सुरक्षा पर भारत के आयकरदाताओं के जो अरबों-खरबों रुपए व्यर्थ खर्च होते हैं और गत अनेक वर्षों से होते आ रहे हैं, उस विशाल रकम से तो अब तक देशभर में इतने सारे उद्योग-धंधे और फैक्टरी-कारखाने खुल गए होते कि भारत की अधिकांश बेरोजगारी दूर हो गई होती। भारत को विदेशों में अपने ‘बेईमान व आयकर चोरों’ की जमा तथाकथित कालेधन वापस लाने की तो चिंता है किंतु ईमानदार आयकरदाताओं के जो ‘सफेद-धन’ व्यर्थ हो रहे हैं (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व राज्यपालों पर होने वाले अपार खर्च के कारण) उसे बचाने की कोई भी चिंता नहीं है।
 
 

भारत का एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग भी चाहता है कि अब इन अनावश्यक महामहिम पदों का उन्मूलन कर दिया जाए किंतु कहने से डरता है- 'बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?' जो बांधने की कोशिश करेगा उसे ही ‘बिल्ली’ दबोच लेगी। पुराने राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स (उन्हें मिलने वाले मुफ्त के भत्ते) जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने समाप्त कर दिए थे, तब देश में उनके चमचों और भक्तों ने खूब हो-हल्ला मचाया था।
 
हो सकता है राष्ट्रपति-राज्यपाल पदों के उन्मूलन के बाद भी देश में वैसा ही हो-हल्ला मचे और शांत हो जाए। हां, संविधान में यह संशोधन/ प्रावधान किया जा सकता है कि वर्तमान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व सभी राज्यपाल अपना वर्तमान कार्यकाल पूरा होने तक अपने पदों पर बने रहेंगे। तत्पश्चात राष्ट्रपति के कार्यभार सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और राज्यपालों के कार्यभार उनके राज्यों के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस संभाल लेंगे। इस अतिरिक्त कार्यभार के फलस्वरूप सभी चीफ जस्टिसों को कुछ वेतन वेतन-वृद्धि दे दी जाए।
 
जिस दिन देश के इन अपार खर्चों वाले अनावश्यक पदों का उन्मूलन हो जाएगा उसी दिन से भारत के 30 लाख बेरोजगारों को प्रतिवर्ष काम मिलना भी शुरू हो जाएगा। भारत के लाखों-करोड़ों बेरोजगारों को काम देना ज्यादा जरूरी है या इन अनावश्यक पदों को बनाए रखकर अरबों-खरबों रुपए व्यर्थ फेंकना? इस प्रश्न का उत्तर देना बेहद आसान है। कोई और नहीं तो शायद भारत के बेरोजगार युवक-युवतियां एक दिन इस तथ्य को समझेंगे और अब इन अनावश्यक पदों पर पानी की तरह बहने वाले अपार धन की बर्बादी रोक लेंगे- अपने रोजगार प्राप्ति के लिए उद्योग-धंधे लगवाने हेतु या पर्याप्त बेरोजगारी भत्ता पाने हेतु।
 
इससे पहले कि मैं चर्चा करूं भारत के वास्तविक शासक ‘प्रधानमंत्री’ और उसके राज्यों के वास्तविक शासक ‘मुख्यमंत्री’ का चुनाव कितने गलत ढंग से होता है, मैं दो सच्ची घटनाओं के जिक्र करना कहूंगा। 1962 के जुलाई के आखिरी दिन थे। शायद 30 या 31 जुलाई का दिन था। तब मैं तिलकनगर म्युनिसिपल मिडिल स्कूल, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में कक्षा 8वीं का विद्यार्थी था। हमारे कक्षा-शिक्षक गनपतराव सप्रे हमारी कक्षा में आए किंतु उस दिन उन्होंने पढ़ाया नहीं। कक्षा में उस दिन वे आते ही बोले- ‘अब तुम्हारा स्कूल खुले 1 माह हो चुका है। (उन दिनों स्कूल ग्रीष्मावकाश के बाद 1 जुलाई से खुलते थे) तो आज तुम लोग अपने बहुमत से ही अपनी कक्षा का कप्तान चुनोगे। फिर उन्होंने कप्तान चुनने की एक छोटी-सी भूमिका बांधी और पिछले 20 सालों का इसका इतिहास बताया।
 
