'मम्मी वो साड़ी देखों.. वॉव कितना प्यारा कलर है ना? मेरा फ़ेवरेट कलर.. अगले हफ़्ते कॉलेज में 'साड़ी डे' है मम्मी, ये साड़ी दिलवा दो ना प्लीज, प्लीज प्लीज...?'
सलोनी बच्चों की तरह जिद करने लगी तो आरती मुस्कुरा दी। पर जैसे ही आरती ने साड़ी को उठा कर देखा तो वो ठिठक गई। खूबसूरत गहरे नीले रंग की साड़ी थी सचमुच लाज़वाब। सलोनी तो क्या? किसी का भी दिल आ जाए उस मोरपंख वाले गाढ़े रंग पर। पर आरती उस रंग को देख कर बैचैन हो उठी..। दिल में कड़वी यादों का ज़हर बूंद-बूंद रिसने लगा...
मोरपंखी नीले रंग की साड़ी पहन रखी थी उसने। गले में नाजुक चैन और हाथों में ढेर सारी मैचिंग चुड़ियां। पंद्रह-सोलह साल की आरती आईने में अपने आप को निहार रही थी, ख़ुश हो रही थी कि तभी उसकी मां कमरे में आ धमकी। आरती को देखकर हमेशा की तरह शुरू हो गई 'ये क्या पहन रखा है तूने? कितनी बार तो समझाया है तुझे कि ऐसे गहरे डार्क रंग ना पहना कर। तूझ पर नहीं जंचते बिट्टो। गाढ़े रंग तेरे रंग को और भी दबाते है। चल बदल वो साड़ी और अच्छी सी कोई हलके रंग की साड़ी पहने लें।'' मां अपना मतप्रदर्शन कर चली गई और इधर आरती की आंखों में घटाटोप उदासी उतर आई।
मां का ये हर बार का था। जब भी आरती चाव से कोई कपड़े पहनती मां हमेशा टोक देती। मां खुद भी सांवली थी, वे ख़ुद भी फ़ीके-फ़ीके रंग ही पहनती थीं। उनका यह मानना था की गाढ़े रंग केवल गोरे रंग पर ही खिलते है। सांवले रंग के लोगों को बस मटमैले या हलके रंगों पर ही संतोष मान लेना चाहिए, जैसे रंग का गोरा न होना मानो कोई गुनाह हो गया।
आरती को तो डार्क, चटकीले रंगों का शौक़ था पर मां थी हर बार आरती के लहलहाते जोश पर पानी फेर देती थी। मां अपने सांवले रंग के कारण हीन भावना से ग्रस्त थी और उनका ये इंफिरिटी काम्प्लेक्स धीरे-धीरे आरती पर भी असर करने लगा। अब मां के चश्मे से वो अपने आप को देखने लगी। अब वो भी अनमने भाव से अपने लिए कपड़े ख़रीदती, बिलकुल अपनी मां की पसंद के फीके, बेरंग से कपड़े। अपने पसंद के रंग पर नज़र तो ललचाती पर फिर उसका क्षत-विक्षत आत्मसम्मान उससे कहता.. 'ना सोचना भी नहीं'
वैसे आरती देखने में अच्छी थी। लंबे घने केश, सांवला रंग और छरहरी कदकाठी। पढाई में तो वो अच्छी थी ही साथ ही साथ सिलाई, कढ़ाई, बुनाई सब में माहिर थी। पर उसके घरवालों के ख़ास कर उसकी मां नज़रों में उसके सारे रूप गुण एक तरफ़ और रंग साफ़ ना होना एक तरफ़ था। आरती का दबा रंग उसकी सुंदरता को कम कर देता है ऐसा उनका मानना था। कितनी ग़लत धारणा है न हमारे समाज में? गोरा रंग ख़ूबसूरती का प्रतीक माना जाता है हमारे यहां। 'गोरी चिट्टी सुंदर लड़की, उजला-उजला ख़ूबसूरत रंग रूप' इतनी आसानी से हम बोल जाते है मानो गोरा रंग केवल एक रंग नहीं बल्कि सुंदरता का पर्यायवाची शब्द हो।