सप्रे सर पिछले 20 सालों से 8वीं के कक्षा-शिक्षक रहते चले आ रहे थे। कप्तान की ड्यूटी होती थी यदि कक्षा-शिक्षक स्कूल के किसी अन्य कार्य में व्यस्त हों तो विद्यार्थियों की हाजिरी लेना, किसी वजह से पीरियड खाली जा रहा हो तो कक्षा की निगरानी करना, जो विद्यार्थी अनुशासनहीनता कर रहे हों, हल्ला मचा रहे हों उनके नाम नोट करना और कक्षा-शिक्षक के आने पर इन शरारती विद्यार्थियों के नामों की उन्हें लिस्ट देना। फिर ऐसे सभी विद्यार्थियों को कक्षा-शिक्षक से सजा मिलती थी।
 
सप्रेजी ने बताया- शुरू के 4-5 सालों में मैं अपने ही पसंद से किसी एक ‘होशियार विद्यार्थी’ को कक्षा का कप्तान बना देता था (जैसे भारत में पार्टी-अध्यक्ष अक्सर अपनी पसंद के व्यक्ति को ही प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बना देता है-125 करोड़ भारतीयों की पसंद की अवहेलना करके। दूसरे शब्दों में पार्टी अध्यक्ष अपनी पसंद या स्वार्थ को 125 करोड़ भारतीयों पर जबरन लाद देता है।)
 
सप्रेजी ने आगे बताया- लेकिन मैंने नोटिस किया कि डेढ़-दो महीनों में उस कप्तान की मेरे पास कई विद्यार्थियों से शिकायतें आनी शुरू हो जाती थीं, जैसे सर इसने (कप्तान ने) जान-बूझकर अनुशासनहीनता के लिए मेरा नाम लिख दिया है, क्योंकि वह मुझे पसंद नहीं करता वगैरह। जब शिकायतें बढ़ने लगतीं तब मैं उस कप्तान को हटाकर किसी दूसरे विद्यार्थी को यह काम (यानी कप्तानी का) सौंप देता था (जैसे झारखंड में 10 साल में 10 बार कप्तान यानी मुख्यमंत्री अदले-बदले गए, क्योंकि वे 2 करोड़ 70 लाख झारखंडियों के बहुमत प्राप्त नेता नहीं थे। वे तो मात्र 50-55 लोगों (विधायकों) द्वारा चुने कप्तान/ मुख्यमंत्री थे जिसकी सरकार कुछ दिनों में गिरनी ही थी। अमेरिका के किसी एक राज्य में 10 साल में 10 गवर्नरों की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। प्रायः एक ही व्यक्ति गवर्नर या राज्यपाल के अपने दोनों कार्यकाल वहां पूरा करता है।) खैर, तो सप्रेजी ने आगे बताया- लेकिन 2-3 माह में मेरे द्वारा नियुक्त दूसरे कप्तान की भी शिकायतें आनी शुरू हो जाती थीं। तब मैंने निश्चय किया कि कप्तान उसे बनाया जाना चाहिए जिसे कक्षा का बहुमत पसंद करता हो।
 
 

इस निर्णय के बाद से ही हर जुलाई के अंत में मेरे विद्यार्थी अपनी पसंद से, अपने बहुमत से ही अपनी कक्षा का कप्तान चुनते आ रहे हैं और फिर गत 15 वर्षों में/ से किसी कप्तान की कोई शिकायत नहीं आई है। फिर सप्रेजी ने गुप्त मतदान द्वारा हम विद्यार्थियों के बहुमत से ही पहले कप्तान के लिए 2 प्रत्याशियों का चयन किया। फिर गुप्त मतदान से ही हम विद्यार्थियों ने अपने बहुमत से ही उनमें से एक को अपनी कक्षा का कप्तान चुना। सप्रे सर का कथन सच निकला। हमारी कक्षा के बहुमत से चुने गए उस कप्तान की कभी किसी ने शिकायत नहीं की और उसने अपना कार्यकाल (शिक्षा का सत्रांत) भी पूरा किया।
 
‘आम जनता का बहुमत प्राप्त नेता हमेशा सफल शासक होता है। कभी उसकी सरकार नहीं गिरती और हमेशा वह अपना कार्यकाल पूरा करता है।’ इन बातों का पहला पाठ हमें अपने गुरु सप्रे सर से ही मिला था। ज्ञान तो गुरु से ही मिलना था न। काश! हमारे देश-भारत के वर्तमान कर्णधारों को भी आज भी कोई ‘सप्रे सर’ मिल जाते और वे संविधान में संशोधन करके हमारे देश-राज्य के वास्तविक शासकों (प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री) की गलत चयन-पद्धति को बदल देते ताकि हमारे देश की बारंबार गिरने वाली (केंद्र और राज्य की) अल्पकालीन सरकारें दीर्घकालीन बनीं रहतीं यानी 5 सालों तक सुचारु रूप से चलती रहतीं।
 
एक व्यक्ति के राजनीतिक स्वार्थ की सजा सारे देश को भुगतनी पड़ती है। याद कीजिए 1999 जब दक्षिण की एक ‘अम्मा’ ने केंद्र की वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर मात्र 1 वोट की कमी से उसे गिरा दिया था और सारे देश को करोड़ों-अरबों-खरबों रुपयों के मध्यावधि चुनाव की आग में झोंक दिया था। और वाजपेयी सरकार चुनाव के बाद आखिर लौट आई थी।
 
काश! भारत के संविधान में ऐसा प्रावधान होता कि ‘एक विश्वास मत’ की कमी से यदि सरकार गिरने की नौबत आ जाती है तो उसे स्पीकर द्वारा 1 कृपांक देकर बचा लिया जाए ताकि देश मध्यावधि चुनाव के अपार और विशाल खर्च से बच जाए। सरकार गिरने से बच जाने से केवल कुछ सौ विपक्ष का ‘बुरा’ होगा किंतु 125 करोड़ भारतीयों का भला जिनसे अंततोगत्वा चुनावी खर्च आयकर/ बिक्री कर/ जायदाद कर आदि बढ़ाकर या किसी अन्य बहाने कालांतर में वसूला ही जाएगा। 
 
हमारे ‘कर’ (टैक्स) प्रतिवर्ष क्यों बढ़ते जा रहे हैं? तथाकथित बहुमत के अशुभ आंकड़े 272 और 271 में नाममात्र का ही तो अंतर है। गत 68 वर्षों में केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के गिरने से मध्यावधि चुनाओं में जो अपार और विशाल धन भस्म हुए हैं, प्रथम राष्ट्रपति के बाद से ही यदि ‘राष्ट्रपति-राज्यपाल’ पदों का उन्मूलन हो गया होता तो उन विशाल रकमों की बचत से शायद आज देश मालामाल रहता। लेकिन हमारी सरकार सोचती है कि देश के बाहर ‘गड़े’ कालेधन के वापस आने से ही हम मालामाल होंगे। उत्तरप्रदेश के एक गांव डोंडियाखेड़ा से गड़ा धन निकालकर हम खूब मालामाल हुए थे न!
 
दूसरी सच्ची घटना जिसे आप भी जानते होंगे। आम जनता के बहुमत से चुना शासक कितना सुदृढ़ होता है इसका ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया था अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने। राष्ट्रपति क्लिंटन (अपनी पत्नी के रहते हुए भी) व्हाइट हाउस की एक कर्मचारी लड़की मोनिका लेविंस्की से प्रेम करने लगे, जो एक दिन जगजाहिर हो ही गई। कहा भी गया है इश्क और मुश्क (इत्र की सुगंध) छिपाए नहीं छिपते। तब अमेरिकी संसद कांग्रेस ने अपने ‘चरित्रहीन राष्ट्रपति’ को ‘महाभियोग’ (इम्पीचमेंट) प्रक्रिया से पदच्युत करने की ठानी।
 
अमेरिकी राष्ट्रपति को उसके पद से हटाने के लिए उस पर कांग्रेस (अमेरिकी संसद) में ‘महाभियोग’ सिद्ध होना अनिवार्य होता है तो कांग्रेस में क्लिंटन पर ‘परस्त्रीगमन’ का अपराध तो सिद्ध हुआ किंतु महाभियोग या इम्पीचमेंट नहीं। अमेरिकी संसद ने उन्हें पदच्युत करने के लिए अपनी एड़ी-चोटी एक कर दी किंतु वह क्लिटन को नहीं निकाल सकी। 
 