'नैन नक़्श तो सुंदर है पर क्या करें? रंग में मात खा गई लड़की'… मां उसे देखकर बुदबुदाती। बचपन से ही ये बातें सुन-सुन कर आरती बड़ी हुई थी। जिसे आजकल की भाषा में बॉडी शेमिंग कहा जाता है आरती उस बॉडी शेमिंग को न जाने कब से झेल रही थी। कितनी लापरवाही से हम किसी के रंग रूप, कदकाठी पर टिप्पणी कर देते है। क्यों नहीं हम समझते हमारे शब्द तीर-नश्तर बनकर किसी का कलेजा छलनी-छलनी कर सकते है। शरीर का रंग, उसकी लंबाई, चौड़ाई उसका दुबला होना़ भारी होना इंसान का व्यक्तित्व नापने के मापदंड कबसे बन गए? द्रौपदी का कृष्ण श्यामल रूप जहां सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था, आज उसी भारतभूमि में रंग का 'फेअर' होना ही अब 'लवली' माना जाता है? ऐसा क्यों?
खैर.. समय का पहिया अपने रफ़्तार से चल रहा था। आरती की शादी हो गई। प्यारी तो थी ही वो और गुणवान भी। अपना घर-संसार बड़े प्रेम से सजाया उसने। उसका पति मोहित भी भला इंसान था। उनकी प्यारी सी बेटी सलोनी बिलकुल आरती की प्रतिमा थी। वही नैन नक्श, वही मनभावन व्यक्तित्व और वही सांवला रंग...।' मम्मी ओ मम्मी, हैलो कहा खो गए आप? जल्दी बताओ ना कैसी है साड़ी?'
अतीत में गोते लगा रही आरती को बेटी ने आवाज़ ने लगाई तो किनारे पर आ गई। 'बताओ मम्मी ले लूं ये साड़ी? कलर अच्छा तो है? जंचेगा ना मुझ पर?' सामने खड़ी अपने बेटी को आरती देख रही थी। आत्मविश्वास से भरपूर, स्मार्ट, खिलखिलाती सलोनी को देख आरती मुस्कुराकर बोली- 'बड़ा सुंदर कलर है सलोनी, तुझ पर ख़ूब खिलेगा'।
साड़ी के चटकीले नीले रंग पर आरती की फिर नज़र गई। पीकॉक ब्लू, मोरपंखी रंग…सलोनी का फेवरेट रंग और उसका भी... देखते ही देखते एक बवंडर सा उठा दिल में, बरसों से दबे अरमान उमड़-घुमड़ कर आने लगे, एक बिजली सी कौंध गई और फिर अगले ही क्षण सबकुछ सामान्य हो गया। बस पल दो पल का खेल था, पर इन पल दो पलों बहुत कुछ बदल गया। बरसों से काफ़ी कुछ बिखरा पड़ा था अब समेटने लगा। कुछ दरका था अंदर अब सिलने लगा। एक बोझ था दिल पर… अब उतरने लगा।
मां बेटी जब शॉपिंग कर बहार निकली तो उनके हाथों में एक नहीं बल्कि दो पैकेट्स थी। उन पैकेट्स में वही मोरपंख वाले रंग की दो साड़ियां थी। जी हां, दो साड़ियां ख़रीद ली थी आरती ने। एक बेटी के लिए और एक… एक अपने लिए।
यादों का तूफ़ान सारी कड़वाहट ले उड़ा। मन शांत हो चुका था। अतीत को बहुत ढो लिया आज तक, पर अब नहीं… ठान ली उसने। रंगों से कटी-कटी रही थी आज तक… अब नहीं रहेगी, सोच लिया उसने।
जीवन की सुबह भले ही फीकी रही होगी, लेकिन अपने जीवन की शाम सिंदूरी होगी.. हो कर रहेगी ..तय कर लिया उसने।