उन्होंने अपने दोनों कार्यकाल पूरे किए। इसका एकमात्र प्रमुख कारण था क्लिंटन को राष्ट्रपति अमेरिकी संसद के 272 सांसदों ने नहीं, करोड़ों अमेरिकी जनता ने अपने बहुमत से चुनकर बनाया था। अपने ऊपर महाभियोग असफल हो जाने के बाद क्लिंटन ने कहा भी था- 'मुझे अपना राष्ट्रपति अमेरिकी जनता ने मिलकर चुना है कांग्रेस (अमेरिकी संसद) ने नहीं इसीलिए वह मुझे राष्ट्रपति के पद से नहीं निकाल सकी।'
 
उपरोक्त दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत के वास्तविक शासक ‘प्रधानमंत्री’ और उसके राज्यों के वास्तविक शासकों ‘मुख्यमंत्री’ के चुनाव कितने गलत ढंग से होते हैं। यही कारण है कि भारत में अब तक हुए (यदि गुलजारीलाल नंदा को भी गिन लिया जाए, जो नेहरूजी और शास्त्रीजी के देहांत के बाद कुछ-कुछ समय के लिए कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे) 16 प्रधानमंत्रियों में से आधे दर्जन प्रधानमंत्रियों (नेहरू, इंदिरा, राजीव, राव, वाजपेयी और डॉ. सिंह) को छोड़कर कोई भी प्रधानमंत्री अपना एक कार्यकाल (5 वर्ष) पूरा नहीं कर सका।
 
अधिकांश प्रधानमंत्रियों की सरकारें तो तथाकथित अशुभ अंक 13 दिनों से लेकर 13 महीनों से पहले ही गिर-गिर गईं। क्यों? क्योंकि उन 10 कमजोर सरकारों के प्रधानमंत्रियों ने अपने समर्थन में येन-केन-प्रकारेण 272 सांसदों का बेहद अशुभ आंकड़ा 13 दिनों से लेकर 13 महीनों के लिए किसी तरह से जुटा लिया था। यह 272 का आंकड़ा सचमुच हमारे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है जिसे प्राप्त करने के लिए हमारे देश के कर्णधारों ने कौन-कौन से हथकंडे नहीं अपनाए? सांसदों की खरीद-फरोख्त से लेकर करोड़ों रुपए के नोट लहराने के दृश्य हम संसद के भीतर देख-सुन चुके हैं।
 
हमारी राज्य सरकारों का तो और भी बुरा हाल रहता है, जहां आए दिन पार्टी-अध्यक्ष की इच्छानुसार मुख्यमंत्री बदलते रहते हैं। झारखंड न केवल भारत का बल्कि दुनिया का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां आज तक वहां के किसी भी ‘वास्तविक शासक’ (मुख्यमंत्री) ने अपना एक कार्यकाल (5 वर्ष) पूरा नहीं किया है जबकि वहां 10वें मुख्यमंत्री चल रहे हैं।
 
भारत के संविधान में सबसे आश्चर्यजनक और विचित्र बात तो यह है कि इस देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केंद्र-राज्य के मंत्रियों, सांसदों व विधायकों के लिए कोई भी ‘मिनिमम-एजुकेशन’ यानी ‘कम से कम शैक्षणिक-योग्यता’ कुछ भी निर्धारित नहीं किया गया है, फलस्वरूप इस देश में अनपढ़-गंवार महिला-पुरुष लोग भी मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक बन जाते हैं। कुछ वर्ष हुए अमेरिका में हमने टीवी पर शायद राजस्थान की एक अनपढ़ विधायिका को कभी मंत्री-पद की शपथ लेते हुए देखा था।
 
विधायिका ‘शपथ ग्रहण’ पढ़ नहीं सकती थीं अतः उसके बदले कोई और पढ़ रहा था जिसे दोहराने में भी वे बेहद गलतियां कर रही थीं। और वहां शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित सारे लोग ठहाके लगाकर हंस रहे थे। यह हंसने की नहीं, हम शत-प्रतिशत भारतीयों के लिए शर्म की बात है, शत-प्रतिशत भारतीयों के लिए अपमान की बात है। वहां उपस्थित लोग उस अनपढ़ विधायिका पर नहीं, हमारे संविधान पर, भारतीय संविधान पर हंस रहे थे। काश! भारत के संविधान में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख होता कि विधायक-सांसद बनने के लिए कम से कम शैक्षणिक योग्यता 12वीं पास होना अनिवार्य है।
 
नेहरूजी के बाद यानी 1964 के बाद न सही (क्योंकि तब तक देश में शिक्षा का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था लेकिन आज तो भारत के अधिकांश गावों में हाईस्कूल यानी 12वीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था हो गई है, बहुत से गांवों में तो कॉलेज भी खुल गए हैं) लेकिन 2014 के बाद तो संविधान में यह संशोधन या प्रावधान तो जुड़ना ही चाहिए कि हमारे देश-राज्य के कर्णधारों (केंद्र-राज्य के मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री) को कम से कम स्नातक/ ग्रेजुएट तो होना ही चाहिए।
 
‘खुदा का शुक्र’ है और भारत का सौभाग्य भी कि हमारे सभी तो नहीं कितु अधिकांश प्रधानमंत्री उच्च शिक्षा प्राप्त थे ओर हैं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास थे, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए पास हैं। अटल बिहारी वाजपेयी एमए, एलएलबी और डॉ. मनमोहन सिंह ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में पीएचडी हैं, खैर!
 
मुझे याद है एक बार हमारे यूनिवर्सिटी के (अमेरिका में) एक प्रोफेसर साहब ने भारत की राजनीतिक चर्चाओं के दौरान मुझसे कहा था। आदित्य, हमारा देश (अमेरिका) भी भारत की तरह एक लंबे समय तक इंग्लैंड का गुलाम था किंतु स्वतंत्रता के बाद (अमेरिका 4 जुलाई 1776 को इंग्लैंड से स्वतंत्र हुआ था) हमने अमेरिकी संविधानरूपी एक ऐसे मजबूत किले का निर्माण किया जिसमें अमेरिका और उसके (अब) 50 राज्यों की सरकारें भी हमेशा के लिए उस मजबूत किले में सुरक्षित हो गईं। हमने अपना संविधान ही ऐसा बनाया है कि हमारे देश की वर्तमान आवश्यकता के अनुसार हम उसमें तत्काल संशोधन कर सकें फलस्वरूप अमेरिका में सरकारें गिर ही नहीं सकतीं।
 
प्रोफेसर साहब ने आगे कहा कि हमारे बेहद मजबूत संविधान का आधार या उसकी नींव है- अमेरिका की आम जनता के बहुमत का महत्व। आप देख ही रहे हैं कि इसी आधार पर हम अपने देश और राज्य के वास्तविक शासक (राष्ट्रपति और राज्यपाल) चुनते हैं। किसी कारणवश उन्हें अपने पद से त्यागपत्र भले ही देना पड़े लेकिन उनकी सरकार कभी नहीं गिरती इसीलिए अमेरिका में आज तक (स्वतंत्रता प्राप्ति के कोई 240 वर्षों बाद भी) केंद्र या किसी राज्य में मध्यावधि चुनाव नहीं हुए। मात्र कैलिफोर्निया एक अपवाद है। उपराष्ट्रपति या उपराज्यपाल (ल्यूटीनेंट गवर्नर) तुरंत उसके पद पर काबिज होकर सरकार की बागडोर संभाल लेते हैं।
 
1974 में राष्ट्रपति निक्सन को वॉटरगेट कांड में बदनाम होने के कारण अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था और उपराष्ट्रपति फोर्ड ने उनका पद और उनकी सरकार ज्यों-की-त्यों संभाल ली थी। प्रांत स्तर की बात करें तो अमेरिका के 50 राज्यों में से सिर्फ एक कैलिफोर्निया-भर में केवल एक बार मध्यावधि चुनाव हुआ है और वह भी इसलिए कि तत्कालीन गवर्नर डेविस के कार्य से असंतुष्ट होकर 2003 में कैलिफोर्निया की जनता ने उन्हें ‘रीकॉल’ यानी वापस बुला लिया था (अमेरिकी संविधान के नियमानुसार) और गवर्नर पद का दुबारा चुनाव करवाया गया था। डेविस ने भी चुनाव लड़ा, पर वे हार गए थे।
 
'किंतु भारत में भी हम आम जनता के बहुमत प्राप्त व्यक्ति को ही चुनते हैं', मैंने प्रोफेसर साहब से कहा था।
 
'लेकिन भारत और उसके राज्यों के वास्तविक शासक नहीं', प्रोफेसर का आशय भारत के प्रधानमंत्री और उसके राज्यों के मुख्यमंत्रियों से था। उन्होंने आगे कहा कि मैं समझता हूं कि आपके यहां ‘संसदीय शासन प्रणाली’ को अपनाया गया है लेकिन फिर भी (भारतीय संविधान में) ऐसी व्यवस्था की गुंजाइश अवश्य हो सकती है कि भारत के प्रधानमंत्री आम भारतीय जनता चुने और उसके राज्यों के मुख्यमंत्री उन राज्यों की आम जनता चुने। चूंकि ये लोग आपके देश-राज्यों के वास्तविक शासक होते हैं अतः उन्हें आम जनता का बहुमत प्राप्त नेता तो होना ही चाहिए। मैं समझता हूं भारत और उसके राज्यों में अक्सर सरकारें गिरने, किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगते रहने के यही कारण होते हैं कि वहां के ‘वास्तविक शासक’ (प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री) आम जनता के बहुमत प्राप्त नेता नहीं होते बल्कि केवल कुछ सौ विधायकों-सांसदोंभर के ही वे नेता होते हैं।
 
हम यह कहते नहीं अघाते कि दुनिया के सबसे बड़े साहब, विश्व के सबसे ताकतवर इंसान यानी अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आ रहे हैं। जिस ताकतवर इंसान के लिए हम इतने कशीदे पढ़ते हैं जिसे हम दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान मानते हैं वैसा ही ताकतवर हम भारतीय प्रधानमंत्री को क्यों नहीं बना सकते? जबकि उसके पास भी वे सारी शक्तियां हैं, जो अमेरिकी राष्ट्रपति के पास हैं।
 
व्यावहारिक दृष्टि से प्रधानमंत्री देश के हर विभाग का ‘हेड’ है। व्यावहारिक दृष्टि से वह तीनों सेना का ‘कमांडर-इन-चीफ’ है, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री को कमजोर बना देती है उसकी चयन पद्धति। तभी तो यहां के 16 में से 10 प्रधानमंत्री 13 दिनों से लेकर 13 महीनों में ही ‘गिर’ पड़ते हैं। 
अमेरिकी राष्ट्रपति के ऊपर कोई ‘स्पेशल पंख’ नहीं लगे होते। वह भी भारतीय प्रधानमंत्री की तरह एक इंसान ही होता है।
 
...तो फिर वह इतना शक्तिशाली-पॉवरफुल कैसे हो गया? अमेरिकी राष्ट्रपति मात्र इसलिए शक्तिशाली होता है, क्योंकि उसे आम अमेरिकी जनता अपने बहुमत से चुनती है। वह मात्र इसीलिए सर्वशक्तिसंपन्न होता है, क्योंकि सारे देश यानी अमेरिका के 32 करोड़ लोगों का बहुमत उसके पक्ष में होता है, न कि मात्र ‘अशुभ आंकड़ा’ 272 सांसदों का पक्ष।
 
कानूनविद नहीं, कोई प्राइमरी स्कूल का बच्चा भी बता सकता है कि 272 लोगों के बहुमत और देशवासी करोड़ों लोगों के बहुमत में से कौन श्रेष्ठ है। देश के जिस वास्तविक शासक (राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री) को सारे देश के करोड़ों लोगों का बहुमत प्राप्त होगा, वह केवल कुछ सौ सांसदों के बहुमत का मोहताज क्यों होगा? जिसके पक्ष में सारे देश का बहुमत है, वह अपनी सरकार बनाने के लिए कुछ सांसदों की खरीद-फरोख्त क्यों करने लगा? उसकी सरकार ‘अम्मा’ के सिर्फ 1 वोट न मिलने से क्यों गिर जाएगी? सारा देश ‘करोड़ों-अरबों-खरबों’ रुपयों के मध्यावधि चुनाव की आग में क्यों भस्म हो जाएगा? पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन के हाथों में ‘अमेरिकी जनता का बहुमतरूपी ब्रह्मास्त्र’ था जिसने उनकी ओर आते ‘इम्पीचमेंटरूपी बाण’ को काटकर फेंक दिया।
 
स्वतंत्र अमेरिका के 240 वर्षों में वहां अब तक हुए 44 राष्ट्रपतियों में से एक भी नहीं ‘गिरा’ जबकि स्वतंत्र भारत के कोई 68 वर्षों में 16 में से 10 प्रधानमंत्री 13 दिन से 13 महीनों में ही ‘गिर’ गए। क्या यह स्पष्ट संकेत नहीं है कि हम अपने ‘वास्तविक शासक’ प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री गलत तरीके से चुनते हैं और इनके चुनाव के संबंध में भारतीय संविधान में तत्काल संशोधन होने चाहिए।
 
हम जिस माहौल में रहते हैं उससे हम प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। अमेरिका की चुनाव पद्धतियों ने मुझे बेहद प्रभावित किया है। गत 33 वर्षों में मैं अमेरिका में 8 राष्ट्रपति-चुनाव व अनेक राज्यपाल-चुनाव देख चुका हूं। अमेरिकी जिस तरीके से अपने देश के विभिन्न नेताओं की भीड़ में से राष्ट्रपति (उसके प्राइमरी चुनाव से लेकर वास्तविक चुनाव होने तक) ‘स्टेप-बाई-स्टेप’, छान-छानकर चुनते हैं उससे अमेरिका के 2 सर्वाधिक लोकप्रिय नेता उभरकर सामने आ जाते हैं। 1 डेमाक्रेटिक पार्टी से और 1 रिपब्लिकन पार्टी से (सौभाग्य से अमेरिका में राजनीतिक पार्टियां भी 2 ही हैं)। फिर आम जनता द्वारा ही चुने हुए इन दोनों प्रत्याशियों के बीच ही राष्ट्रपति चुनाव के लिए भिड़ंत होती है। किसी-किसी चुनाव में देश का कोई बेहद लोकप्रिय तीसरा (निर्दलीय) उम्मीदवार भी इन दोनों के साथ मैदान में आ जाता है (जैसे भारत में अमिताभ बच्चन लोकप्रिय हैं)। यद्यपि कोई निर्दलीय उम्मीदवार आज तक अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं बन सका।
 
अमेरिका में राष्ट्रपति-चुनाव प्रचार के दौरान सर्वाधिक और बेहद-बेहद-बेहद दिलचस्प बात देखने को मिलती है- सारे देश के सामने टीवी पर दोनों प्रत्याशियों के बीच साक्षात कुश्ती यानी राष्ट्रपति के दोनों उम्मीदवारों (यदा-कदा तीनों) के बीच देश की मौजूदा समस्या-समाधानों से संबंधित प्रश्नों पर वाद-विवाद। बिलकुल यही पद्धति यहां राज्यपाल के चुनाव में भी अपनाई जाती है। अमेरिका में इस वाद-विवाद/डिबेट में जनता के बीच माइक्रोफोन घूमते रहता है और जनता उनसे प्रश्न पूछती है कि यदि आप राष्ट्रपति चुन लिए गए तो देश की अमुक समस्या का समाधान किस तरह से करेंगे, जैसे बेरोजगारी की समस्या आदि। दोनों ही प्रत्याशी बारी-बारी से जनता के प्रश्नों के उत्तर देते हैं। राष्ट्रपति के लिए 3 उम्मीदवार हैं तो तीनों ही। ये डिबेट अमेरिका के 3 अलग-अलग शहरों में 3 बार अलग-अलग समय पर आयोजित होते हैं जिसे सारा अमेरिका भी टीवी पर ध्यानमग्न होकर देखता है। तीनों डिबेट तीनों शहरों के किसी बड़े हाल में होते हैं।
 
जनता के बीच भगदड़ न मचे और माइक्रोफोन के लिए छीना-झपटी न हो इसलिए प्रश्नकर्ता (जिसमें बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर श्रमजीवी वर्ग तक के लोग होते हैं) पहले से ही तय कर लिए जाते हैं। प्रश्नकर्ता भी अपने प्रश्न पहले से ही तैयार रखते हैं। तीनों डिबेट कुछ-कुछ समय के अंतराल से होते हैं। इलेक्शन-कैम्पेन के दौरान तीसरे डिबेट के समाप्त होते-होते राष्ट्रपति प्रत्याशियों की योग्यता, कि किस प्रत्याशी में देश चलाने का कितना दमखम है, की लगभग स्पष्ट छवि जनता को मिल जाती है। और वह तय कर लेता है कि किसे वोट देना चाहिए?
 
अमेरिका में देशभर में चुनाव-प्रचार का पलड़ा एक तरफ, तो तीनों डिबेटों का पलड़ा दूसरी तरफ होता है। किसी भी अच्छी प्रथा की नकल करने में कोई बुराई नहीं है। मैं समझता हूं भारत में भी चुनाव पूर्व राजनीतिक दलों को अपने-अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की पूर्व घोषणा कर देनी चाहिए और भारत के विभिन्न भागों में उनके बीच आम जनता के सामने 3-4 डिबेट होने चाहिए- देश की वर्तमान मौजूदा समस्याओं-समाधान संबंधी।
 
अमेरिका सिर्फ और सिर्फ ‘आम जनता के बहुमत’ को ही महत्व देता है (सांसदों-विधायकों के बहुमत को नहीं) जिसे गोरे-गोरी बहुल देश अमेरिका ने एक काले व्यक्ति को अपना राष्ट्रपति और 2 वर्ष पहले एक भारतीय युवती को ‘मिस अमेरिका’ (अमेरिका की सबसे सुन्दर लड़की) चुनकर साबित भी कर दिया है- ‘प्रत्यक्षम किम प्रमाणं’। 
 
अमेरिका-प्रवासी हम भारतीयों पर वैसे यह ‘इल्जाम’ लगाया जाता है कि ‘चूंकि आप लोग अमेरिका में रहते हैं अतः वहां का पक्ष लेंगे ही।’ लेकिन जो सच है, शाश्वत है जिसे सारी दुनिया देख रही व महसूस कर रही है, उसे झुठलाया भी कैसे जा सकता है?
 
तो इस लेख का सारांश और निचोड़ यह कि अमेरिकी राष्ट्रपति के हाथों में जो जनता का बहुमतरूपी अमोघ अस्त्र होता है वही अमोघ अस्त्र हम भारत के प्रधानमंत्री और यहां के राज्यों के मुख्यमंत्रियों को क्यों नहीं दे सकते? यह मात्र एक संविधान-संशोधन से या भारतीय संविधान में एक नया प्रावधान जोड़कर संभव हो सकता है अन्यथा हमारे 16 में से 10 प्रधानमंत्री 13 दिनों से लेकर 13 महीनों में ही गिरते रहेंगे। झारखंड में 10 साल में 10 मुख्यमंत्री आते-जाते रहेंगे। दक्षिण की अम्मा न सही, कोई और स्वार्थी सारे भारत को करोड़ों-अरबों-खरबों रुपयों के मध्यावधि चुनाव की आग में झोंकता रहेगा और सारा देश मूकदर्शक बना रहकर इसमें पिसता रहेगा।
 
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश काटजू के इस कथन से कि '80% भारतीय मूर्ख होते हैं', करोड़ों भारतीय नाराज होंगे। लेकिन 100% भारतीयों में से 1% ने भी हमारी कमजोर सरकारों के कारण और निवारण तथा देश के बेशुमार खर्चों वाले अनावश्यक पदों के उन्मूलन पर आज तक विचार नहीं किया।
 
महाभारतकालीन विद्वान महान राजनीतिज्ञ महात्मा विदुर के अनुसार- 'जो देश अपने गत इतिहास से कुछ नहीं सीखते, वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं'। सच भी है- हम अपने गत 68 वर्षों की (ज्यादातर) कमजोर और असफल सरकारों से कुछ नहीं सीखे और हम अपना इतिहास दोहराए-तिहराए जा रहे हैं।

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